महा साधक

September 1993

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“आर्य श्रेष्ठ!” आचार्य पत्नी ने यम से विनती निवेदन किया- “नचिकेता अभी किशोर ही तो है, उसके साथ इतनी कठोरता मुझसे देखी नहीं जाती। दस माह बीत गए उसने मठा और जौ की सूखी रोटियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं खाया। जबकि अन्य स्नातक और स्वयं मेरे बच्चे भी रसयुक्त, स्वादिष्ट भोजन करते हैं। फिर उसी के साथ इतनी कठोरता क्यों?”

यमाचार्य ने हँसकर कहा- “देवी! तुम नहीं जानती-साधना को ‘समर’ कहते हैं। युद्ध में तो अपना प्राण भी संकट में पड़ सकता है फिर भी कोई आवश्यक नहीं कि विजय ही उपलब्ध हो। अभी तो नचिकेता का अन्य संस्कार ही कराया गया है। परमात्म चेतना अत्यन्त पवित्र है, अग्नि रूप है। शरीर सामर्थ्य न होगा तो नचिकेता उसे धारण कैसे करेगा। नचिकेता आ यह अन्य संस्कार उसके अन्नमय कोश के दूषित मलावरण, रोग और विजातीय द्रव्य को निकालकर उस आत्मा-साक्षात्कार के योग्य शुद्ध एवं उपयुक्त बना देगा। यद्यपि यह सब छुरे की धार पर चलने के समान कठिन है। पर-नचिकेता के समान साहसी और प्रबल आत्म जिज्ञासु इसे सरलता से निभा लेते हैं। “

गुरु माता के विरोध के बावजूद भी नचिकेता का अन्न संस्कार एक वर्ष तक चलता रहा और उसके बाद आचार्य यम ने उसे प्राणायाम के अभ्यास प्रारम्भ करायें। प्राणाकर्षण, लोभ-विलोम, सूर्य-वेधन उज्जयी और नाड़ी शोधन आदि प्राणायाम का अभ्यास कराते हुए कुछ दिन बीते, उसके प्रभाव से युवा साधक के मुखमण्डल पर काँति तो बढ़ी पर उसका आहार निरन्तर घटता ही चला गया। गुरु माता यह देखकर पुनः दुःखी हुई और बोली ‘स्वामी! ऐसा न करो। नचिकेता किसी और का पुत्र है। कठोरता अपने बच्चों के साथ बरती जा सकती है और के साथ नहीं।’

यमाचार्य फिर हँसे और बोले-’भद्रे! शिष्य अपने पुत्र से बढ़कर होता है। उस बालक के हृदय में तीव्र आत्मा जिज्ञासाएँ हैं। यह वीर और साहसी बालक आत्म कल्याण की, साधनाओं की हर कठिनाई झेलने में समर्थ है, इसीलिए हम उसे पंचाग्नि विद्या सिखा रहे हैं। आर्यावर्त की पीढ़ियाँ कायर और कमजोर न हो पायें और यह आत्म विद्या लुप्त न हो जाये इस दृष्टि से भी नचिकेता को यह साधना कराना श्रेयस्कर ही है। माना कि उसका आहार कम हो गया है। पर प्राण स्वयं ही आहार है। आत्मा अग्नि रूप है, प्राण और प्रकाशवान है, वह प्राणायाम से पुष्ट होती है। इसी से उसे हर पौष्टिक आहर मिलते हैं। मनोमय कोश के लिए प्राणमय कोश का यह परिष्कार आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।”

एक वर्ष प्राण साधना में बीता। नचिकेता को अब यमाचार्य ने मन के हर संकल्प को पूरा करने का अभ्यास कराया। वह सोता तब अचेतन मन की पूर्व जन्मों की क्रियायें स्वप्न पटल पर उभरती, उसमें कई ऐसे पापों की क्रियाएँ भी होती जिन्हें प्रकट करने पर आत्मग्लानि होती। उसको वह सारी बातें बतानी पड़ती। गुरु माता ने उससे भी उसे बचाने का यत्न किया, पर यमाचार्य ने कहा-”आत्मग्लानि और कुछ नहीं पूर्व जन्मों के पापों के संस्कार मात्र हैं, जब तक मन निताँत शुद्ध नहीं हो जाता तब तक आत्मबोधन का मनोबल कहाँ से आएगा। मन की गाँठें खोलने का इसके अतिरिक्त कोई उपाय भी तो नहीं है कि साधक अपनी इस जन्म की सारी की सारी गुप्त बातें को प्रकट कर अपने कुसंस्कार धोये, स्वप्नों में परिलक्षित होने वालों में पूर्व जन्मों के पापों को भी उसी प्रकार बताये और उनकी शुद्धि प्रायश्चित करे।

मनोमय कोश भी शुद्धि के लिए नचिकेता को कच्छ चांद्रायण से लेकर गोमय--गोमूत्र सेवन तक की सारी प्रायश्चित साधनाएँ करनी पड़ती। उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही साधना की कठोरता को देखकर गुरु माता का हृदय करुणा से सिसक उठता। पर यमाचार्य जानते थे कि आत्मा की ग्रन्थियाँ तोड़कर उसे प्रकट करने जितना समर कितना कष्ट-साध्य है। अतएव नचिकेता को तपाने में तनिक भी विचलित नहीं हुए।

तीन वर्ष बीत गए, उसने कोई जीवन सुख नहीं जाना। शरीर को उसने शुद्ध कर लिया पर शरीर क्षीण हो गया, प्राणों पर नियंत्रण भी सीख लिया पर उससे मन क्षीण हो गया। मनोमय कोश को भी उसने जीत लिया। संकल्प-विकल्प युक्त नचिकेता अब इस स्थिति में था कि अपने मन को ब्रह्मरंध्र में प्रवेश कराकर सूक्ष्म जगत के विज्ञानमय रहस्यों की खोज करें और आत्मा तक पहुँच कर उसे शोभित करे, जगाए और प्राप्त करे। मन को दबाकर क्रमशः आज्ञा चक्र, विशुद्ध चक्र, मणिपुर चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, अनाहत चक्र तक प्रवेश किया। वहाँ बैठी हुई महाविद्या रूपिणी कुण्डलिनी की हल्की झाँकी होती तो उसका मन काँप उठता। पर दूसरे ही क्षण एक पुकार अन्तःकरण से आती कि मान लें यह भौतिक सुख नचिकेता अगर मिल भी गए तो इन्द्रियाँ उनका रसास्वादन कितने दिन तक कर सकती हैं। तू तो उस अक्षर, अविनाशी आत्मा का वरण कर।

पूर्णमासी का दिन, बसंत ऋतु-चार वर्ष से निरंतर उम्र तप कर रहे नचिकेता का शरीर बिल्कुल क्षीण हो गया था। आज का दिन उसके लिए विशेष महत्व का था। एक प्राण को दूसरे प्राण में समेटता हुआ वह मूलाधार तक जा पहुँचा। उसने अपने संकल्प की चोट की उस आद्यशक्ति पर। चिर निद्रा में विलीन कुण्डलिनी पर उसका कुछ असर हुआ, इस पर उसने तीव्र से तीव्रतर प्रहार हुआ, चोट खाई हुई काल सर्पिणी फुंसकार मार कर उठी व सहस्रार तक जाकर फुफकारने लगी। उसने नचिकेता के मन के स्थूल भाव को चबा डाला, जला डाला। नचिकेता आज मन न रहकर आत्मा हो गया। उसकी लौकिक वासनायें पूरी तरह जल गई। वह ऋषि हो गया।

अब वह ब्रह्म में विलीन हो सकता था। तथापि अपनी महान संस्कृति के उत्थान का संकल्प लेकर वह यहाँ से चल पड़ा और नवनिर्माण के महान कार्य में जुट गया। उसने इस पंचाग्नि विद्या का सारे संसार में प्रसार कर अमर साधक कहाने का श्रेय प्राप्त किया।


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