सार्थक ब्राह्मणत्व

September 1993

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माँ ! हरिद्रुमत के पुत्र महर्षि गौतम का तप और ज्ञान भुवन-विख्यात है। मैं ‘ईश-दर्शन’ की परितृप्ति के लिए उनके पास जाना चाहता हूँ। महर्षि मुझसे पूछेंगे-तुम्हारा नाम और गोत्र क्या है, तब मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा? ब्रह्मचारी बालक ने अपनी माता से यह सवाल किया।

जननी जाबाला ने उत्तर दिया-”तात! निराश्रित होने के कारण यौवनावस्था में मुझे अनेक गृह स्वामियों की परिचर्या करनी पड़ी। वृत्ति बनाये रखने के लिए मुझे उनको शरीर भी अर्पित करना पड़ता था? उनमें से तू किसका पुत्र है मैं यह नहीं जानती? इसलिए तेरा गोत्र भी कैसे निर्धारित करूं? हाँ मेरा नाम जाबाला है और तू अपने जीवन में सत्यकाम (“सत्य से ही प्रयोजन रखने वाला”) है। इसलिए जब वे तेरा नाम पूछें तो अपना नाम सत्यकाम जाबाल बताना। वत्स! तेरे जीवन का सत्य तेरी आत्म कलुषता की निवृत्ति ही तुझे ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दर्शन करेगी ऐसा मुझे विश्वास है। “

सत्यकाम जाबाल कई दिनों की यात्रा करके महर्षि गौतम के आश्रम पहुँचे। साष्टांग दण्डवत प्रणाम करने के उपराँत ब्रह्मचारी सत्यकाम जाबाल ने निवेदन किया-”देव! पचरह्वाचर जगत का स्वामी, नियन्ता और पालनकर्ता कौन है, उसका क्या स्वरूप है यह मैं जानना चाहता हूँ। आपकी सेवा में आचार्य श्रेष्ठ इसी हेतु से उपस्थित हुआ हूँ।”

“तुम्हारा गोत्र और नाम क्या है सौम्य!” महर्षि गौतम ने सीधा सा सवाल किया और कहे शब्द निश्छलतापूर्वक अक्षरशः दुहरा दिये-”भगवान! मेरी माँ यौवनावस्था में निराश्रित थी। आजीविका के लिए उसने कई सद् गृहस्थों की परिचर्या की। उनमें से अनेकों ने उसके साथ शारीरिक संबंध भी रखा। जब तक मुझे अपने पिता का निश्चित पता न चले, तब तक मैं अपना गोत्र क्या बताऊँ। हाँ मेरा नाम सत्यकाम जाबाल है।”

महर्षि एक क्षण के लिए ऐसे विचार मग्न हो गये, जैसे समाधिस्थ योगी अपने आप में ही खो जाता है। उनकी सम्मान अपने प्रभुत्व की रक्षा के लिए कैसे-कैसे झूठ बोलता और नाटकीय जीवन जीता है। इतना गहन सत्य इतने अधिक सहज भाव से कह देना असाधारण बात है। इसलिए सत्यकाम जाबाल निः गोत्र होकर भी ब्राह्मण और ईश्वर प्राप्ति का अधिकारी है। “

फिर सत्यकाम की ओर देखते हुए उन्होंने कहा- “वत्स! तूने सत्य का परित्याग न कर अपनी विशिष्टता प्रतिपादित की है। मैं तुझे ब्रह्म विद्या का शिक्षण दूँगा। जा समिधाएँ ले आ, तेरे उपनयन की व्यवस्था करने जा रहा हूँ। “ यह कहकर ऋषि अपने पर्ण कुटीर की ओर चल पड़े और सत्यकाम वन की ओर।

दीक्षा हो गई और भी बहुत से छात्र आचार्य गौतम के आश्रम में विद्याभ्यास करते थे। यह सब उच्च कुल और वर्ण के थे। उन्होंने सत्यकाम जाबाल के गुरु कुल प्रवेश को गंभीर बात माना। महर्षि के निर्णय की आलोचना-अवहेलना कर सके, ऐसी क्षमता तो उनमें नहीं थी, किन्तु उनके अनर्गल प्रलाप महर्षि गौतम के कानों तक पहुँचे बिना रह न सके।

महर्षि ने उस दिन का पाठ भी यथावत पढ़ाया और कहा-”बालकों ब्रह्म ज्ञान को शब्द की नहीं अनुभूति की भाषा में पढ़ा और जाना जाता है। उसके लिए एक ही शर्त है आत्मा का पूर्ण निष्कलुष और निष्कपट होना। जो किसी भी सत्य को उसी रूप में स्वीकार कर सकने का साहस रखता है, उसे जीवन लक्ष्य तो अपने आप दौड़कर मिलता है। उसे पाठ पढ़ाने या अक्षर ज्ञान कराने की आवश्यकता नहीं।”

महर्षि अपना वक्तव्य देकर लौटे तो सत्यकाम उनकी प्रतीक्षा करता हुआ मिला। उसने कहा-”भगवन्! निर्देश दें, मैं अपना अध्ययन कहाँ से प्रारंभ करूं।” ऋषि ने गंभीरता में ही स्थिर रहकर उत्तर दिया-”तात! यह है तीन सौ कृष गायें, इनके भरण-पोषण का भार तुम पर है।”

गुरु कुल के छात्रों ने मन ही मन आचार्य के निर्णय को सराहा। पर उन्हें इस बात का कहाँ पता था कि ऋषियों की पैनी दृष्टि व्यक्ति की श्रद्धा और निष्ठ को किस प्रकार एकाग्र कर उसके लिए आत्मकल्याण का राजमार्ग खोल देती है। ईश्वर तो प्रकाश है, जो परिस्थितियों के द्वारा तप और चिंतन के द्वारा आत्मा में उतरता है। पाठ्य पुस्तकें पढ़कर उसके संबंध में थोड़ी जानकारियाँ पायी जा सकती हैं। जो अनुभूति के अभाव में ऊपर की दूब की तरह बहुत शीघ्र मुरझा जाती है।

सत्यकाम जाबाल ने गुरु देव को प्रणाम किया। गौओं को प्रणाम किया। कृश-काय गौओं की ओर दृष्टि डालते ही उसकी आँखें भर आई। जो तपस्वी दिन-रात समाज के उत्थान के लिए अपने शरीर और शारीरिक हितों को बर्फ की चट्टान की तरह घुलाया करते हैं। उनके हितों की लोग इतनी उपेक्षा करते हैं कि गौओं को भर पेट चारा भी न मिले। आखिर शरीरधारी होने के कारण महर्षि को भी भौतिक उपयोग की वस्तुयें आवश्यक होती हैं।

हरित तृण चरती और स्वच्छन्द विचरण कर रहे निर्झरों का अमृतमय जलपान करती हुई गौएँ नित्य निखरने लगीं। उन्हें वर्षों बाद मनोवाँछित आहार और वातावरण मिला था, सो गौओं के स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन सुधरते जा रहे थे और उन्हें देखकर सत्यकाम का हृदय पुलकित होने लगा। श्रद्धा का यही तो गुण है कि वह प्रतिक्षण अपने श्रद्धास्पद की प्रसन्नता का ध्यान रखकर अपने अहंकार से शून्य हो जाता है। और तभी उसे विश्व के यथार्थ दर्शन करने का सुन्दर अवसर मिल पाता है।

गायों में एक साँड़ भी था। उसका अनेक गौओं के साथ संयोग हुआ और इस तरह नन्हें-नन्हें बछड़े बछड़ियाँ जन्म लेने लगे। देखते-देखते गायों की संख्या एक हजार हो गई। सत्यकाम को कुछ आश्चर्य हुआ, पर उन्होंने सत्य ब्रह्म के बारे में यह जान लिया जिस तरह एक ही साँड़ के वीर्य को अनेक जाति और वर्ग की गौओं के द्वारा धारण किये जाने से अनेक रंग की और रूप की नई गायें तैयार हो गई।

उसी प्रकार सृष्टि में जो कुछ भी है, वह ब्रह्म का ही वर्ग है। वही प्रत्येक चेतन प्राणियों में प्रस्फुटित और विकसित हो रहा है। इस तरह के चिंतन से उनकी साँसारिक मोह वासनाएँ नष्ट होकर बीज रूप परमात्मा में केन्द्रित होने लगीं।

एक दिन सायंकाल सत्यकाम ने गायों के झुण्ड को एक स्थान पर रोका। संध्यावंदन के लिए उसने अग्नि प्रदीप्त की। अग्नि ने जैसे ही समिधाओं को जलाना प्रारंभ किया उसके मस्तिष्क में विचार आया कि परमात्मा का शरीर अग्निमय है। वे ही पृथ्वी, अंतरिक्ष, स्वर्ग और समुद्र में अपने मंथन से प्रकाश, ऊष्मा, दिव्य ज्योति और बड़वाग्नि में उपस्थित होकर विराट संसार का संचालन करते हैं।

दूसरे दिन सत्यकाम अपनी गायों को लिए हुए आश्रम की ओर लौट रहे थे। मार्ग में एक हंस मिला। हंस को देखते-देखते ही उसे उसके नीर-क्षीर विवेक की बात याद आ गई और इस प्रकार सत्यकाम जाबाल ने माना कि ब्रह्मवेत्ता पुरुष को भी उसी संसार में केवल ब्रह्मतेज प्रकाश का ही अग्नि, सूर्य, चन्द्र और विद्युत के रूप में ध्यान करना चाहिए। इस तरह सत्यकाम ने प्रकाश पूर्ण लोकों में रहने की विद्या पाई।

इससे सत्यकाम को यह जानने का अवसर मिला कि ब्रह्म प्राण रूप से शरीर में विद्यमान है। प्रकाश है और प्रकाश रूप में ही सबकुछ आँखों से देखता है। अपने आप में ही वह कानों की तरह सब सुनता और मन की तरह वह अपने आप में सबकुछ कल्पित करता और एक कलाकार की तरह संसार में काम करता है।

इस तरह जब सत्यकाम जाबाल आश्रम लौटे तो उनके मुँह पर अपूर्व ब्रह्मतेज देखकर महर्षि गौतम ने संतोष भरी मुसकान बिखेरी उन्होंने अपने शिष्य को हृदय से लगा लिया। आश्चर्य से देख रहे अन्य छात्रों को महर्षि ने बताया कि सत्यकाम को प्रकृति के सान्निध्य का जो अनुपम अवसर लाभ मिला, उसने उसका पूरा सदुपयोग किया। शिक्षा मात्र रटंत बारहखड़ी व उथली जानकारियों का नाम नहीं है। शिक्षा तब ब्रह्मविद्या से मिलती है तभी सार्थक बनती है। विराट ब्रह्म का साक्षात्कार कर सत्यकाम ने अपने ब्रह्मणत्व को ही सार्थक किया है।


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