शाँति का राजमार्ग

September 1993

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उनके दान की ख्याति से दिशाएँ आलोकित थी। प्रशंसा के स्वरों की गूंज से वायुमण्डल व्याप्त था। क्या गुण नहीं थे उनमें? न्यायी, सत्यवादी , वीर, दानी तथा प्रजावत्सल सब कुछ तो वे थे ही। उन्हें अपनी प्रजा के प्रत्येक नर-नारी के प्रति निज की सन्तानवत् स्नेह था। अपने नित्य नियम के अनुरूप वह कई सौ दुधारू पशु-प्रचुर मात्रा में अन्न-वस्त्र तथा स्वर्ण मुद्राएँ दान करके ही भोजन ग्रहण करते थे। दानशीलता में उस समय उनकी टक्कर का कोई न था।

सब कुछ था, फिर भी आत्मा में शाँति नहीं थी। बड़े से बड़ा दान देकर भी उन्हें आत्म-संतोष न मिल पाता। वे यही सोचते रहते कि “मैं असंख्य नर-नारियों को नित्य अतुल दान दिया करता हूँ। मेरे समान कोई अन्य दयालु, उदार तथा दानशीलता शासक नहीं है।” और यही भावना उस समय चिंता का कारण बन जाती। वे परेशान होने लगते कि कहीं कोई अन्य व्यक्ति मुझ से अधिक दानशील अथवा कृपालु तो नहीं।

उनका यह-अहं आँशिक ही सही, इससे उपजी ईर्ष्यालु वृत्ति कभी उन्हें चैन न लेने देती और वे सदा मानसिक शाँति से वंचित ही रहते।

एक दिन वे अपनी प्रजा की वास्तविक स्थिति का परिचय पाने हेतु राज्य में भ्रमण कर रहे थे। वेश बदला हुआ था। तभी उधर से दो व्यक्ति बात करते हुए निकले। एक कहा रहा था “राजा जनश्रुति के राज्य में हम कितने सुखी है। किसी प्रकार की चिन्ता अथवा अभाव हमें नहीं है। योग्य शासक के रूप में तीनों लोकों में जनश्रुति की कीर्ति फैल रही है। उनकी दानशीलता की कोई सीमा नहीं।”

तभी बीच में बात काटता हुआ दूसरा व्यक्ति बोला “ हाँ भाई तुम ठीक कहते हो। परा सहस्रों व्यक्तियों को सुख-समृद्धि देने वाला यह नर रत्न स्वयं आत्मिक शाँति से वंचित है जो संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उससे तो वह गाड़ी वाला रैक्क कहीं उत्तम है। जिसने इस लोक की तथा लोकोत्तर शाँति भी प्राप्त कर ली है। उसका पुण्य जनश्रुति से कहीं ज्यादा है।”

जनश्रुति ने जैसे ही यह सब सुना उसी क्षण से उनका अहं हिम की शिला की भाँति बूँद-बूँद कर गलने लगा। विवेक झकझोरने लगा। हृदय में अपने आप के प्रति हीन भावना का समावेश हो गया और आत्मा तड़प उठी, उस धनहीन वैभव हीन गाड़ी वाले के दर्शनों के लिए। जिसे उनकी अपेक्षा कहीं अधिक पुण्यवान कहा जा रहा था।

अपने में अहं भाव एवं आत्म प्रशंसा की दुर्बलता के बावजूद नृपति में सच्चे ज्ञान के प्रति असीम-अभीप्सा थी। दूसरे दिन ही सेवकों-सैनिकों को आज्ञा दी गई कि कहीं भी किसी भी प्रकार उस गाड़ी वाले रैक्क को ढूँढ़ निकला जाय।

पर अभी केवल रस्सी जली भर थी बल नहीं गए थे। रैक्क को ढूँढ़ लिया गया। सूचना राजा को दे दी गई। जनश्रुति छै सौ दुधारू गाएँ, सैकड़ों अश्वों सहित रथ असंख्य स्वर्ण मुद्राएँ तथा प्रचुर मात्रा में अन्य बहुमूल्य सामग्री लेकर रैक्क के आश्रम पर पहुँचे। किन्हीं साधु संत अथवा धार्मिक प्रवृत्ति के महापुरुषों से मिलने जाते समय उनकी दानशीलता कुछ अधिक ही विक सित हो जाया करती थी। पर यह क्या? जनश्रुति ने रैक्क को प्रणाम किया। उत्तर में उन्होंने शुभ आशीर्वाद से भरे मंगल वचन कहे। तब नृपति के यह कहने पर कि “यह तुच्छ भेंट आपके लिए लाया हूँ-स्वीकार करके मुझे कृतार्थ करें।” रैक्क ने मंद हास्य के साथ कहा- “तुम आध्यात्मिक ज्ञान पिपासा की शाँति हेतु यहाँ आए हो तब इन सब वस्तुओं की क्या आवश्यकता थी? मैं क्या करूंगा इन्हें लेकर? देखते हो, मेरी कुटी बहुत छोटी है। यह सब कुछ तो राजमहलों में ही शोभा देता है। जिज्ञासा की शाँति के लिए तो यहाँ आपका आना भर पर्याप्त होता। अभी जाओ जब इन सब वस्तुओं की सारहीनता का बोध हो तब चले आना जो कुछ भी मेरे पास होगा-वह तुम्हारे जैसे जिज्ञासुओं के लिए ही है।”

जनश्रुति हतप्रभ होकर राजमहल लौट आये। उस दिन नींद भी नहीं। बेचैनी से पार्श्व बदलने हुए ही रात्रि के तीन प्रहर बीत गए। चतुर्थ प्रहर में कहीं नींद लगी। निर्धन गाड़ी वाले की विरक्ति का उन पर गहरा असर हुआ। रैक्क ने वे उनके वस्तुएँ स्वीकार नहीं की यह बात उनके अस्तित्व को तीर की तरह बेधती चली गई। आज उन्हें लग रहा था कि अब तक मैंने जो भी दान पुण्य किया वह सब निरुद्देश्य निरर्थक ही रहा। पर इससे उनके हृदय में रैक्क के प्रति जो श्रद्धा तथा निष्ठ के भाव थे वे घने और गहरे हो उठे थे।

प्रायः होते ही नित्य की भाँति चारण आए और उनके गुण-गान करते हुए गायन प्रारंभ किया पर आज उन्हें यह प्रशंसा सारहीन और भौतिक जगत से कहीं दूर-अपने आत्म भवन में ही रम रहे थे। तत्काल गुणगान की प्रक्रिया रुकवा दी गई। उनकी उद्विग्नता आज चरमसीमा पर थी। अब उन्हें ऐसा लग रहा था कि जब तक रैक्क से न मिल लूँ मुझे चैन न मिलेगा। आज उन्हें वे सब गाथाएँ भी याद आ रही थी जो रैक्क का पता लगाने गए हुए सेवकों ने आकर सुनाई थी कि किस प्रकार से सैकड़ों व्यक्ति अपनी चिन्ताएँ, उलझने, समस्याएँ लेकर जाते हैं और उस वैभवहीन गाड़ीवान से मानसिक परितोष व उल्लास की ऊर्जा लेकर लौटते हैं।

जनश्रुति बिना कुछ खाए पिए ही चल दिए और रैक्क के समक्ष जा पहुँचे। आज न दल-बल साथ में था, न कुछ भेंट चढ़ावा। आज थी मुखमुद्रा में असीम गम्भीरता, नयनों में चातक जैसी दर्शन लालसा, हृदय में अपार वेदना, मन में अमित श्रद्धा तथा आत्मा में अनन्त ज्ञान की प्यास। रैक्क उन्हें देखते ही प्रसन्नता से खिल गए। सादर बिठाया और कहा-”राजन् ! आज आपने आध्यात्मिक शाँति का राज मार्ग पा लिया है।

“राजा अवाक् थे। बड़ी मुश्किल में कह सके “अभी कहाँ पाया है भगवन् ! वह आपके अनुग्रह के बिना कहाँ प्राप्त होगा? अभी तक का जीवन निरर्थक ही चला गया। अब आपकी कृपा हो जाए तो इस तप्त मानस पर भी शीतलता के कुछ छींटे पड़ जायें।”

रैक्क ने कहा-”निरर्थक तो सृष्टि में एक कणिका जी है-नृपश्रेष्ठ। अभी तक आपने जो भी दान पुण्य, प्रजा की सेवा अथवा कार्य किये वे यश अथवा प्रशंसा की भावना से किए। और यश-प्रशंसा तथा आदर आपको उन उपकरणों के माध्यम से मिला भी।”

जनश्रुति की जिज्ञासा अब कुछ आश्चर्य मिश्रित होते जा रही थी। रैक्क जो एक साधारण सी गाड़ी हाँकने वाला था इतना बड़ा दार्शनिक लग रहा था कि जनश्रुति का हृदय बड़ा दार्शनिक लग रहा था कि जनश्रुति का हृदय झुका हुआ जा रहा था। तन फिर उन्होंने प्रश्न किया-”पर आत्मा को शाँति नहीं मिली है। मैं राज्य भोग, सुख सुविधाएँ सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हूँ देव ! बस मुझे संतोष चाहिए तृप्ति चाहिए, शाँति चाहिए।”

रैक्क अब जी अपने सहज स्वाभाविक मंद हास्य के बीच डूबता तरता प्रसन्न हो रहा था। उसने स्नेह से कहा-”अधीर न हो नृपवर ! राज्य अथवा सुख के साधन कुछ भी त्यागने की आवश्यकता नहीं है आपको। बस इन सबके प्रति मन में जो आसक्ति का भाव है उसे ही त्यागने से काम चल जाएगा। राज्य करिए पर अपने आपको सेवक समझकर। सुख-साधनों का भी उपयोग करिए पर यह सोचकर कि यह सब आपके उस शरीर की सुरक्षा के लिए है-जिस पर संपूर्ण देश की सुरक्षा का जार है। दान भी खूब करिए, पर यही सोचकर कि वे सब वस्तुएँ परमात्मा ने आपको केवल इसलिए दी हैं कि आप उन्हें उन दीन-पीड़ित तथा असहाय व्यक्तियों तक पहुँचा दें जो उनके सच्चे अधिकारी हैं। अपने आप को न मानकर केवल माध्यम मन लें। आत्मा की शाँति और कहीं नहीं आत्मा में ही छिपी होती है राजन् ! उसे जाग्रत करने भर की देर है बस। जो इस तथ्य को देख लेता है वही द्रष्टा है। आत्मा समस्त शक्तियों का भंडार है और यही भंडार असीम है अनन्त है।”

जनश्रुति इस ज्ञानामृत का पान उसी प्रकार कर रहे थे जैसे प्रथम पावरा के जल को ग्रीष्म से तपी धरती बूँद-बूँद पी जाती है। अब राजा अपने निवास स्थान की ओर लौट रहे थे। आज उन्हें ऐसा लग रहा था। जैसे कोई बोझ सा रखा था, वह अचानक ही हट गया। तत्वज्ञानी रैक्क का एक-एक शब्द स्मृति पटल पर जैसे शिलालेख की भाँति खुद कर गहरा हो गया था। राजा विचार कर रहे थे कि अजी तक कहाँ मैं अंधकार में भटक रहा था। यह साधनहीन सा दिखने वाला व्यक्ति अपने अंदर कितना बड़ा व्यक्तित्व समेटे है। चारों ओर से ज्ञान एकत्रित होकर उसकी आत्मा में उसी प्रकार भर उठा जैसे झील अपने चारों ओर की ऊँचाइयों का जल अपने आप में खींचती रहती है और असंख्यों प्राणियों की तृषा तृप्ति का उपकरण बन जाती है।

उस दिन से जनश्रुति के जीवन में जो परिवर्तन हुए। उन्हें लोगों ने खुली आँखों से देखा तथा अनुभव किया। दिन-रात वे असीम तृप्ति, अभेद्य शाँति तथा अपरिमित आनन्द का पान करने लगे। आत्मा की शाँति का स्रोत जैसे फूट कर झर-झर करता वह उठ था।


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