उद्यम से ही होती है कार्यसिद्धि

September 1993

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मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सद्गुण है श्रमशीलता। श्रम करते रहने से शरीर और मन के कलपुर्जे गतिशील रहते और उनकी तीक्ष्णता बढ़ती रहती है। सभी जानते हैं कि निकम्मा पड़ा रहने वाला चाकू भी जंग खा जाता है। इसके विपरीत बराबर काम करने वाला औजार तेज रहता है और चमकता रहता है। इसी तरह श्रमशील मनुष्यों का चेहरा भी चमकता रहता है। इसी के आधार पर जीवन संपदा का पूरा मूल्य वसूल किया जाता है। सारी उन्नतियाँ, समग्र विकास, परिश्रमी व्यक्ति के श्रम सीकार ही हैं।

संसार में एक नहीं, अनेकों ऐसे व्यक्तियों के प्रमाण मौजूद हैं, जिन्होँने साधन सुविधाओं से हीन परिस्थिति, में जन्म लेकर परिश्रम के बल पर उन्नति के शिखर पर पहुँच कर दिखा दिया।

उन दिनों बम्बई का वैंकटेश्वर प्रेस भारत में प्रतिष्ठित और कलात्मक छपाई के लिए प्रसिद्ध थी। उसकी यह ख्याति तभी से थी जबकि बड़े-बड़े शहरों में भी नाममात्र को प्रेस नहीं थे। इस प्रेस के संस्थापक खेमराज ने मारवाड़ से आकर गुजारे के लिए बम्बई में एक बुकसेलर के यहाँ नौकरी की। दिन रात मेहनत करके उन्होंने कुछ धन इकट्ठा किया जिससे एक छोटी सी पुस्तकों की दुकान कर ली। बाद में पुस्तकें बेचने के साथ कुछ पुस्तकें छापने भी लगे। इसमें उन्होंने इतना परिश्रम किया कि उनमें एक प्रकाशक की प्रतिमा जाग उठी। उन्होंने अपने अथक श्रम के बल पर इतना विकास किया कि बम्बई का वैंकटैश्वर प्रेस आज भी उनकी श्रमशीलता की गाथा गा रहा है।

सुई से लेकर इंजन तक छोटी से छोटी और बड़ी-से-बड़ी वस्तुओं के निर्माता उद्योग समूह टाटा के संस्थापक जमशेद जी टाटा को प्रायः सभी लोग जानते हैं। किन्तु यह जानने वाले कम ही होंगे, कि उनका जन्म गरीब पुरोहित परिवार में हुआ था। गरीबी में पले और पढ़े टाटा ने बड़े होने पर एक साथियों की टीम तैयार की और कपड़े का एक छोटा कारखाना खोला। कठोर श्रम की निरन्तरता के बल पर शनैः-शनैः उन्नति करते हुए कालान्तर में उद्योग पति के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उनके वंशजों ने इसी श्रमशीलता का अनुकरण करते हुए अपने औद्योगिक क्षेत्र को आगे बढ़ाया।

राकफैलर की गणना विश्व के समृद्धतम व्यक्तियों में की जाती है। किन्तु इस समृद्धि का अर्जन करने वाले डेविडसन राकफैलर को प्रारंभिक जीवन में अपना तथा अपनी माँ का पेट पालने के लिए मुर्गी खाने में काम करना पड़ता था। इस काम के अलावा वह कभी खेती में आलू खोदते और कभी मजदूरी करते। निरंतर किए गए परिश्रम के बल पर उपार्जित थोड़े से धन से एक नया काम शुरू किया और उन्नति करते चले गए। बचपन में फटे हाल स्थिति में प्रौढ़ावस्था समृद्धि तक पहुँचने की सफलता का रहस्य बताते हुए उन्होंने एक अवसर पर कहा कि मेरी उन्नति का राज है “श्रम निष्ठा”।

सुप्रसिद्ध सफल व्यवसायी शापुराजी बारोचा के जीवन में भी श्रम निष्ठा की छाप है। गरीबी में पले शापुरा जी ने किसी तरह पढ़ना शुरू किया। अध्ययन काल में समय मिलने पर मेहनत-मजदूरी करके माँ का आर्थिक दबाव कम किया। मैट्रिक पास करने के बाद उन्होंने कुछ दिनों रेलवे और बैंक की नौकरी की। बाद में स्वतंत्र व्यवसाय के क्षेत्र में उतरे। अपनी परिश्रम शीलता के बल पर वह निरंतर उन्नति करते गए

जाम्बिया के चिलाँगा स्थान में जोजा बेन्गोम नदी के किनारे मुण्डावाँगा नाक विश्व प्रसिद्ध उद्यान लगाने वाले राल्फ सेण्टर का पूरा जीवन श्रम का जीता-जागता प्रतीक है। यह 1951 में चिलागा में रेंजर थे। उच्च अधिकारों से प्रार्थना करके उन्होंने नदी किनारे 4 एकड़ भूमि प्राप्त की और अपने सृजन कार्य में जुट गये। नौकरी से जो समय बचता था उसमें वह बंजर पथरीली तथा छोटी-छोटी झाड़ियों वाली भूमि को बगीचा लगाने योग्य बनाते। वहाँ के निवासियों को अत्यधिक आश्चर्य था कि वह विचित्र व्यक्त इस बंजर भूमि पर बगीचा लगाने के लिए कितनी कड़ी मेहनत किए जा रहा है। किन्तु लगातार किया जाने वाला कठोर परिश्रम फलीभूत हुआ। असर आज यह स्थान विश्वभर के वनस्पति शास्त्रियों तथा सैलानियों के लिए बन गया है। इसमें 2538 प्रकार के पौधे हैं जिसमें 60 प्रतिशत विदेशी हैं। विश्वभर के उद्यान विशेषज्ञ श्रम के इस चमत्कार को दुनिया का आठवाँ आश्चर्य मानते हैं। उद्योग धंधे, व्यवसाय-रोजगार आदि के अलावा विभिन्न विषयों के विद्वान, समाज-सुधारक मनीषियों ने भी कड़ी मेहनत को अपनाकर ही सफलता पाई। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को 18-18 घण्टे काम करना पड़ता था और रात रात जागकर पढ़ते। इसी श्रम निष्ठा ने उन्हें उच्चकोटि का विद्वान बनाया।

सतपुड़ा और विन्ध्य की पहाड़ियों के बीच छोटे से आश्रम में रहने वाले पूना बाबा का संपूर्ण जीवन श्रममय था। उन्होंने पशुसेवा का श्रम साध्य कार्य हाथ में लिया। चिकित्सा सम्बन्धी जानकारों के लिए कड़ी मेहनत करने के साथ, घास काटना, बाड़ा साफ करना आदि कार्य भी स्वयं करते थे। इस अनुकरणीय जीवन से निकटवर्ती भीलों ने भी प्रेरणा लेकर अपने जीवन को परिवर्तित किया और उन्हें देवता की तरह पूजने लगे।

इसी तरह का जीवन व्यतीत किया इटलियन राजकुमार लाइन डिल वारजो ने। वे 1937 में 30 वर्ष की आयु में भारत आए। यहाँ उन्हें गाँधी-विनोबा का सान्निध्य प्राप्त हुआ। इन विभूतियों से प्रेरणा लेकर उन्होंने दक्षिण फ्राँस में आके कम्यूनिटी नाम के आश्रम की स्थापना की जिसमें 8 घण्टे का श्रम अनिवार्य है। आश्रम में काम आने वाली प्रायः सभी चीजें वहाँ तैयार होती हैं। आश्रम वासी समाज सुधार के लिए भी कार्य करते हैं। उनकी श्रम साधना और शाँतिमय जीवन को देखकर विनोबा ने उनका नामकरण किया था, शाँतिदास। पश्चिमी जगत में भौतिकता की विपुलता, और विलासिता के दिमाग बिगाड़ने वाले वातावरण में शाँतिदास अपना अपमान समझते हैं। इस प्रकार बरते जाने वाले उपेक्षा-भाव के कारण ही अभाव व्यस्तता और गरीबी को पोषण मिलता है क्योंकि मेहनत ही उपार्जन का आधार है। जिस समाज में इसके प्रति दिलचस्पी न होगी वहाँ उपार्जन असम्भव प्रायः है। इसके अभाव में स्वाभाविक संतोष मानसिक शाँति से वंचित रहना पड़ता है, क्योंकि श्रम जीवन का धर्म है।

किसी भी उपलब्धि का आधार परिश्रम ही है। इसकी महत्ता बताते हुए नीतिकार ने कहा है कि उद्यम करने से ही कार्यों की सिद्धि प्राप्त होगी। इच्छा करने या सोचने विचारने मात्र से नहीं। सोते हुए सिंह के मुख में पशुगण अपने आप नहीं चले जाते।

निःसन्देह इसके बिना और बात तो दूर पेट भरना भी कठिन होता है। परिश्रम करके खाद्य पदार्थों का उपार्जन करना पड़ेगा, उन्हें पकाना पड़ेगा।

हाथों में मुँह में डालना पड़ेगा तभी श्रम साधना सतत् प्रेरणास्रोत रहेगी। टी. इलियट,किशोरी लाल, मश्रूवाला, प्रतिभा बनर्जी, उर्मिला शास्त्री आदि ने श्रम को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाकर अनुकरणीय जीवन जिया।

आजकल परिश्रम के प्रति अवहेलना की वृत्ति हममें घर करती जा रही है। जिससे हमारे जीवन में असंतुलन पैदा हो गया है। तथाकथित शिक्षित कहे जाने वाले वर्ग में तो इसकी बढ़ोत्तरी और अधिक है। ऐसे लोग श्रम करने से प्रायः जी चुराते हैं। श्रम न करने के निठल्ले बैठे रहने से स्वास्थ्य जी गड़बड़ाने और लड़खड़ाने लगता है। इन दिनों की स्वास्थ्य संबंधी बढ़ती समस्या का यह एक भी प्रमुख कारण है। अतः बुद्धिमानी इसी में है कि हम श्रमनिष्ठा को किसी न किसी रूप में अवश्य पनपाये रहें। मानसिक श्रमशीलता से अचिन्त्य चिन्तन रुकता और अनावश्यक शक्ति क्षरण बन्द होता है, जबकि शारीरिक श्रम से शरीर मजबूत बनता एवं उसकी स्वास्थ्यता बढ़ती है। समृद्धि और सम्पन्नता में अभिवृद्धि होती है, सो अलग।


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