दीप पुरुषाय नमः

September 1993

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पूजा प्रतिष्ठा में दीपक को प्राथमिकता मिलती है और उसे देव प्रतिनिधि मानकर नमन वंदन की वेदी पर प्रतिष्ठापित किया जाता है। इसका कारण उसका वैभव नहीं स्तर है। जो सामर्थ्य की दृष्टि से नगण्य होते हुए भी ऐसे साहस का परिचय देता है जो सामान्यों में नहीं असामान्यों में ही देखा जाता है। श्रद्धा असामान्यों के ही चरणों पर विनत होती है।

दीपक की मूल्य संपदा नगण्य जितनी है। पर सदुद्देश्य के लिए बहुत कुछ कर गुजरने की हिम्मत असीम। दूसरों को प्रकाश देने के लिए, अँधेरे से जूझने के लिए अपने अस्तित्व की बाजी लगा देना सामान्यों के लिए अति कठिन है। कठिनाइयां झेलने, संकट उठाने के लिए तो इच्छा, अनिच्छा से सभी को विवश होना पड़ता है। यह नियति है। स्वार्थ पूर्ति भी बिना कष्ट सहे और पुरुषार्थ किए कहाँ होती है कुमार्ग पर चलने वाले भी पग-पग पर ठोकरें खाते रोते-चिल्लाते देखे जाते हैं। मरण तो निश्चित है। वैभव भी हस्तान्तरित होता है। यह प्रकृति व्यवस्था है जिसके कारण हर किसी को दौड़ने और मरने के लिए विवश होना पड़ता है। विवशता को सदाशयता और स्वेच्छा से शिरोधार्य करना और प्रवाह का उचित उपयोग कर लेना ऐसी दूरदर्शिता है किसे अपनाने का साहस, दीपक करता है और सर्वत्र सराहा जाता है।

साधनों की सार्थकता उनके उपयोग में है। दुरुपयोग से विनाश ही उत्पन्न होगा और अपव्यय से पश्चाताप। आनन्द उस वैभव से मिलता है जो सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त हो सके। दीपक की बुद्धिमत्ता इसमें है कि उसने विवेक की ज्योति जलाई और उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए वह साहस जुटाया जिसका परिचय देने में सामान्यों को असमर्थ ही रहना पड़ता है। साधनों का उपयोग अपव्यय का दुरुपयोग करना ही प्रवाह है इसी में सब बहते और ऊबते हैं। सदाशयता के निमित्त उन्हें जुटा सकना किसी से बन नहीं पड़ता।

आदर्शों की बात कहते सुनते तो कई देखे जाते हैं पर उन्हें व्यवहार में उतारने और निष्ठा की परीक्षा देने के लिए भट्टी का सामना करने के लिए तैयार कौन होता है। दीपक की निष्ठा ही वह महानता है जिसके साथ उसका देवोपम अभिवंदन होता है। निष्ठा की यथार्थता उसी त्याग, बलिदान की कसौटी पर सिद्ध है जिसे दीपक ने अपनाया और अपने को धन्य बनाया।

अंधेरा कितना विशाल-दीपक कितना नगण्य? अनाचार कितना व्यापक, आलोक कितना स्वल्प? संघर्ष में हार किसकी जीत किसकी? साथी कौन? समर्थक कितने? इन विवेचनाओं में उलझनों की अपेक्षा दीपक अपना कर्तव्य निर्धारित करता है और उस पर एकाकी चल पड़ता है। आत्मदान ही उसकी तपस्या है। आलोक वितरण ही उसकी साधना है संकल्प सच्चा है या झूठा इसका प्रमाण ही है लक्ष्य के प्रति अडिग निष्ठा। आदर्शवादियों को अनादि काल से इसी मार्ग पर चलना पड़ा है और अनन्त काल तक इसी पर चलना पड़ेगा।

गणितज्ञों की दृष्टि से दीपक मूर्ख है। उसने कमाया कुछ नहीं खोया बहुत। बुद्धिमानों की दृष्टि में दीपक सनकी है, जो अपने को लुटाता है। व्यवहार कुशलों का मत है आदर्शों की दुहाई देना भर पर्याप्त है, उन्हें अपनाकर घाटा नहीं उठाया जाना चाहिए। शुभ चिन्तकों और परामर्श-दाताओं का अजिमत जो भी रहा हो। दीपक का निश्चय है कि वह तमिस्रा की सघनता के मध्य भी प्रहरी होकर जियेगा। प्रभात की प्रतीक्षा करेगा। जब तक जागरण का पर्व नहीं आ जाता तब तक मूर्च्छना का लाज उठाने वाले निशाचरों को चुनौती देते रहना उसका धर्म है। इस नीति निर्वाह में किसका, कितना प्रयोजन सिद्ध हुआ इसका मूल्याँकन करना दूसरों का काम है। दीपक इतने से ही संतुष्ट है कि जो संभाग था, उसे पूरी ईमानदारी से करने में उसने प्रमाद नहीं बनता। धन्य है दीपक ! धन्य है उसका निश्चय !!


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