भटकन से उबरें, राजमार्ग पकड़े

September 1993

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मनुष्य को भटके हुए देवता की अत्युक्ति दी गयी है व यह कहा जाता रहा है कि कभी तो उसको अहसास होगा, अपने अन्दर निहित देवत्व का। कभी तो वह पहचानेगा कि किन महान उद्देश्यों को लेकर वह जन्मा है व स्रष्टा ने, उसके परमपिता ने, उससे क्या-क्या अपेक्षाएँ रखी है ? यह एक विडम्बना ही तो है कि मनुष्य सबकुछ जानते समझते हुए भी उसी राह पर चलता रहता है जो उसे नर-पशु बनने की दिशा में ले जाती है। नर-पशु वह जो मात्र पेट-प्रजनन तक सीमित ही न रहे, उसमें इतना लिप्त हो जा कि दीन-दुनिया, भगवान-परब्रह्म, समाज-परमार्थ किसी का कोई संबंध वह स्वयं से न मानें। इस युग की यह सबसे बड़ी नासमझी है जो अनेकों पर सवार है व ढेरों कुकृत्य उनसे कराती रहती हैं।

अध्यात्म, भटकन से उबारने की विधा का नाम है। अध्यात्म उस दूरदर्शिता का नाम है जो व्यक्ति यदि अंगीकार करले तो उसका देवत्व की ओर अग्रगमन का पथ कंटक विहीन होता चला जाता है। अध्यात्म आदर्शों का जीवन में उतारते हुए जीवन को श्रेष्ठतम बनाने का विधा का नाम है। वस्तुतः यह सही अर्थों में वही विधा है जिसका आश्रय लेने पर मनुष्य अमरत्व को - अमृतत्व को प्राप्त होता है (विधाऽयामृतमश्नुते)। अध्यात्म मनुष्य को संकीर्णता की पगडंडी से निकालकर उदार-परमार्थ की चौड़ी राजमार्ग की पट्टी पर ले जाने वाली एक ऐसी प्रक्रिया का नाम है जो देखते ही देखते व्यक्ति का आमूलचूल कायाकल्प कर देती है।

हमें देखना होगा कि हमें किस पथ पर जाना है ? कहीं यूँ ही तो नहीं चल दिए, बिना कुछ सोचे-समझे-विचार किये? बिना अपरिचित स्थान का नक्शा देखे, सही मार्ग पहले से मन में न रखकर चलने वाला भटकता ही रहता है, कभी मंजिल तक नहीं पहुँच पाता। यह भटकन बड़ी दुख भरी, संत्रास भरी परिस्थितियाँ पैदा करती है व तब हम परिस्थितियों को दोष देने लगते हैं। यदि भटकन से मुक्ति पानी है तो हम राजमार्ग पकड़े-अध्यात्म के अवलंबन का, आदर्शों के समुच्चय को जीवन का अपरिहार्य अंग बनाने का। फिर हम चाहे मंदिर जायें-न जानें, कर्मकाण्ड करें-न करें, हमारा भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है क्योंकि वास्तविक भगवान जो अंदर बैठा है, हमारे साथ है व मार्गदर्शन करता हुआ वह निश्चित ही हमें देवत्व की ओर ले जाएगा।


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