“आप तो आत्मदर्शन हैं ऋषि कुमार ! सभी जानते हैं आपने तरुणाई की साध, साधनाओं में घुलाकर सिद्धि पाई है। सबमें ही अद्वैत आत्मा का दर्शन करते हैं आप, फिर क्या मैं आत्मा नहीं हूँ जो आप मेरी आकाँक्षाओं की उपेक्षा करते हैं?” एक मनमोहन दृष्टि इतना कहते-कहते एक बार ऊपर उठी और महायोगी, विरुपाक्ष के तपःतेज से दमकते आनन पर टिक कर एक क्षण में ही झुक गई।
अखरों पर मधूरिम मुसकान बिखेरते हुए विरुपाक्ष ने उत्तर दिया-”वारुणि ! आप सच कहती हैं आप में भी वही आत्मा है जो समस्त जीवों में है। मुझमें यह जो चेतना काम कर रही है यह जी आत्मा ही है। किन्तु देवी ! विशुद्ध हुई आत्मा अपने ही गुणों का रसास्वादन करती है। करुणा का सुख, सेवा और सौजन्यता का अमृत, प्राणि मात्र में प्रेम भाव की प्रतिष्ठा-भद्रे ! मैं नहीं समझता इन भावनाओं से भी बढ़कर कोई सुख है, इस संसार में? इस शारीरिक सौंदर्य को इतना महत्व क्यों देती हो, आत्म के गुणों के प्रकाश में क्यों नहीं आती?”
वारुणि ने नीति शज्ञस्त्र पढ़ा था, दर्शन-तत्व मीमाँसा की व्याख्याएँ पढ़ी थीं, पातंजलि योग सूत्र जी उसने कंठस्थ किये थे। किन्तु सब वैभव के बंदीगृह में। वह एक नृत्याँगना के घर जन्मी थी। जब वह पढ़ती तब पायलों को झंकार, कहरवा और राग बहरतवील की लय में उसका मन झूमा करता। पखावज के साथ उसका पैर थिरकने लगता तो सितार के साथ उसकी चूनर हवा में नाचने लगती। शिक्षित होकर भी वातावरण ने उसे भोग भूख और खजाना की प्यास दी थी। वह आत्मा की निर्लेप भाव स्थिति को भला क्या जानती? विरुपाष का उपदेश काम नहीं आया, पर वह भी सच था कि उसने अपने सौंदर्य की जो जाल विरुपाक्ष को पाथबद्ध करने के लिए मिलाया था वह जी चूर-चूर हो गया। भद्रे ! विरुपाष ने कहा-”जब तक मनुष्य का मन र्निल न हो वह भाव प्रज्ञता को क्या समझेगा लो मैं चला पर याद रखना तुम्हारी यह काम लिप्सा ही एक दिन तुम्हारे पतन का कारण बन सकती है।” यह कहकर महाभाग विरुपाष है वहाँ से चल पड़े। वारुणि उन्हें अपलक देखती रह गयी।
यह पहला अवसर था, जब वह किसी पुरुष द्वारा ठुकराई गई हो। वाराँगना वारुणि के सौंदर्य ने आकर्षित न किया हो ऐसा एक भी तो राजकुमार तरुण, नागरिक, श्री सामंत नहीं बचा था अगस्तारण्य में। विरुपाष ही ऐसे व्यक्ति थे जिनके संयम के समक्ष वारुणि स्वयं पराभूत हो गयी थी।
वर्ष पर वर्ष बीतते गये काल के थपेड़े खाकर वारुणि का सौंदर्य न जाने कहाँ नष्ट हो गया। वह रूप श्री जो नित-प्रति अनगिनतों को लुब्ध करती मुग्ध बनाती और अपने चुम्बकत्व में आकर्षित करती रहती थी आज न जाने कहाँ विलीन हो चुकी थी। अब तो यौवन के पाप वृद्धावस्था में रोग और उपदेश के रूप में फल-फूल कर सामने आ रहे थे।
अद्भुत है कर्म कृषि जो जैसा बोता है, वैसा ही काटता है। आज सारे नगर में विसचिका का प्रकोप था। हजारों लोग रोज मौत के मुँह में समाते जा रहे थे। औरों के घर तो फिर भी प्रकाश सेवा-सुश्रूषा करने वो थे। एक वारणि ही ऐसी थी जिसके घर में भी अंधकार था और मन व मस्तिष्क भी निराशा और संताप की तमिस्रा में डूब चुके थे। कष्ट बढ़ता जा रहा था, पर प्राण नहीं निकलते। सारे शरीर में वर्ण फूटने लगे थे। घाव पोंछने वाला भी कोई नहीं था। उसकी आँखें पश्चाताप के आँसुओं से गीली हो रही थीं।
तभी द्वार खुलने की आवाज सुनाई दी। किसी ने आगे बढ़कर ज्योति स्तम्भ पर रखे सूखे दिए को टटोला और दीपक जलाया। महायोगी विरुपाष ने दीपक के प्रकाश में देखा, कि वारुणि के सिरहाने रखा तकिया भाव बिन्दुओं से भीग चुका है। वह वेदना की निर्झरिणी में डूब उतरा रही थी। आचार्य ने आगे बढ़कर वारुणि को हाथ का सहारा देकर बैठाया, जल पिलाया, घाव धोये, औषधि लेपन किया। हलकी शीतलता-नींद आ गयी वारुणि को। उसने स्वप्न में देखा कि एक दिव्य ज्योति सम्मुख खड़ी कह रही है-”वारुणि ! छोड़ इन भोगों की कामना को और आ मुझ में मिला जा।” उसका दर्द धुल गया और अब वह अपने आपको उस आत्मा में लीन अनुजव कर रही थी। जिसमें महायोगी विरुपाष विचरण किया करते थे।