जन्मा, एक और वाल्मीकि

September 1993

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आज गुरुदेव उदासीन दिखाई पड़ते हैं। अपनी सुरसरि सलिल से भीगी धूसर जटाओं द्वारा भगवान् बादरायण के पाद पंकजों को स्पर्श करने के अनंतर उनके प्रिय शिष्य पैल ने कहा-’यदि मैं अनाधिकारी न समझा जाऊँ तो कारण जानने की अंतर में उत्कण्ठा जाग्रत हो रही है।’ उनकी अंजलि बँधी थी और शब्द अत्यन्त नम्र। “सुन सकते हो वत्स।” महर्षि ने सूर्योपस्थान कर लिया था प्रातः कालीन हवन तथा सामगान समाप्त करके वे आज एकाकी इस सरस्वती तट के नीम तरु के मूल में बिना आसन के शिला पर आ बैठे थे। उनकी दृष्टि क्षितिज से उतर कर उस ऋषिकुमार पर पड़ी।

“प्राणियों में कलुषित भावना घर कर रही हैं। लोगों का चिंतन विकृत हो चुका है।” अहिर्निश जन-कल्याण का चिन्तन करने वाले उन करुणामय के नेत्र भर आये थे।” प्रायः सभी अल्पायु होते जा रहे हैं और उनकी मेधा शक्ति क्षीण होती जा रही हैं।”

“जो अनिवार्य है उसके लिए प्रभु को शोक क्यों?” संकोच के कारण शिष्य की वाणी रुद्ध हो गई। उसने दूसरे ढंग से कहा- क्या प्रभु उस नैसर्गिक नियम को परिवर्तित करने का कोई मार्ग ढूँढ़ रहें हैं? अपने गुरु की अपार शक्ति में शिष्य का संपूर्ण विश्वास था और वह इस विचार से पुलकित हो गया था।

“जगन्नियन्ता की इच्छा सर्वोपरि हैँ उसे कोई बदल नहीं सकता। महर्षि का स्वर खिन्न था। मैं सोच रहूँ इन अल्पवयस, अल्प मेधस, कलुष-हृदय प्राणियों के उद्धार का उपाय।”

“क्या वह आज भी अनुपलब्ध हैं?” शिष्य का स्वर कहता था कि वह आश्चर्य को संगत नहीं कर पा रहा हैं। पंचमवेद महाभारत प्रस्तुत हो गया है और प्रभु ने पुराणों की भी रचना कर ली हैं। इनमें न तो अधिकार की बाधा है और न मेधा की तीव्रता की आवश्यकता। सरल सुलभ साधनों द्वारा सभी के कल्याण का पथ प्रशस्त हो गया हैं ऐसा मैंने आचार्य चरणों से ही तो सुना हैं।

“ग्रंथ निर्माण ही तो उनका उद्देश्य पूर्ण नहीं कर दिया करता।” महर्षि का खेद ज्यों का त्यों था। श्रुतियों के इन सरल-सुलभ तथ्यों को विश्व भर में प्रसारित करने की आवश्यकता है। इसके बिना उनका निर्माण अर्थहीन हैं। हम सभी आचार्य के अंतेवासी तो उनके अध्ययन को उत्सुक हैं। पैल का स्वर भी निराशापूर्ण था वह समझ रहा था कि हम लोग इन महिमामय ग्रंथों के पढ़ने के योग्य आचार्य की दृष्टि में नहीं हैं। क्या हममें से कोई भी उनको उपलब्ध करने का अधिकारी नहीं?

“अधिकारी तो सभी है।” आचार्य के वाक्य ने संतोष दिया। “लेकिन प्रश्न प्रचार का है। ये ग्रंथ श्रुतियाँ नहीं हैं जो एक दूसरे तक आज की पाठ्य प्रणाली से प्रचारित हो जाएँगी। इनका प्रचार समाज के हर वर्ग तक करना हैं और तुम जानते हो कि द्विजेतर वर्ण ऋषिकुल में अध्ययनार्थ नहीं आते।

“तब?” सचमुच समस्या गंभीर थी और शिष्य ने इस पर कभी विचार नहीं किया था। “हम राज-सभाओं में उनका प्रवचन करेंगे।” झटपट उसे एक युक्ति सूझी।

“तब भी उससे अंत्यज तथा नारिवर्ग वंचित रहेगा।” सर्वज्ञ महर्षि ने योजना की त्रुटि पकड़ी। ऐसा मान भी लें कि कुछ उत्साही, साहसी आत्मत्यागी पंचम वर्ण की झोंपड़ी में भी निंदा स्तुति की चिन्ता किए बिना पहुँच जायेंगे, तो क्या उद्देश्य सफल होगा? ब्राह्मण के प्रति उत्तरोत्तर बढ़ती अश्रद्धा को तुम देख नहीं रहें हो? किसी विप्र की वाणी से अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न होगा इसमें संदेह ही है।”

“तब तो कोई मार्ग नहीं।” ऋषिकुमार संपूर्ण निराश हो गया। मार्ग तो प्रभु के हाथ में है। वे अमार्ग में भी मार्ग निकाल देते हैं। महर्षि कृष्ण द्वैपायन ने क्षितिज की और देखते हुए कहा। कोई अंत्यज या प्रतिलोमज-प्रतिभाशाली -उत्साही एवं शारीरिक-मानसिक शक्ति-संपन्न श्रद्धालु प्राप्त हो तो उससे द्विजाति तो वस्तु की उत्तमता के कारण ग्रहण करेंगे और द्विजेतर वर्ण साम्य के कारण उसकी वाणी का आदर करेंगे।

“कौन है ऐसा।” उसे महर्षि की दिव्य क्षमताओं पर भरोसा था। “उग्रश्रवा।” चिन्तन मग्न पैल नाम सुनते ही चौंक पड़ा। उसके चिंतन की कड़ियाँ एक-एक करके बिखरने लगीं।

कौन नहीं परिचित इस नाम से ? कश्मीर से पाटलिपुत्र तक उग्रश्रवा के नाम से सभी काँपते थे। वही एक ऐसा दस्यु है जो महीनों चलकर छापा मारता है। उसके और उसके लोगों का पता तक नहीं लगता। सूचित की हुई निश्चित तिथि पर उसके सैनिक प्रकट होते हैं जैसे प्रेत। फिर तो नृशंस हत्याकाण्ड से मेदिनी काँप उठती है। पैल यही सब सोच रहा था। इतने मैं अन्य अन्तूवासी आ गए। कुछ सोचते हुए महर्षि उठ खड़े। उन्होंने सभी को इशारा किया और एक ओर चल पड़े सभी के कदम स्वतः ही उनका अनुगमन करने लगे।

कुछ दिन चलने पर सभी ने नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही महर्षि का मुखमंडल करुणा से आशक्त हो उठा आंखें डबडबा आयी। अनुगमन कर रहें शिष्यों के चेहरों पर जुगुप्सा, घृणा व क्रोध के मिश्रित भव उभरे।

‘उफ इतना नृशंस नरसंहार।’ राजपथ पर लाशें बिखरी पड़ी थीं। भवनों के तोरण द्वारा टूटे पड़े थे और कहीं-कहीं अग्नि की लपटें उठ रही थीं। श्रावन, काक, तथा चीलों की चख-चख चल रही थी। गिद्ध मँडरा रहे थे। भवनों से अबलाओं एवं बालकों का करुण क्रंदन हृदय को विदीर्ण किए देता था। अकस्मात इस दुर्दिन में भगवान वेदव्यास विदर्भ में आ पहुँचे थे।

‘निश्चय ही दस्यु अभी नगर में ही है।’ आचार्य के पीछे चलने वालों में सबसे आगे के ब्रह्मचारी मीमाँसाकार जैमिनि ने कहा। बहुत बचाकर वे पाँव रख रहे थे कि कहीं रक्तादि के स्पर्श से गात्र-अपवित्र न हो जावे।

हम लोगों को लौट चलना चाहिए। एक ब्रह्मचारी ने जो सबसे पीछे तथा आयु में सबसे कम था कहा- इस समय नगर में घोर अशाँति हैं। इससे हृदय में खेद ही होता है। सभी नागरिक आकुल एवं त्रस्त हैं। ऐसे समय यहाँ हरने में कोई लाभ नहीं दिखाई पड़ता।

“इन क्रन्दन करते हुए दीनों को छोड़कर तुम शाँति के लिए आश्रम जाना चाहते हो?” गुरु के स्वर में स्नेह पूर्ण रोष था। “दोनों की उपेक्षा करने वाला दीनबंधु की उपेक्षा करता है यह तुम्हें स्मरण रखना चाहिए। ब्राह्मण के लिए सबसे बड़ी तपस्या हैं पीड़ितों का परित्राण। हम उससे विमुख नहीं हो सकते।”

“हम लोगों को प्रज्वलित अनल को शीतल करने में लग जाना चाहिए।” जैमिनी ने उत्साहपूर्वक कहा-और यदि संभव हो तो आहतों का उपचार भी करना चाहिए। इन कामों को नागरिकों ने प्रारंभ कर दिया हैं। बात सच्ची थी। हमें उससे भी महान काम करना है। ध्वंस को निवारित करना ही इस समय सबसे बड़ी आवश्यकता है। चाहते हैं। आचार्य की गति बढ़ गयी थी और अनुगामियों को दौड़कर अनुकरण करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा था।

“मैं उसे यही से शाप देकर भस्म कर दूँगा?” इस प्रकार आचार्य पाद की आकुलता तपस्वी कुमार अरुण के लिए असह्य हो गयी थी और उन्होंने कमंडलु में से अपनी दाहिना अंजलि में जल तथा वाम कर में कुश निर्मित ब्रह्दण्ड सँभाला।

“नहीं वत्स।” गुरुदेव रुक गए। स्नेहपूर्वक उन्होंने उस तेजस्वी किशोर के मस्तक पर हाथ फेरा। “क्रूरता का प्रतिकार जब कभी क्रूरता से किया जाता है वह उसे एक क्षणिक विराम देकर द्विगुणित महकाने वाला सिद्ध होता है। अनल को तेजस् घृत से नहीं शीतल जल से शाँत करना चाहिए।”

“यदि वह दुष्ट आपकी आज्ञा न माने?” आवेश जैमिनी में भी आ गया था। उनका कर्म सिद्धाँत जैसे को तैसा देने का समर्थक है।

वह तो ऐसा करेगा ही। अपमान एवं आघात भी कर सकता है। महर्षि ने कहा-वह तो भ्राँत हैं। ज्ञान हीन हैं। क्रोध ने उसे अंधा बना दिया हैं, और लोभ ने उसे उन्मत्त। वह क्या तुम्हारे कोप का पात्र हैं? उसके अज्ञानवश किए आचरण क्या देने योग्य हैं? दयनीय है वह।

शिष्यों की समझ में नहीं आ रहा था कि उनके कृपासिन्धु गुरुदेव अन्ततः करना क्या चाहते हैं। इतना ही उन्होंने समझा कि प्रत्येक स्थिति में शाँत रहने का कठोर आदेश मिल गया हैं।

कुछ ही क्षणों में एक भारी भरकम आवाज गूँजी दस्युराज उग्रश्रवा महर्षि के चरणों में प्रणाम करता है। उस समय ऋषियों का प्रताप मार्तण्ड मध्य क्षितिज पर था और दस्यु को यह ज्ञात था कि ऋषि की एक वाणी उसको सदल विनाश के गर्त में सहज ही

फेंक देने में समर्थ हैं।

“दस्युराज?” तुम्हें लज्जा नहीं आती? इस उपाधि को अपने मुख से संबोधित करने में? महर्षि के स्वर में तिरस्कार था ठीक वैसा तिरस्कार जैसा बच्चे को झिड़कते समय माता के स्वर में हुआ करता है।

“क्यों देव। मैं इसमें क्यों लज्जित होऊं?” दस्यु का कण्ठ दृढ़ था। मेरे पास छत्र-चँवर नहीं हैं, अन्यथा मेरे इस विजयाभियान तथा राजाओं की विजय यात्रा में क्या अंतर है? वे भी तो धन तथा यश के लिए ही लूट तथा हिंसा करते हैं। मैं नरपति शब्द की विडम्बना नहीं करता अन्यथा महाराज भी कहलाना कठिन नहीं हैं।

“नित्य किसी के द्वारा आचरित होने पर अनीति स्तुत्य नहीं हो जाती।” महर्षि ने घृणा पूर्वक कहा। राजा यदि दुष्ट दमन के अतिरिक्त शस्त्र उठाता है तो वह भी दस्यु हैं, यह तो ठीक किन्तु क्या इससे वह स्तुत्य हो गया?

“प्रतिभा के अधीश्रवर से तर्क करके विजय की आशा करने का दुस्साहस नहीं कर सकता।” दस्यु ने मस्तक झुकाया। मैं केवल उनकी किसी सेवा से अपने को पवित्र करने की इच्छा करता हूँ। क्या प्रभु अधम को इस योग्य समझते हैं।

“मैं स्वयं ही तुमसे याचना करने आया हूँ।” महर्षि ने उस दस्यु को चकित कर दिया। आशा है तुम अपनी प्रसिद्धि एवं साहस का सम्मान करोगे और एक वृद्ध ब्राह्मण को निराश नहीं करोगे। उन्होंने भेदक दृष्टि से उसकी ओर देखा।

“मेरे समीप किसी भी चक्रवर्ती के कोष से अधिक रत्न एवं स्वर्ण हैं तथा सभी राज्यों के कोष-गोधन आदि एक संकेत मात्र से प्राप्य हैं। बड़े उल्लास से दस्यु ने कहा- यदि प्रभु ने मुझे इतना बड़ा सौभाग्य का पात्र बनाया है तो यह सेवक भी मस्तक तक देकर

उसकी रक्षा करने का प्रयत्न करेगा।”

“मेरा काम वल्कल एवं फलों से चल जाता है और गायें सरस्वती तीर पर कम नहीं हैं।” उन महामेध का पार पाना दस्यु के लिए कहाँ शक्य था। वह उनकी माँग सुनने को उत्सुक था। “मेरे देवता को बलि भी नहीं दी जाती। मैं तो एक साधारण भिक्षा चाहता हूँ। तुम उसे दोगे सुत?”

“मैं आज्ञा की प्रतीक्षा कर रह हूँ।”हाथ जोड़कर उसने मस्तक झुका रखा था। लूट के स्वर्ण - वस्त्रादि की ढेरी एक ओर लगी थी। उसके दल के सभी अनुयायी एकत्र हो गये थे। उनके वस्त्र रक्ताक्त हो चुके थे। अरुण खंगम्यान में चले गए थे और भाले आदि उन लोगों ने पीछे डाल दिये थे। वे जानते थे कि महर्षि के समीप उन पर कोई आघात करने का साहस न करेगा और यदि कोई करे भी तो वे दुर्बल नहीं हैं। दोष उनका नहीं रह जायगा तब।

“यह संपत्ति उनके स्वामियों के लिए छोड़ दो।” यहाँ तक तो दस्यु ने कोई आपत्ति नहीं की, किन्तु महर्षि कहते ही चले गये- और इन शस्त्रों को फेंक दो। इस नृशंस कार्य को सदा के लिए परित्याग करने प्रतिज्ञा करो।

“यदि मैं यह न कर सकूँ?” डाकू का स्वर भर गया था। वह अपने को सचमुच विवश पा रहा था। क्या कोई दूसरी आज्ञा देकर प्रभु अपने वचनों से छुटकारा नहीं दे सकेंगे? वह बहुत कातर हो रहा था। कह नहीं सकते कि शाप के भय से भीत भी था या नहीं।

“केवल एक बात और वत्स”! महर्षि एक वाक्य ने उसे आश्वासन दिया। केवल एक ही बात परिवर्तन में और वह यह कि ऐसी दशा में अन्य किसी पर शस्त्र प्रयोग करने के पूर्व तुम मेरा वध कर दो। भगवान व्यास ने अपना रजत श्मश्रु केश मण्डित मस्तक झुका दिया।

“छिः!” दस्यु जैसे पागल हो गया। उसने अपनी कमस से तलवार नोचफ की कवच उतार दिया और उन विश्ववद्य के चरणों में रोता हुआ गिर पड़ा।

इस घटना के कई दिन बीत गए। एक दिन सरस्वती के पावन तट पर भगवान व्यास एक शिला पर आसीन थे और अग्रश्रवा दोनों हाथ बाँधे उस शिला के नीचे घुटनों के बल बैठा हुआ था “तुम धातु और पाषाण के पीछे इतने व्यस्त क्यों हो गए हो?” भगवान् व्यास के स्वरों में कोमल वात्सल्य भाव उमड़ रहा था।

“आनन्द तथा सुख के लिए।” उसकी वाणी उसके नेत्रों के समान ही आर्द्र थी। वस्तुतः उसका हृदय उसे अपने क्रूर मार्ग पर लौट जाने के लिए बार-बार प्रेरित कर रहा था और निष्कपट भाव से उसने श्रीगुरू चरणों में अपनी आँतरिक व्यथा निवेदन कर दी थी।

“तुम विश्वास करते हो कि उनमें आनन्द और सुख हैं?” उन योगिराज के नेत्र उसके दोनों नेत्रों पर स्थिर हो गए। उन्हें इस हिरन के सम्मुख डाल दो और देखो कि यह उनसे कितना सुख या आनन्द प्राप्त करता है। पास ही एक मृग शावक हरित तृणों को धीरे-धीरे कुतर रहा था।

“यह उनके मूल्य को नहीं जान सकेगा। उसने वैसे ही साधारण ढंग से कह दिया।

यह मूल्य ज्ञान कल्पना ही तो हैं। महर्षि गंभीर होकर बोले-तुमने उसे बहुमूल्य मान लिया हैं, इसी से उसे पाकर प्रसन्न होते हो। यह प्रसन्नता उनमें से नहीं तुम्हारे अंतर से ही तुम्हें उपलब्ध होती हैं।

“वह उसका निमित्त कारण तो है ही!” अब भी उसका हृदय परिवर्तित नहीं हुआ था। अंततः प्रसन्नता किसी कार्य में तो होती नहीं। वह कहीं न कहीं निमित्त रूप में ही तो प्राप्त होती हैं, ऐसी उसकी मान्यता थी।

“वह कार्य में भी होती हैं। “ महर्षि ने पुचकारा और उनका संकेत पाते ही वह मृग उनके पैरों के पास आकर खड़ा हो गया। उनका कोमल हाथ उसकी पीठ पर घूम रहा था और वह पशु मुग्ध भाव से उनके नेत्रों की ओर देख रहा था। तुम कह सकते हो कि विश्व में कोई ऐसा प्राणी है जिसे यह स्नेह आनन्द नहीं देगा? दूसरों को इस प्रकार स्नेह दान में अंतर को क्या कम आनन्द उपलब्ध होता है?

“गुरुदेव।” जैसे कोई अलौकिक घटना हो गयी हो। बड़े ही अद्भुत स्वर में वह पुकारा। दो क्षणों के लिए उसकी वाणी मूक हो गयी। भगवान व्यास के नेत्र अभी भी उसके नेत्रों में स्थिर थे। महर्षि का भाव प्रवाह नेत्रों के माध्यम से प्रविष्ट होकर उग्रश्रवा की अंतःचेतना का मथ रहा था। आपकी वाणी ने मेरे हृदय के घोर अंधकार को दूर कर दिया। आप इस मानव रूप में साक्षात् श्रीहरि हैं। वह वहाँ अपने ही नेत्र सलिल से भीगी पृथ्वी पर दंडवत् लेट गया। बड़े कष्ट से उसने उपयुक्त शब्द कहें।

भगवान व्यास मुस्कुरा रहे थे। उस दस्युपति को क्या पता था कि वह अनजाने में जो महात्म्य वाक्य कह गया वह सत्य ही था। मुझ पापिष्ठ का उद्धार कैसे होगा नाथ? वह विक्षिप्त की भाँति तड़प उठा।

अब तक तुमने दूसरों की स्थूल संपत्ति तथा जीवन का अपहरण किया हैं। व्यासदेव कह रहे थे। अब इस योग्य बनो कि तुम उन्हें अंतर की दिव्य संपत्ति एवं अमर जीवन वितरित कर सको। दूसरों को शाँति देकर तुम शाँति प्राप्त कर सको। दूसरे दिन से वह उग्रश्रवा भगवान व्यास का प्रधान पुराण वाणी सूत हो गया। उसके पुराण प्रवचन को सुनकर अनेकों अपना सोया देवत्व जगाकर ऋषि बनें। इस प्रकार न केवल एक नया बाल्मीकि जन्मा, ब्राह्मणत्व के विस्तार की नया प्रक्रिया का शुभारंभ हो गया।


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