जिस प्रकार शरीर में कुछ कारणों से ज्वर, दाह, सूजन आदि का प्रकोप हो जाता है, उसी प्रकार मनः क्षेत्र पर भी कुछ ऐसे भार लद जाते हैं जिनका भार न सह पाने के कारण वह उत्तेजना का केन्द्र बन जाता है। आवेश चढ़ने लगता है और इस प्रकार से ज्वर की स्थिति बन जाती है। यही तनाव है। इस स्थिति में सिर तो भारी रहता है साथ ही बेचैनी, घबराहट, उदासी, थकान का भी सिलसिला चल पड़ता है। रात को थोड़ी और हलकी नींद आ पाती है जिससे सबेरे उठने पर भी स्फूर्ति का अनुभव नहीं होता। रात करवटें बदलते बीतती है। कोई सामान्य विचार मन में चल पड़े तो वह लगातार चलता ही रहता है। हटाने पर हटता नहीं। कुकल्पनाओं का एक पूरा जाल जंजाल बनकर खड़ा हो जाता है और उसी में चिंतन के समस्त सत्र, सारी सामर्थ्य खप जाती है।
तनाव रात्रि में अनिद्रा का कारण बनता है और दिन में खीज का, उदासी मिश्रित आवेश चढ़ा रहता है। फलतः किसी काम में मन नहीं लगता। न काम करना सुहाता है और किसी व्यक्ति का व्यवहार। तनिक-तनिक सी बात पर झुँझलाहट आती है और वह प्रसंग समाप्त हो जाने पर भी उत्तेजना बनी रहती है अपने पराये सभी बुरे लगते हैं। उनसे न शिष्टाचार निभ पाता है और न सद्व्यवहार बरतते बन पड़ता है।
जब श्रम-समय और व्यवस्था का तालमेल नहीं बैठता तो फिर हाथ में लिया काम ठीक प्रकार नहीं होता उसमें असफलता ही दृष्टिगोचर होती है। उसे देखकर दूसरे भी खीजते हैं और उपहास उड़ाते हैं। अयोग्य ठहराते हैं। उसकी प्रतिक्रिया अपने ऊपर और दूसरों के ऊपर खीज आने के रूप में सामने आती है। यह एक प्रकार से रुग्णता की स्थिति है, जिसके लम्बे समय तक चलते रहने पर मनुष्य आत्महीनता की ग्रंथियों में जकड़ जाता है। ऐसे ही लोग घर त्याग कर बैरागी का वेश बनाते, देश परदेश आवारागर्दी में भटकते और कभी तो आत्महत्या कर बैठते हैं।
तनावग्रस्तता का कारण प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं। पर प्रमुख कारण मनःस्थिति का गड़बड़ाना है। ऐसे रोगियों को देखते यह चाहिए कि उन्हें आवश्यकता से अधिक काम अनिच्छा के साथ तो नहीं करना पड़ता। मनुष्य को परिश्रमी तो होना चाहिए पर काम को विनोद मानते हुए खिलाड़ी की भावना से करना चाहिए। उसे भार बेगार या अत्याचार अनुभव नहीं करना चाहिए। बिना बीच-बीच में विश्राम किये लगातार काम करते रहने से भी ऐसा होता है कि अंदर गर्मी की मात्रा बढ़ जाती है और वह शरीर को ज्वर से तपाने की तरह मस्तिष्क पर उत्तेजनात्मक प्रभाव डालती है। इसका प्रत्यक्ष परिचय तनाव के रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है।
कभी-कभी मानसिक तनाव के चिह्न शरीर पर भी उभर आते हैं। हाथ पैरों में जलन, भड़कन कँपकँपी जैसे चिह्न दिखाई पड़ते हैं। पेट तो विशेष रूप से अपना क्रियाकलाप ढीला कर देता है। अपच रहने लगता है। मल त्याग में बाधा पड़ती है और मूत्र थोड़ा-थोड़ा करके गँदले रंग का होने लगता है।
मानसिक उत्तेजना शारीरिक अस्तव्यस्तता को बढ़ाती है और शारीरिक अस्तव्यस्तता मन को गड़बड़ा देती है। उसी चपेट में अनिद्रा और उत्तेजना का माहौल चढ़ दौड़ता है। तनाव-ग्रस्त व्यक्ति सदा खिन्न-उदास और खीजे हुए दीखते हैं। यह सामान्य स्वास्थ्य को लड़खड़ा देने के चिह्न हैं। जीवनी शक्ति पर दुष्प्रभाव पड़ने से वह तनिक-तनिक सी प्रतिकूलताओं को सहन नहीं कर पाती और छोटे-मोटे कारणोँ से कई प्रकार के रोग अनायास ही पकड़ लेते हैं। दुर्बलता और रुग्णता तनाव की सहेली बन कर रहती है।
इस व्याधि से छुटकारा कैसे पाया जाय? इस प्रश्न उत्तर पाने के लिये चिकित्सकों या दूसरे लोगों से यत्किंचित् सहायता ही मिल पाती है। उनके पास उत्तेजना −परक निद्रा लाने वाली या उत्तेजना बढ़ाने वाली औषधियाँ ही होती है, जो तात्कालिक कुछ लाभ दिखाने के उपराँत अपना प्रभाव खो बैठती है। तब स्थिति और भी बिगड़ जाती है।
समझा जाना चाहिये कि काम करने की शैली में अव्यवस्था का प्रवेश हो जाने से निर्धारित काम न तो पूरे हो पाते हैं। और न सही रूप में उनका तारतम्य बैठ पाता है। ऐसी दशा में बिगड़े या उलझे हुये काम यह चाहते हैं कि पाता है। ऐसी दशा में उलझे हुये काम या चाहते हैं कि नये सिरे से कार्य पद्धति का निरीक्षण किया जाय और उसमें जहाँ भी खोट रह रही हो, उसे निकाला जाय। क्रमबद्ध दिनचर्या बना लेने से बीच बीच में थोड़े विश्राम का समय भी निकल आता है और काम भी पूरा हो जाता है। मन पर भार भी नहीं पड़ता। इस लिये तनाव के रोगियों को समय सारिणी बना कर अपना दैनिक क्रम ऐसा बनाना चाहिये जो सन्तुलित हो। शरीर और मस्तिष्क के अनुरूप ही काम करना पड़े। लगातार काम करने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि बीच−बीच में थोड़े थोड़े समय के लिये विश्राम लेते रहा जाय।
काम को भार न माना जाय और न उसके सर्वोत्कृष्ट रूप की ही कल्पना की जाय। जो अपनी इच्छायें सर्वोत्कृष्ट स्थिति तक पहुँचती या पूरी होती देखना चाहते हैं उन्हें तनिक सी कमी रह जाने पर असंतोष होता और रोष आता है। हड़बड़ी सदा काम को बिगाड़ती है। या हड़बड़ी उन्हीं को होती है जो महत्वाकांक्षाएं से बड़ी−बड़ी संजोये रहते हैं पर काम कुछ नहीं कर पाते या थोड़ी मात्रा लँगड़े −लूले स्तर का ही बन पड़ता है। इसलिये अपने कामों के संबंध में सामान्यतया काम चलाऊ बनता रहे इतने में ही संतोष करना चाहिये।
जन−संपर्क में मनुष्य का अनेक लोगों से पाला पड़ता है। इसमें ..कुटुम्बी संबंधी, मित्र, पड़ोसी ही नहीं कर्मचारी और अधिकारी भी होते हैं। उन्हें यदि सदैव प्रसन्न रखने की बात सोची जाय तो वह बन पड़ने वाली बात नहीं है। किसी न किसी से कुछ न कुछ मतभेद रहेगा ही और एक दूसरे के कार्य व्यवहार में नुक्ताचीनी निकालते ही रहेंगे। उन्हें साधारण और स्वाभाविक मानकर चलना चाहिये और बात को नाराजी के स्तर तक पहुँचने देने की अपेक्षा यही करना चाहिये कि किसी प्रकार मतभेद का समाधान निकल आये और संबंधों में कटुता न आने पाये।
किसी भी घटना या व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक महत्व न दिया जाय। जीवन का एक कला, एक खेल माना जाय जिसमें अनुकूलतायें आती जाती ही रहती है इन्हें अनावश्यक महत्व देने और उनके बनने बिगड़ने पर ही खोज आती है। यह खोज ही तनाव का प्रधान कारण होती है।उसे इसी रूप में मानकर चलना चाहिये कि यह दिनचर्या अस्त−व्यस्त होने या मस्तिष्कीय घुस पड़ने की प्रतिक्रिया मात्र है। इसे संभाल लेने और मौज मस्ती के साथ जी सकने का अभ्यास करने पर तनाव की तीन चौथाई समस्या करने पर तनाव की तीन चौथाई समस्या हल हो जाती है। वस्तुतः तनाव की सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा प्रबंध व्यवस्था को विकसित कर लेना है।