यथा संस्कृति, तथा भाषा

September 1993

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संस्कृत शब्द का अर्थ है- शुद्ध, परिष्कृत , परिमार्जित। अतः संस्कृत भाषा का अर्थ हुआ शुद्ध एवं परिमार्जित भाषा केवल व्याकरण या कथोपकथन मात्र नहीं होती, वरन् उसमें अभिव्यक्ति की विविध क्षमतायें भी होती है। जो भाषा अभिव्यक्ति में जितनी समर्थ होगी, उसे उतना ही समृद्ध माना जायेगा। इस प्रकार शुद्ध और परिमार्जित भाषा वही मानी जायगी, जिसमें जीवन के सभी भावों की अभिव्यक्ति भलीभाँति हो सकती हो और इसके लिए अस्पष्टता, अशुद्धता अथवा काम चलाऊपन का सहारा लेना आवश्यक न हो। समर्थ भाषा वही है जो मनुष्य समुदाय के समस्त विचारों और भावनाओं को परिष्कृत ढंग से अभिव्यक्त कर सके।

अभिव्यक्ति विचारों और भावनाओं के अनुसार ही होती है। जिसके जैसे संस्कार और विचार होंगे, चिन्तन और भावनायें होंगी वैसी ही उसकी भाषा शैली होगी। परिमार्जित परिष्कृत भाषा उत्कृष्ट एवं परिष्कृत चिन्तन एवं संवेदना भाषा को संस्कृति की वाहिका कहा गया है, जैसी संस्कृति होगी वैसी ही भाषा होगी।

ज्ञानामृतमयी संस्कृत भाषा को देववाणी कहा गया है। यह समग्र देव संस्कृति की वाहिका भाषा है। उसकी समृद्धि, उसका सौंदर्य और महत्व उस संस्कृति के संदर्भ में ही है। वेदों का ऋषियों का समूचा ज्ञान-विचार इसी एक भाषा में सन्निहित है अतः इसे वेद जननी भी कहते हैं। यह न केवल भारतीय भाषाओं का मूल है, वरन् संसार में समस्त भाषाओं को जन्म देने वाली ओजमयी भाषा भी यही है। सुप्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर ने अपने ग्रंथ “साइंस आफ लैंग्वेज “ में लिखा है- संस्कृत तो भाषाओं की भाषा है। विविध भाषायें इसी एक भाषा से जन्मी है। मूर्धन्य मनीषी विलियम जोन्स ने कहा है कि संस्कृत भाषा संसार की सबसे प्राचीन भाषा है। इसकी रचना अद्भुत है। वह ग्रीक भाषा की अपेक्षा अधिक पूर्ण, लैटिन भाषा की अपेक्षा अधिक संपन्न और दोनों की तुलना में अधिक परिष्कृत है। परंतु दोनों के साथ धातु क्रियाओं और व्याकरण के रूप में इतनी मिलती जुलती है कि यह मिलाप आकस्मिक नहीं हो सकता। यह मिलाप इतना गहरा है कि कोई भाषा शास्त्री परीक्षा करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे बिना नहीं रह सकता कि ये सभी भाषायें एक ही स्रोत संस्कृत भाषा से निकली है। महात्मा गाँधी के शब्दों में संस्कृत अध्यात्म की भाषा है जिससे समस्त भाषायें विचारणायें एवं भावनायें अपना पोषण प्राप्त करती है। जब से हमने अध्यात्म को खो दिया तब से संस्कृति को भी खो दिया और इस प्रकार संस्कृत भाषा का प्रभाव प्रसार घटता गया।

संस्कृत की संस्कृति क्या है? इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करें तो उसके एक-एक पक्ष की समृद्धि को देखकर आश्चर्य होगा। अपने समय के योरोपीय अभिजात्य वर्ग पर टिप्पणी करते हुए प्रख्यात जर्मन कवि गेटे ने कहा था- “यह सोचकर आश्चर्य होता है कि एक समृद्ध उच्चवर्गीय अंग्रेज का कितना सारा समय लड़ने और महिलाओं को ले भागने में लगता है। यद्यपि इसका तात्पर्य यह नहीं कि अंग्रेजों में आध्यात्मिक पुरुष, विद्वान तपस्वी और त्यागी लोकसेवी कुछ कम हुए है। गेटे का तात्पर्य पाश्चात्य संस्कृति के उस पक्ष को उजागर करना है कि तब उनके समाज में प्रतिष्ठा कैसे और किन लोगों को प्राप्त होती थी। दूसरी ओर देवसंस्कृति में संस्कृत का जब सर्व सामान्य में प्रचार-प्रसार था, उस समय भारतवर्ष में सर्वाधिक प्रतिष्ठा ऐसे लोगों को प्राप्त होती थी जिनके जीवन में त्याग, तपस्या, निस्पृहता, आदर्शवादिता , चरित्रनिष्ठ, दार्शनिक गंभीरता, लोकसेवी वृत्ति और ईश्वरीय अनुराग की प्रधानता होती थी। जिनकी आत्मिक सम्पदा बढ़ी-चढ़ी होती थी और जो उच्चस्तरीय व्यक्तित्व के धनी वे ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण कहलाते थे। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि संस्कृत की संस्कृति में शरीर सुखों की-भौतिक सुखों की उपेक्षा की गयी थी, वरन् देवी संस्कृति के अनुसार मानव जीवन के चार पुरुषार्थ निर्धारित किये गये थे- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अर्थ, काम और धर्म-तीनों ही इहलौकिक इन्द्रिय-परक सुखों से भी संबंधित है साथ ही उनका आध्यात्मिक विकास के लिए भी उपयोग है।

संस्कृत की संस्कृति मनुष्य मात्र को महामानव-देवमानव बनने की प्रेरणा देती है। वेद और उपनिषद् उस संस्कृति के आदि ग्रंथ भी है और सारतत्व भी। वे व्यक्ति को सदा विराट् से ही जुड़ने की प्रेरणा देते हैं, क्षुद्रता से नहीं। छान्दोग्य उपनिषद् कहता है- “महामना स्यात् तद्व्रतम्।” अर्थात् महामानव बनना ही मानव जीवन का व्रत हो। देव संस्कृति के प्राचीन प्रवक्ता आचार्यगण अपने शिष्यों को स्पष्ट कहते थे- “यान्यस्माकं सुचरितानि त्वमोपास्यानि नो इतराणि” अर्थात् हमारे आचरण के उत्तम अंश ही तुम ग्रहण करो, उन्हीं का अनुकरण करो औरों का नहीं। श्रीमद्भगवद्गीता 2/46 में तो यहाँ तक कहा गया है- “यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥” अर्थात् सब ओर से परिपूर्ण जलाशय से जिस प्रकार प्रयोजन के अनुसार ही जल ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार जानकर ब्रह्मविद्यावद् सभी वेदों से अपने लिए उपयोगी आशय ग्रहण कर लेता है।

दार्शनिक उदारता और आचरण की मर्यादा इस संस्कृति के मूलतत्व है। चिन्तन की जितनी उदारता इस संस्कृति का अंग रही है, वैसी विश्व में कभी कहीं भी नहीं देखी सुनी गयी। चार्वाक दर्शन के आचार्य बृहस्पति कहते हैं कि- “चैतन्मविशिष्टः कायःपुरुषः” अर्थात् चेतना से युक्त यह शरीर ही पुरुष है, तो विज्ञानवादी बौद्ध कहते हैं कि- चित्त, मन और विज्ञसि के रूप में क्रियाशील विज्ञान अर्थात् कान्शसनेस ही वास्तविक है, आकार आदि उसी की अनुभूतियाँ मात्र है। इससे पृथक इनकी सत्ता अवास्तविक है। शून्यवादी बौद्ध कहते हैं कि परम सत्य तो शून्य ही है। साँख्य दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा एक स्वतंत्र पुरुष है और इस प्रकार असंख्य पुरुष है, जबकि वेदान्त दर्शन मानता है कि एक ही सर्वव्यापी चेतना के अंश है ये जीवात्माएँ। यह अकेले दार्शनिक मतवैभिन्य का विषय नहीं है, अपितु एक दूसरे रही है। परन्तु इसके कारण परस्पर हिंसा या शरीर बल का प्रयोग कभी उचित नहीं माना गया।

इसके विपरित पश्चिमी संस्कृति में दार्शनिक मत भिन्नता प्रकट करने पर मंसूर से लेकर ईसा तक को फांसी पर चढ़ना पड़ा। भारत में वेदों को अपौरुषेय, ईश्वर निर्मित मानने वालो से लेकर उन्हें “त्रैगुण्य विषय” में ही सीमित मानने जाते हैं। एक ही वेदान्त दर्शन के आचार्य शंकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क आदि सभी एक दूसरे के विचारों को काटते हैं, परंतु इस कारण उन्हें एक ही समाज का अंग बनकर रहने में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ। गैलीलियो ने ग्रह-गति संबंधी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तो उसे नास्तिक करार दिया गया और जान गँवानी पड़ी। जबकि भारत में आर्यभट्ट और वराह मिहिर दोनों भू-भ्रमण सिद्धाँत के बारे में परस्पर विरोधी विचार रखते हुए भी एक दूसरे को महान गणितज्ञ मानते रहे और जनता दोनों का समान रूप से आदर करती रही। उपनिषदों को ज्ञान की सर्वोच्च अनुभूति कहने वाले और उन्हें असमंजस से भरा बताने वाले दोनों को ही समान रूप से श्रेष्ठ तत्वदर्शी माना गया। इस संदर्भ में गीता का स्पष्ट उद्घोष है- “बुद्धौ शरमन्तिच्छ” अर्थात् “बुद्धि की शरण में जाओ परंपराओं से अधिक महत्व विवेक को दो।” कारण, कालिदास के शब्दों में वह सब जो पुराना है, सदा अच्छा ही हो, यह निश्चित नहीं।

भारतीय ऋषि-मनीषियों ने यह तथ्य भलीभाँति जान लिया था कि बाह्य भिन्नताओं से आँतरिक भिन्नता खंडित नहीं होती। पात्रों के रूप और आकार की भिन्नता हो जाता। दीपक भिन्न-भिन्न धातुओं के भिन्न-भिन्न आकारों के बने होते हैं, पर उनसे निकलने वाली प्रकाश प्रभा एक ही होती है। आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार शास्त्र के अभ्यासी विद्वान अपनी मनीषा से जिस-जिस तत्व का वर्णन करते हैं , हे परमतत्व वह सब आप ही है। विद्वानों का विवाद मात्र संज्ञा या नाम को लेकर है, तत्व तो एक ही है। इसी आँतरिक एकत्व की अविच्छिन्न अनुभूति के कारण विचारों की इतनी विविधता होने पर भी सद् विवेक सब में एक जैसा था। श्रेष्ठ भाव संवेदनाओं , उत्कृष्ट चिंतन चेतना एवं आदर्श कर्तृत्व पर इस महान संस्कृति के हर अनुयायी , मनीषी ने सदा बल दिया है। रामायण हो या गीता, महाभारत हो या रघुवंश-सभी में सत्य, धर्म और श्रेय का ही जयगान है। गुण कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार को उच्चस्तरीय बनाने पर ही सबने बल दिया है। यही वह आधारभूत तथ्य है जो सामान्य मनुष्य को महामानव बनाने और नर से नारायण बनने की प्रेरणा देते हैं।

संस्कृत भाषा वाली देव संस्कृति का उद्देश्य सदा ही व्यावहारिक रहा है। मानसिक कौतूहल की दौड़ इस संस्कृति का अंग नहीं, वरन् संयत-संतुलित, आनन्दमय जीवन जीना ही इसका लक्ष्य है। निराशावाद का इस संस्कृति में कहीं भी स्थान नहीं है। संस्कृत नाटकों में दुखान्त प्रसंग नहीं होते। ट्रैजिडी भरे नाटक यहाँ वर्जित है। संस्कृत रंगमंच भी मृत्यु चित्रण एवं दुखांत नाटिकाओं से रहित रहे, यह विधान है। संसार की नैतिक सुव्यवस्था और कर्मफल-सिद्धाँत में विश्वास इस संस्कृति की सार्वभौम आस्थायें है। भारतीय संस्कृति देव संस्कृति है। इसमें सर्वोच्च जीवन मूल्य ही स्वीकार किये गये है। श्रेयमार्ग पर चलना ही आनन्द और शाँति का मंगल मार्ग माना गया है। एकता, समता और समृद्धि की उपासिका संस्कृति का ही संस्कृत भाषा अभिन्न अंग है। इसे नवजीवन प्रदान करने तथा इससे निरंतर प्रेरणा प्राप्त करते रहने से देव संस्कृति का विकास विस्तार करने में सहायता ही मिलेगी यह कर सुनिश्चित तथ्य है।


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