पग-पग पर असुरक्षित हैं हम, दुनिया बीहड़ वन है। अभयदान दो और छुपा लो, माँ! अपने आँचल में॥
कैसी है आवाज तुम्हारी-मन में उत्सुकता थी। यत्न किया तो पड़ी सुनायी, झरनों की कलकल में॥
पावन करती हो तुम, सबको-सुना वेदमंत्रों में। वह पावनता मिली उषा में, एवं गंगा जल में॥
गायत्री का गुँजन जब, उर गह्वर में गहराया। जब लाली खिल पड़ी सविता की, अपने ब्रह्म-कमल में॥
तुम में ध्यान लगाया तब ही, शाँति मिली कुछ मन को। वर्ना क्षत हो गया हृदय था, इस जग की हलचल में॥
तुम ही प्रज्ञा-सरस्वती तुम ही, मणि काँचन लक्ष्मी। और तुम्हीं दुर्गा काली हो, शिव के हालाहल में॥
तुम ही कृपा की किरण बखेरो, हमको पद्म बनादो। वर्ना हम तो पड़े हुए हैं, जगती के दलदल में॥
- माया वर्मा