विशेष धारावाहिक लेखमाला- - युगपुरुष पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा जी आचार्य

September 1993

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नारी की पीड़ा व्यथा, वेदना को समझ सकना, गहराई से अनुभव कर लेना उसी से संभव है, जिसने नारी का हृदय पाया हो। हृदय की इन विशिष्ट धड़कनों में ही एक सहस्राब्दी से अधिक समय तक दलित, शोषित नारी का जीवन शास्त्र पढ़ा जा सकता है। इसके अभाव में बौद्धिक विवेचनाओं के आकर्षण, ग्रंथों के भंडार लेख मालाओं-वक्तृताओं के अंबार तो पैदा किये जा सकते हैं, पर वह आकुलता-आतुरता नहीं पैदा की जा सकती है, जिससे प्रेरित होकर सर्वस्व न्यौछावर के लिए मन हुलस उठे। मन-प्राण में वह तड़प भरी बेचैनी पैदा हो सके जो समूचे जीवन को क्षत-विक्षत हो रहे नारी अस्तित्व के लिए मरहम का रूप देने के लिए कृत संकल्प हो जाय।

पू. गुरुदेव के जीवनक्रम में नारी अभ्युदय का नवयुग लाने के लिए संवेदनशील पुरुष को उमड़ते-उफनते देखते हैं उसके पीछे उनके अन्तः अस्तित्व की यही प्रेरणा शक्ति थी। जिसे उन्हीं के शब्दों में कहे तो पुरुष की तरह हमारी आकृति बनाई है, कोई चमड़ी फाड़ कर देख सके तो भीतर माता का हृदय मिलेगा। जो करुणा, ममता, स्नेह और आत्मीयता से हिमालय की तरह निरंतर गलते रहकर गंगा-यमुना बहाता रहता है। हृदय की इसी सामर्थ्य से उन्होंने मातृ शक्ति की अंतर्वेदना को अनुभव किया। यही अनुभूति उनमें व्याकुलता, आश्चर्य और आक्रोश के रूप में उभरी और अंततः नारी शक्ति को युग शक्ति का रूप दे डालने के महान संकल्प के रूप में परिणत हुई।

व्याकुलता इस बात के लिए कि मातृ शक्ति के प्रति आज इतना दूषित दृष्टिकोण कि अभिभावक उसे पराये घर का कूड़ा मानकर उपेक्षा करते और लड़कों की तुलना में कहीं अधिक निचले दर्जे का पक्षपात करते हैं। पति की दृष्टि में वह कामुकता की आग को बुझाने का एक खरीदा गया माध्यम है। उसे कामिनी, रमणी और भोग्या के रूप में ही निरखा-परखा और संतान का असह्य भार वहन करने के लिए बाधित किया जाता है। ससुराल के समूचे परिवार की दृष्टि में वह मात्र ऐसी दासी है, जिसे दिन रात काम में जुटे रहने और बदले में किसी अधिकार या सम्मान पाने के लिए अनधिकृत मान लिया जाता है।

स्थिति यह है कि आधी जनसंख्या को शिक्षा एवं स्वावलंबन के अभाव में पर्दा प्रथा, अनुभवहीनता एवं सामाजिक कुरीतियों ने बेहतर जकड़ रखा है। नारी की पराधीनता का एक रूप यह है कि उसे पर्दे में, पिंजड़े में, बंदी गृह की कोठरी में ही कैद रहना चाहिए। इस मान्यता को अपनाकर नारी का असह्य, अनुभवहीन ही बताया जाता रहा है। अबला की स्थिति में पहुँचने में वह अब आक्राँताओं का साहसपूर्वक मुकाबला कर सकने की भी हिम्मत गँवा बैठी है। आड़े समय में अपना और अपने बच्चों का पेट पाल सकने तक की स्थिति में नहीं रही है। व्यवसाय चलाना, ऊँचे पद का दायित्व निभाना तो दूर, औसतन पारिवारिक व्यवस्था से संबंधित अनेक कार्यों में हाट-बाजार, अस्पताल तथा अन्य किसी विभाग का सहयोग पाने के लिए जाने में झिझक, संकोच से रहकर मूक बधिर होने जैसे परिचय देती है।

हृदयद्रावक स्थिति का अंत यही पर नहीं है। आज रोज के अखबार स्त्रियों के अपहरण, बलात्कार और सामूहिक बलात्कार से रंगे रहते हैं। नव वधुओं के जलने-जलाने की खबर तो जैसे सामान्य बात हो गयी हैं। आखिर क्या हो गया है कि बूढ़े बच्चियों से पिता-पुत्रियों तक से बलात्कार करने लगे है। जब कभी गुरुदेव इन विडंबना भरी स्थितियों का ब्यौरा समाचार पत्रों में पढ़ते उनकी व्याकुलता सीमा का अतिरेक कर जाती। ऐसे ही क्षणों में उभरी हृदय की सिसकियों को शब्द देते हुए वह कहते है-मेरा हृदय। क्या करूं इसे-जो नारियों के कष्ट को देखने-सुनने में स्वयं को असमर्थ पाता है। उनकी वेदना का स्पर्श पाकर ऐसा लगने लगता है कि हृदय का सारा रक्त निचुड़ कर उसकी वेदना का मलहम बन जाने के लिए आतुर है। यह वेदना मेरे अंदर पीड़ा का ज्वार ला देती है? जिसे मैं सह नहीं पाता सह भी नहीं सकता। लोग कहते हैं कि आंखें रोती हैं, दर्द होते ही होठ बिसुरते हैं। पर क्या किसी ने मेरी तरह रोम-रोम के रो-पड़ने का अनुभव किया होगा। क्या किसी का अस्तित्व जार-जार रोया होगा?

उनकी यह व्याकुलता जितनी गहरी हुई-आश्चर्य भी उतना ही घना हुआ। आखिर कैसे हो सकी नारी की अवमानना अवहेलना? जिसके कारण उनकी स्थिति पंख कटे पक्षी की सी हो गई। युग ऋषि के शब्दों में कहें तो आज के इन प्रचलनों का प्राचीन भारतीय संस्कृति के साथ कोई ताल-मेल नहीं खाता। स्वर्ग और नरक आकाश और पाताल में जितना अंतर है उतना ही नारी के प्रति प्राचीनकाल में उच्चस्तरीय श्रद्धा रखे जाने और सुविधा दिये जाने की स्थिति में और इस हेय प्रतिबंध की स्थिति को समझा जा सकता है।

जिसे सामंती काल के असुर युग में द्वारं किमेकं नरकस्य? नारी। अर्थात् नरक का द्वार कहकर उपेक्षणीय ठहराया। वैदिक ऋषिगण उसी की प्रशंसा करते नहीं अघाए। एक स्थान पर तो शास्त्रकार ने यहाँ तक निःसंकोच भाव से कह दिया।

नारी त्रैलोक्य जननी, नारी त्रैलोक्य रूपिणी। नारी त्रिभुवनधारा, नारी शक्ति स्वरूपिणी॥

इसका सबसे बड़ा प्रमाण वैदिक भारत में ईश्वर की मातृ रूप में प्रतिष्ठा है। माँ की गरिमा एवं महत्ता को आदिकाल से मनीषियों ने समझते हुए मातृ शक्ति की आराधना एवं पूजा का विधि विधान बनाया। चेतनशील मानव ने सभ्यता की और जैसे ही कदम रखना प्रारंभ किया उसके मस्तिष्क के समक्ष यह प्रश्न उभरा वह आया कहाँ से? यहीं से माँ के प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न हुआ और ईश्वर को आदि जननी मानकर आराधना प्रारंभ की। यहाँ से प्रेरणा पाकर संसार की सभी संस्कृतियों में मातृ शक्ति की उपासना किसी न किसी रूप में प्रचलित है।

चाहे वह इटली की फारचुना के रूप में हो, रोम की साइवेलें, ग्रीक की हेरा, मध्यपूर्व की माँट हो, अथवा उत्तरी अफ्रीका की तिवायत। मैक्सिको को एसिस हो, यूनान में अनोन्का, सीरिया में अस्टीटें,मोआब में आख्तर और अबीरसीनियाँ में आसार के नाम से नारी शक्ति की ही पूजित रही है। बेबीलोन यही अर्चना लाया और मिश्र में आइसिस के रूप में संपन्न की। प्रायः विश्व के हर कोने के परमेश्वर को नारी के रूप में पूजित कर नारीत्व के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए है और इसकी प्रेरक शक्ति भारत भूमि रही है। आज इससे अधिक महान आश्चर्य और क्या होगा कि जहाँ से नारी को श्रद्धा देने की प्रेरणा उमगी परंपरा के रूप में पनपी-समूचे विश्व में व्यापक बनी-वहीं का नारी जीवन दुर्दशाओं और विडंबनाओं से ग्रस्त है।

इस महान आश्चर्य से चकित पूज्य गुरुदेव तनिक आक्रोश भरे स्वर में समाज के कर्णधारों से प्रश्न करते है-इस पीड़ित नारी से नर को क्या मिला? उसे असहाय बनाकर किसने क्या पाया? घर-परिवार के लोगों की इससे क्या सुविधा बढ़ी? पति को उससे क्या सहयोग मिला? बच्चे क्या अनुदान पा सके? देश की अर्थव्यवस्था एवं प्रगति में पिछड़ी नारी से क्या योगदान दिया? समाज को समुन्नत बनाने में वह क्या योगदान दे सकी? इन प्रश्नों पर विचार करने से लगता है नारी को पीड़ित, पददलित, उपेक्षित रखा जाना किसी प्रकार उचित नहीं हुआ। समय पूछता है कि अनुचित को कब तक सहन किया जायेगा और कब तक चलने दिया जायेगा।

इससे उनके संवेदना के आँसू ही नहीं छलके पौरुष की प्रचंडता से भुजाएँ भी फड़की, महाकाल का संकल्प उनके स्वरों से मुखरित हुआ। इक्कीसवीं सदी नारी सदी। यह उद्घोष नारी जागरण का मंत्र बना

और वे बने इस महामंत्र के द्रष्ट। साथ ही प्रारंभ हुआ अविराम प्रयासों का सिलसिला। उनके भावपूर्ण प्रयासों को उन्हीं के शब्दों में टाँके तो शाँतिकुँज की स्थापना का मूल प्रयोजन महिला जागरण अभियान का आरंभ करके उसे नारी के समग्र उत्कर्ष की अनेकानेक गतिविधियों को विश्वव्यापी बनाना हैं।

अभियान के क्रियाकलाप चार भागों में विभक्त किये गये-

1.साहित्य प्रकाशन 2. नारी शिक्षण सत्र 3.संगठन द्वारा संघ शक्ति का उदय 4. रचनात्मक कार्यक्रमों का व्यापक विस्तार। साहित्य प्रकाशन के सिलसिले में न केवल शत-सहस्र पुस्तकें प्रकाशित हुई बल्कि महिला जाग्रत अभियान पत्रिका ने भी प्रवाह पकड़ा।

साहित्य प्रकाशन का उद्देश्य जहाँ एक ओर नारी की व्यथा वेदना से संवेदनशील जन-मानस को अवगत कराना था वहीं दूसरी ओर उसकी गरिमा की गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा का अदम्य प्रयास भी था। संवेदना को झकझोरते हुए उनके शब्द दृष्टव्य हैं। आर्थिक दृष्टि से परावलंबी नारी पग-पग पर मन मानकर रहती है, पैसे-पैसे के लिए दूसरे के सामने गिड़गिड़ाती है। घर की खुशहाली में कोई योगदान नहीं दे पाती। उपेक्षिताओं, परित्यक्ताओं, विधवाओं की दुर्गति होती है। उन्हें और उनके बच्चों को क्या-क्या सहना पड़ता है इसके हाहाकार भरे दृश्य पर्दे के पीछे छिपे रहते हैं। यदि उन्हें देखने, सुनने और अनुभव करने का अवसर मिले तो चट्टान को भी फफक- फफक कर रोना पड़ेगा। इसका स्वरूप प्रस्तुत कर सकना न लेखनी के लिए संभव है न वाणी के लिए। उस भुक्तभोगी शरीर और अन्तरात्मा को रेतने वाली असहनीय पीड़ा को कोई आप बीती के रूप में अनुभव कर सके तो ही ध्यान सकता है।

इस कारुणिक प्रस्तुति करण के अनुयायी है नारी की गैदय सरिता चिचिन्त के उन्हें शब्द “नारी महाविद्या के प्रस्तुत है शक्ति है, पतिव्रता है , कला है और वह संत है, तो इस संसार में के आधार पर दृष्टिगोचर होता है। नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धि है, सिद्धि के और वह सब कुछ है जो मानव प्राणी के समन्वय अथवा, कार्यों एवं संकटों को निवारण करने में समर्थ है। यदि उसे श्रद्धासिक्त सद्भावना के साथ सींचा जाय तो यह सोमलता विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत-प्रोत कर सकती है।”

एक अन्य स्थान पर दृष्टव्य है- “नारी को वरिष्ठ और नर को कनिष्ठ ठहराने वाली अपनी साँस्कृतिक मान्यता हर दृष्टि से सही है। दानी बड़ा होता है उपभोक्ता छोटा। उस अनुदानी की समता कौन कणों और स्नेह बिंदुओं के मणिमुक्तकों से उस हार-उपहार की विनिर्मित किया और गले में धारण कराया। इतना ही नहीं “नारियाँ नहीं वे प्राणवान प्रतिमाएँ अपने शरीर की प्रयोगशाला में बनाकर प्रस्तुत करती है। उनके समान मूर्तिकार , चित्रकार श्रद्धाकार कौन हो सकता है? परमेश्वर ने अपना दृश्यमान और चेतनात्मक सौंदर्य उसी में उड़ेल दिया है।”

इसी गरिमा की जीवन प्रतिष्ठा के लिए युगावतार का समूचा जीवन क्षण-क्षण कर्मरत रहा। कन्या प्रशिक्षण सत्र हो महिलाओं की संगठन चेतना का जागरण। सबके पीछे यही प्रेरणा क्रियाशील रही। सामान्य क्रम में स्थूल क्रियाकलापों की समीक्षा करने वाले इसकी तुलना नारी जाग्रति के लिए विगत समय में क्रियारत होने वाले ईश्वर चन्द्र विद्यासागर आचार्य कर्वे, राजा राम मोहन राय आदि प्रयासों से कर सकते हैं।

परन्तु इस प्रयास में बहुत कुछ ऐसा है जो अतुलनीय है। अच्छा हो इसे उन्हीं शब्दों में ग्रहण करे “यह नहीं सोचना चाहिए कि यह बरसाती बादल कुछ बड़ी गर्जन-तर्जन करके ठंडा पड़ जाएगा। यदि यह कुछ व्यक्तियों का या संगठनों का प्रयास होता तो वैसी आशंका की जा सकती थी। पर यथार्थता कुछ और ही है। कालचक्र गतिशील हो रहा है और उसने युग बदलने जैसी करवट ली है। सूक्ष्मजगत में वे संभावनाएँ बन चली है। जो अपने प्रचंड प्रवाह से कितना ही महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत करेंगी। नारी का पुनरुत्थान उन्हीं में से एक सुनिश्चित तथ्य है।

वस्तुतः महाकाल का यह प्रथम आश्वासन है, जिसके पीछे पिछड़ों का ऊंचे उठाकर समता का धरातल बनाने के लिए वचनबद्ध दिलाया है। लोकमानस भी समय की प्रचंड धारा के विपरीत बने रहने का देर तक प्रयास नहीं करता रह सकता। तूफान मजबूत पेड़ों को भी उखाड़ फेंकता है। घटाटोप वर्षा में देखा जाता है। पानी का दबाव बड़े-बड़े बाँधो में भी दरार डालने और उन्हें बहा ले जाने का दृश्य प्रस्तुत करता है। यह महाकाल की हुँकार ही है, जिसने नारी को पिछड़े क्षेत्र से हाथ पकड़कर आगे बढ़ने के लिए धकेला और घसीटा है। अब न सिर्फ नारी के भाग्य में स्वतः की बेड़ियों से मुक्ति लिख दी गई है। वरन् विधाता ने उसे मुक्ति दूत बनने का गरिमापूर्ण दायित्व भी सौंपा है। जिन्हें सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त है-वे अनुभव कर सकते हैं कि यह अपने युग का सुनिश्चित निर्धारण है। जो इन्हीं दिनों पूरा होने वाला है।”

महाकाल की यह हुँकार ही उनके संकल्प के स्वरों में मुखरित हुई। इसी हेतु चली थी उनकी प्रचंड तप साधना और सक्रिय हुए थे विचारात्मक एवं क्रियात्मक प्रयास। उनके इन प्रयासों का अंतिम भाग इन्हीं दिनों पूरा होने को है। जो संवेदनशील अंतःकरण

युग ऋषि के इन भाव स्पंदनों का स्पर्श पा सके हों। जिनके अंतरतम में इन दिनों नारी उत्थान की सेवा-साधना तपश्चर्या करने का मन हो वे अपनी उपयुक्त दिशा पाने के लिए शाँतिकुँज हरिद्वार से संपर्क स्थापित कर सकते हैं।

“इक्कीसवीं सदी-नारी सदी” के महामंत्र की साधना इसी पुण्यवेला में युग ऋषि के संरक्षण में की जानी है। इसके लिए पूर्वकाल का स्वस्थ संस्कृति परंपराओं एवं वर्तमान के विवेक पूर्ण विचारों का सामंजस्य बैठाकर समाज को प्रशिक्षित करना होगा। भारतीय आध्यात्मिक धरातल पर मातृ शक्ति की पुनः प्रतिष्ठापना करनी होगी। तभी समाज एवं विश्व का उज्ज्वल भविष्य संभव है। तथा नारी धारती एवं निर्मात्री की महत्वपूर्ण भूमिका संपादित करने में सक्षम होगी। जिसके लिए वह अभी भी अपनी कारण सत्ता में प्रयत्नरत है।


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