दावतों की बचत अनाश्रितों के लिए बंबई में एक ओर जहाँ इन्द्र और कुबेर जैसे ठाट-बाट हैं, वहाँ दूसरी तरफ बीमारों, निराश्रितों और भुखमरी से ग्रस्त
लोगों की संख्या भी कम नहीं है यहाँ प्रीतिभोजों की इतनी जूठन आयेदिन बचती हैं जिसे फेंका न जाय तो हजारों का पेट भर सकता है।
इस संदर्भ में एक समाज सेवी मेहता दम्पत्ति ने दस हजार निराश्रितों को भोजन नियमित रूप से कराने का जिम्मा अपने कंधे पर लिया। वे प्रीतिभोज वालों का पता लगाकर उनसे अनुरोध करते हैं कि जो सामान बचे वे उसे फेंके नहीं, उन्हें सूचना दे दें। उनकी गाड़ी आकर उस सामान को ले जाएगी और निराश्रितों के पास पहुँचा देगी।
योजना बहुत सफल रही और जहाँ-जहाँ भीख माँगने वालों ने पेट भरने का प्रबंध होने पर दूसरे उद्योग खोजने आरंभ कर दिये।
उन दिनों मैं भी दैनिक व्यवहार की वस्तुयें बिकती तो ज्यादा थीं, पर उनमें दुकानदारों की चालाकियाँ भी खूब चलती थीं। विभिन्न वस्तुएँ खरीदने के लिए ग्राहकों को दूर-दूर के बाजारों में जाना पड़ता था और पूरा दिन खराब होता था। इस कठिनाई को देखते हुए अमेरिका के एक छोटे से व्यापारी माईक कोलन ने एक ऐसी दुकान खोली जिसमें प्रायः 300 प्रकार की दैनिक उपयोग की वस्तुयें उपलब्ध रहती थीं। मूल्य लिखकर टँगे रहते थे और हर वस्तु शुद्ध रूप में पूरी मात्रा में मिलती। उसकी दुकान पर लिखा रहता था-”ईमानदार बनो, ईमानदारी बरतो और ईमान को धर्म समझो।”
मुनाफा कम रखा गया था तो भी बिक्री दिन-दिन अधिक बढ़ती जाने से लाभाँश भी उचित बना रहा और ग्राहक भी संतुष्ट होकर जाते। उस दुकान का नाम रखा गया-सुपर मार्केट”। भारत में तथा अन्यान्य देशों में सरकारी गैर सरकारी सुपर मार्केट इसी सिद्धान्त पर चल रहे हैं। इस प्रचलन का जन्मदाता है-माईक कालेम।
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