लालच बुरी बला

September 1993

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लिप्सा का आध्यात्मिक जीवन में कोई स्थान नहीं। भौतिक जीवन में जो इसे अपनाते हैं, वे असह्य हानि व संकट उठाते देखे जाते हैं। अनेक बार तो जान जोखिम में पड़ती दृष्टिगोचर होती है और कई बार इसमें फँस कर लोग मौत के मुँह में जाते दिखाई पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में अतीत के गर्भ में समा चुकी इन घटनाओं की पुनरावृत्ति कर, उन्हें दृश्यमान बनाकर प्रकृति संसार को यह बताना चाहती है कि किस प्रकार इसका परिणाम विघातक होता है और मृत्यु को आमंत्रण देता है।

घटना 17वीं सदी की है। कैप्टन हैण्ड्रिक वान उर डेकेन नामक एक लालची डच के मन में यह इच्छा जाग्रत हुई कि किसी प्रकार अपार संपदा कमाकर धनपति बना जाय। आकांक्षा उठते ही योजनाएँ बनने लगीं। उसे इसका सबसे अच्छा उपाय यही सूझा कि सुदूर पूर्व की यात्रा की जाय और कुछ वर्ष वहाँ वैभव संग्रह कर पुनः स्वदेश लौटा जाय। योजना को क्रियान्वित करने के लिए उसने एक नौका खरीदी और एम्सटरडम से यात्रा आरंभ की। ‘गुडहोप’ अंतरीप तक सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा कोई अवाँछनीय नहीं घटा। दुर्भाग्य से शुरुआत इससे आगे बढ़ने पर हुई। अभी वह अंतरीप से कुछ मील ही गया था कि नाव भयंकर तूफान में फँस गयी। उसकी तीव्रता इतनी प्रचण्ड थी कि उस पर से उसका नियंत्रण एकदम समाप्त हो गया। नाव ज्वार-भाटों में चिकोले खाती, डूबती-उतराती तूफान की दिशा में ब.ए चली। कैप्टन ओर उसके साथी असहाय थे। सभी इस विपदा से बचा लेने के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहे थे, पर संकट न टलना था, न टला। अन्धड़ की भयंकरता पल-पल बढ़ती गई। इससे पाल जी उसे बर्दाश्त नहीं कर सका और फट कर चिथड़े-चिथड़े हो गया। नाविकों के लिए आशा का अंतिम दीप भी बुझ गया। अब नैया बिल्कुल दिशाहीन हो गयी। आँशी के सहारे जिस जिस दिशा में बढ़ती, शिलाखण्डों से टकराती, टूटती-फूटती चली जा रही थी कुछ नाविकों के मन में आया कि शायद नयी पाल के सहारे उसको यत्किंचित् यिंत्रित किया जा सके, अतः दो चार दुस्साहसी साथियों के साथ कप्तान ने तत्काल एक अस्थायी पाल बनाकर खड़ा किया, पर प्रयत्न निरर्थक गया। आधी की भीषण मार वह अधिक देर झेल न सका और देखते-देखते अपने दुर्भाग्य को प्राप्त हुआ। चार दिनों के दुर्द्धष चक्रवात का सामना करते-करते नाव का ढाँचा बिलकुल चरमरा गया था। पाँचवें दिन उसके सारे हिस्से अलग हो गये। सामान समुद्र में डूब गया। दो साथी भी बचने का असफल प्रयास करते हुए अथाह जलराशि में समा गये। कप्तान और शेष सहयोगियों के हाथ नौका की टूटी-फूटी लकड़ियाँ लगी। वे उनके सहारे तैरने लगे, पर विशाल दूरी को इस प्रकार पार करना कैसे संभव था? अंततः उनकी जल समाधि लग गयी। इस प्रकार संपूर्ण यात्रा का समापन “गुडहोप” अंतरीप में आकर हो गया।

किन्तु समुद्र यात्रा करने वाले नाविक एवं त्री इस घटना को यथावत घटते आज भी देखते हैं। 11 जुलाई 1881 को इंग्लैण्ड के राजकुमार जार्जजो कि बाद में सम्राट जार्ज पंचम बने, उक्त घटना का अपनी लाँग बुक में विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि जब वे एच. एम. एस. इनकान्सटैण्ट से यात्रा करते हुए दक्षिणी अफ्रीकी तट पर पहुँचे तो लगभग चार बजे प्रातः वे और उनके साथियों ने हूबहू वहीं दृश्य देखा, जो 17वीं सदी के कप्तान हेण्ड्रिक और उनके दुर्भाग्यपूर्ण पोत के बारे में प्रचलित है। दुर्घटनाग्रस्त पोत से एक विचित्र आभा निकल रही थी। पास आने पर सब कुछ अचानक अदृश्य हो गया।

सितम्बर 1939 में यही दृश्य लगभग सौ लोगों ने उस वक्त, देखा, जब वे काल्स खाड़ी में ग्लेनकेयर्न तट पर धूप स्नान कर रहे थे। करीब 15-20 मिनट तक दृष्टिगोचर होने के उपराँत दृश्य उसी प्रकार अकस्मात गायब हो गया, जैसे प्रकट हुआ था।

इसके तीन वर्ष पश्चात् कुछ लोगों ने पुनः उसी दृश्य को टेबल खाड़ी के निकट केप टाउन के पास देखा। हर बार के दृश्य में नाव के चारों ओर एक अलौकिक प्रकाश दृश्यमान हुआ।


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