अंतर्जगत के देवासुर संग्राम में विजयी कैसे बनें?

August 1993

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साधारणतः मन काम काजी कल्पनायें किया करता है। आवेश तो कभी कभी ही भँवर चक्रवात की तरह उठते और छोटे बालक की तरह उसका मचलना देखते ही बनता है। ऐसा कभी कभी ही होता है। क्रोध में आदमी पागल हो जाता है और उस आवेश में ऐसा भी कुछ कर बैठता है जो अपने लिए या दूसरों के लिए घातक हों। क्रोध के अतिरिक्त दूसरा आवेश काम का है। कामुकता का उभार भी ऐसा हैं कि उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहता। व्यक्ति ऐसे आचरण करने, वचन बोलने लगता हैं जिनके कारण पीछे पश्चाताप करके लज्जित होने के अतिरिक्त कोई मार्ग शेष नहीं रहै।

मानसिक उद्वेग इसी स्तर के कई और भी है। जिनकी गति तो उन्माद जैसी नहीं होती पर जीवन क्रम को अस्त व्यस्त करने और उद्धत आचरण की प्रेरणा देने में वे भी कम नहीं है॥ लोभ, लिप्सा और अहमन्यता की ललक ऐसी है जिसका आवेश पूरा करने के लिए व्यक्ति अनेक प्रकार की अवांछनीय योजनाएँ बनाता और उन्हें पूरा करने के लिए जुट पड़ता है। पाप छिपाया जाता है। मुर्दे के ऊपर जिस प्रकार कफ़न डालते हैं उसी प्रकार मन की कुत्सित अभाषाओं को भी यथा संभव गोपनीय ही रखा जाता है। यह दूसरी बात है कि अपनी प्रकृति के अनुसार वे छिपी नहीं रहती। आज नहीं तो कल प्रकट हो जाती हैं। तब जिसके भी विरुद्ध षड्यंत्र रचा गया था, उस तक सूचना पहुँचने पर वह सतर्क हो जाता है और सहज हाथ नहीं आता।

दूसरे को हानि पहुँचा सकना संभव हो या न हो पर अपनी हानि तुरन्त होती है। मस्तिष्क गड़बड़ाने लगता है जिससे मस्तिष्कीय संतुलन पर तुरन्त आघात लगे और वह उस स्थिति में ऐसे कदम उठाने की सोचने लगे जिससे प्रतिपक्षी की तुलना में अपनी ही हानि अधिक होने लगे।

आवेशों में से ऐसे भी हैं कि धारण कर्ता का अहित किये बिना नहीं रहते। भले ही प्रतिपक्षी सोचे गये आक्रमण आघात से बच जाय। बंदूक चलाने पर उसका एक आघात पीछे की ओर भी लौटता है। यदि पहले से ही सीने से सटाकर नहीं रखा गया है तो यह हो सकता है कि वह उलटे ही अपनी हड्डी पसली तोड़ दे। भले ही गोली निशाने पर लगे या न लगे।

जीवन में भली बुरी घटनाएँ घटित होती रहती हैं। सदा अनुकूलता ही नहीं रहती। दिन के बाद रात आती है। मंद पवन ही सदा नहीं चलती, आँधियाँ भी आती रहती हैं इस प्रकार संसार की परिस्थिति और मनःस्थिति का ताल मेल सदा नहीं बैठता। दोनों में से कभी किसी का, तो कभी किसी का संतुलन बिगड़ता ही रहता है। मूलतः कारण ता आवेश ही होता है पर उस उत्तेजना से काम ऐसे नहीं पड़ते हैं जिससे व्यक्तित्व का स्वरूप ही हेय बन जाता है। जिसके साथ कुछ सीधी बात नहीं बैठती, वे कभी चौकन्ने हो जाते हैं, और सोचते हैं कि आज जो दूसरों के साथ घटित हो रहा है वह कल हमारे साथ भी बीत सकता है। बिन पति पत्नियों में अनबन खटपट बनी रहती है, उनके संबंध में छोटे बच्चे या घर के दूसरे सदस्य भी ऐसा ही सोचने लगते हैं कि यही आक्रामक विपत्ति ही कहीं कभी हमारे ऊपर ही न आ धमके। जिसके प्रति शंकाशील रहने की स्थिति रहती है। उसके प्रति स्नेह, सद्भाव और मैत्री देर तक नहीं टिक सकती।

विश्वास के उठ या जग जाने पर स्नेह सौजन्य की घटोत्तरी का होना स्वाभाविक है।

स्पष्ट है कि मनुष्य स्वभावतः सामूहिक सामाजिक प्राणी है। उसके अधिकाँश काम दूसरों के सहारे चलते हैं। बदले में स्वयँ भी दूसरों के काम आना पड़ता है न कोई हमारी सहायता करें न हम किसी के काम आयें तो ऐसा एकाकी जीवन काटना मुश्किल पड़ जायेगा। नीरसता छाने लगेगी। एकाकी प्रकृति के व्यक्ति अपनी आशाएं और उमंगे खो बैठते हैं। उन्हें एकाकी पन अंधेरे कोठे या टूटे खण्डहर की तरह वीरान लगता है। ऐसी बोझिल जिंदगी काटने पर भी सहज नहीं कटती। भारीपन के कारण खींच नहीं खिंचती। मित्र घटते और शत्रु बढ़ते जाते हैं।

दो कागजों को परस्पर चिपकाने के लिए गोंद की जरूरत पड़ती है। अन्यथा वे विलग ही बने रहते हैं। इसी प्रकार पारस्परिक सद्भाव का क्षेत्र बढ़ाना हो तो मानसिक स्नेह, सौजन्य आत्म भाव की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। यह सब मुफ्त नहीं मिलता। इसके लिए आकर्षक चुम्बक चाहिए। यह चुम्बक धातु निर्मित नहीं होता, वरन् गुण कर्म और स्वभाव की मिठास से उत्पन्न होता है।

इसके लिए वाक् का चातुर्य और शिष्टाचार कौशल सीख लेने मात्र से ही काम नहीं चल जात। ऐसा तो ठग और चापलूस भी कर लेते हैं। किन्तु परायों को अपना बनाने के लिए सच्ची और गहरी आत्मीयता का परिचय देना पड़ता है। इसकी कोई स्कूली शिक्षा नहीं होती। आत्मीयता की परिधि बढ़ानी पड़ती है। जिस प्रकार घर परिवार के लोगों को अपना माना जाता है। उसके हितों का ध्यान रखना पड़ता है वैसा ही व्यवहार आत्मीयजनों से भी रखना पड़ता है। दूसरों से सद्भाव, समर्थन सहयोग प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि पहले उत्तम आचरण स्वयँ करें बाद में वैसे ही प्रत्युत्तर की अपेक्षा दूसरों से करें।

इस विशेषता का न होना लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टि से हानिकारक है। मित्र विहीन व्यक्ति को एकाकी पन ही दीखता ओर सूझता है। उसे विश्वास नहीं होता कि आड़े समय में कोई उसके काम आवेगा और प्रगति प्रयोजनों में स्वेच्छा, सहयोग प्रदान करेगा। पैसा देकर किसी को किसी प्रकार का रिश्तेदार बनाया जा सकता है और उससे झूठा सच्चा कुछ भी काम कराया जा सकता है पर वह क्षणिक व अस्थायी होता है। वैश्या की मित्रता, गिना प्रगाढ़ स्वार्थ की पूर्ति किये किसके साथ कितने दिन चलती है?

पास में भले ही साधन न हो यदि सहयोग उपलब्ध है तो इतने भर से हँसते हँसते जिया जा सकता है। इस प्रकृति के अनुरूप अपने को ढाल लेने के उपरान्त प्रशंसकों और सहयोगियों की कमी नहीं पड़ती। परायापन, शून्यता, एकाकीपन, उपेक्षा, तिरस्कार की स्थिति तो तब बनती है जब मनुष्य रूपी प्रकृति अपने मतलब से मतलब रखने वाला हो। यदि हम किसी के काम नहीं आते तो यह भी अनुमान लगा लेना चाहिए कि अपने काम भी कोई आने वाला नहीं है।

मन को बस में करने की चर्चा तो बहुत चलती रहती हैं। मनोनिग्रह के अनेक उपाय और विधान बताये जाते हैं, पर उन सब पर शतप्रतिशत खरा उतरने वाला एक ही उपचार हैं कि एकाग्रता संपादन की अपेक्षा मन की कषाय कल्मषों को धोया, हटाया व सुधारा जाय। अपनी प्रकृति रूखी, स्वार्थी और चिड़चिड़ा न हो सबके साथ सहज सज्जनोचित संबंध बने रहेंगे और मित्रता का क्षेत्र सुविस्तृत बनता चला जायेगा। इस स्थिति को बनाये रहने या बढ़ाते चलने के लिए आवश्यक है कि सौजन्य का अनुपात बढ़ता रहे। माना कि सभी व्यक्ति सज्जन नहीं होते और उनके क्रिया कलाप में भी खोट होता रहता है। इस खोट को निकालने या घटाने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सत्संग लाभ मिलता रहे। सत्संग से हेय प्रकृति भी सुधर जाती है।

सत्संग का बढ़ा चढ़ा माहात्म्य शास्त्रकारों ने बताया है। इसका कारण स्पष्ट है कि जिस प्रकार पत्ति लोगों की घनिष्ठता पतन पराभव की दिशा में चल पड़ने की प्रेरणा देता है, उसी प्रकार सत्संग भी व्यक्ति को सही दिशा में उसकी दिशाधारा अग्रगामी करने में कारगर सिद्ध होता है। यदि अपना मन कच्चा न हो तो बेधड़क ओछे लोगों को भी अपनी संपर्क परिधि में लिया जा सकता है और सौजन्य, शिष्टाचार एवं व्यवहार का अभ्यास कराया जा सकता है।

मेंहदी दूसरों के लिए पीसी जायें तो पीसने वाले के हाथ लाल हो जाते हैं। छात्रों को पढ़ाने वाले अध्यापक भी अपना ज्ञान परिपक्व कर लेते हैं। अनपढ़ लोगों को सुसंस्कारी बनाने का कार्य भी ऐसा ही है, जिसे करते रहने का स्वभाव बना लेने पर न केवल दूसरों का ही व्यक्तित्व निखरता है वरन् अपने आप भी दिनों दिन अधिक श्रेष्ठता की ओर बढ़ने लगता है। यह दुहरा पुण्य प्रायोजन हैं। इसमें अपनी और दूसरों की भलाई का सघन सहयोग समाविष्ट है। सत् शिक्षण वह उपाय है जिससे निज के मन का अनगढ़पन तेजी से सुधरता है।

एकाग्रता का अभ्यास भी अपने स्थान पर उपयोगी हैं। ध्यान−धारणा में सफलता प्राप्त करने के लिए मन की बेतुकी कल्पनाओं पर नियंत्रण स्थापित करना होता है। इसके लिए अपने कुसंस्कारों से भिन्न एवं विपरीत प्रकृति के विचारो का भण्डार अपने आप जमा करना पड़ता है। क्योंकि कुविचारों का आक्रमण होता है। दोनों प्रकार के विचारों की टक्कर होनी चाहिए। कुकर्म तत्कालिक लाभ की दृष्टि से लाभदायक भले ही प्रतीत हो पर विचार करने पर उसके दूरगामी परिणाम भयावह ही होते हैं। हमें अपने मन में उठने वाले त्वरित लाभ के प्रलोभनों के सम्मुख दूरगामी दुष्परिणामों की मण्डली खड़ी कर देनी चाहिए। इतना करने पर सद्बुद्धि का सही निर्णय करने का अवसर मिल जाता है। जबकि अभाव ग्रस्त मनःस्थिति में दूरदर्शी विवेकशीलता को अपना निर्णय प्रस्तुत कर सकने का अवसर ही नहीं मिलता।

कुविचारों ओर दुस्स्वभावों से पीछा छुड़ाने का तरीका यह है कि सद्विचारों के संपर्क में निरन्तर रहा जाय। उनका स्वाध्याय, सत्संग और चिंतन, मनन किया जाय। साथ ही अपने संपर्क क्षेत्र में सुधार कार्य जारी रखा जाय। सत्प्रवृत्ति संवर्धन का सेवा कार्य किसी न किसी रूप में कार्यान्वित ही करते रहा जाय। इतना करने पर ही मन को स्वच्छ, निर्मल व स्वयँ को प्रगति के पथ पर अग्रगामी बनाये रखा जा सकता है।


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