व्यावहारिक अध्यात्म के तीन मूलभूत आधार

August 1993

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हलवाई की दुकान पर अनेकानेक मिठाइयाँ रखी रहती हैं, पर विश्लेषण करने पर उसमें तीन ही वस्तुएँ घुली मिली दिखाई पड़ती है। एक हैं शक्कर, दूसरा दूध, तीसरा अन्न। यह उसके पास बनाने कीर कुशलता है कि उसे उलट पलट कर अनेकों रूपों और स्वादों वाली बना देता है। मिट्टी, चाक और आँवा की सहायता से कुम्हार अनेक प्रकार के बर्तन बनाता है, कागज, कलम, स्याही की सहायता से अनेकों लेख लिखे जाते रहते हैं। अध्यात्म विज्ञान का समूचा ढाँचा भी इसी प्रकार तीन आधारों पर खड़ा है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता व धार्मिकता।

तत्वज्ञान की दार्शनिक विवेचनाओं में ईश्वर जीव, प्रकृति की विवेचना होती रहती है। मनीषियों द्वारा भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग को आध्यात्मिक प्रगति का आधार निरूपित किया जाता है। इन्हीं विभिन्न प्रतिपादनों शैलियों का यदि एकीकरण किया जाये तो तो वे प्रकाराँतर से उन्हीं मूल भूत प्रतिपादनों को समझाते हैं जो आध्यात्म के त्रिवर्ग प्रतिपादनों के आधार भूत माने जाते हैं। तत्व का ज्ञान रूप समुद्र मंथन के इस नवनीत को आस्तिकता आध्यात्मिकता, धार्मिकता कहते हैं। यह मानवीय सत्ता के तीन कलेवर है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इन्हें काया, मानस और अंतःकरण भी कहते हैं। इन तीनों के अभ्युदय हेतु सम्मिलित प्रयत्न क्रम एक साथ करने पड़ते हैं। वे मिले जुले रूप में विकसित होते हैं। ऐसा नहीं होता कि एक को पूरा न करने पर दूसरे को लिया जाय। जीवन निर्वाह के लिए अन्न जल और वायु की व्यवस्था जुटानी पड़ती है॥ और वे साथ साथ प्रयुक्त होती रहती है। यही बात आत्मिक प्रगति के त्रिवर्गीय आधारों के संबंध में भी है।

आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर विश्वास। इसे अंतराल की गहराई में जमाने के लिए भक्ति भाव का आश्रय लेना पड़ता है। यह विश्वास मनोकामना पूरी करने या प्रकट होकर दर्शन देन जैसे बचकाने बाल कौतुक के लिए नहीं वरन् सत्प्रवृत्तियों के समन्वित समुच्चय की सघन आस्थाओं के रूप में अपना लिए जाने पर संपन्न होता है। ईश्वर के प्रति समर्पण, विसर्जन मिलन का तात्पर्य है कि उत्कृष्टता के साथ अपने आपको सघन रूप से जोड़ लेना। कठपुतली की तरह अंतरात्मा बाजीगर के इशारे पर अपने अंतरंग और बहिरंग जीवन को ढालना। अपने ज्ञान कार्य को इसी निमित्त नियोजित किये रहना। ईश्वर व्यक्ति विशेष की तरह शरीर धारी नहीं है। जिसे उपहास मनुहार द्वारा अपनी ओर आकर्षित किया जा सके और उससे मन मर्जी के क्रिया कलापों को कराया जाय। समस्त सृष्टि नियम अनुशासन के परिवर्तन से ही गतिशील रहकर अपना आस्तित्व बनायें हुए है। यह अनुशासन ईश्वर ने अपने ऊपर भी स्वेच्छापूर्वक ओढ़ा हुआ है। वह अपनी मर्जी से या भक्त की मर्जी से स्वेच्छाचार बरतने लगे तो समझना चाहिए कि बेसमझ राजा की शासन परिधि अंधेर नगरी बने बिना न रहेगी। यहाँ सर्वत्र अराजकता ही दृष्टिगोचर होगी।

ईश्वर की सत्ता और महत्ता पर विश्वास करने का अर्थ है उत्कृष्टता के साथ जुड़ने पर सत्परिणामों पर, सद्गति पर, सर्वतोमुखी प्रगति पर विश्वास। आदर्शवादिता अपनाने पर इस प्रकार की परिणित सुनिश्चित रहती है। किन्तु कभी कभी उसकी उपलब्धियों में देर सवेर होती देखी जाती है। ऐसे अवसरों पर ईश्वर विश्वासी प्रचलित नहीं होता। धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करता है और विश्वास बनाये रखता है कि दिव्यसत्ता के साथ वह जितनी सघनता के साथ जुड़ेगा, उसके अनुशासन, अनुबंधों के जितनी ईमानदारी, गहराई के साथ पालन करेगा, उतना ही उसका कल्याण होगा। आस्तिक न तो याचना करता है और न जो अपनी पात्रता से अधिक है उसे पाने की अपेक्षा करता है उसकी कामना भावना के रूप में विकसित होती है। भाव संवेदना फलित होती हैं तो आदर्शों के प्रति आस्थावान बनाती है। तनिक सा दबाव या प्रलोभन आने पर फिसल जाने से रोकती है पवित्र अंतःकरण बना लेना ईश्वर के अवतरण के लिए अवरोध समाप्त कर देना है। दुष्प्रवृत्तियों को हटा देने पर उसका स्थान सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय ले लेता है। इस स्थिति की परिपक्वता होने पर जो आनन्द आता है, संतोष होता है, उल्लास उमगता है, उसे ईश्वर प्राप्ति कहा जा सकता है।

विराट ब्रह्म और परमात्मसत्ता एक ही बात है। सर्वव्यापी परमेश्वर को किसी शरीर विशेष में अवस्थित नहीं देखा जा सकता है। वह नियम शक्ति और भाव चेतना के रूप में कण कण में समाहित है। पर ब्रह्म की यथार्थ सत्ता का यही रूप हैं किन्तु यदि उसे प्रत्यक्ष देखना हो तो अर्जुन, यशोदा, कौशल्या, काकभुसुण्डि की तरह सर्वव्यापी के रूप में देखना चाहिए उस मान्यता के परिपक्व होते ही आत्मवत् सर्वभूतेषु और वसुधैव कुटुंबकम् की श्रद्धा का उद्गम उभरता है। सेवा साधना और परमार्थ परायणता की दिशा में अग्रसर होना पड़ता है। आस्तिकता कोरी भावुकता नहीं है। किसी प्रतिमा की पूजा अर्चना करते भर रहने से वक प्रयोजन पूरा नहीं होता। भक्ति भावना भक्त जन के चिंतन चरित्र और व्यवहार में उच्चस्तरीय परिवर्तन प्रस्तुत करती है। यह मनुष्य को देवस्तर में बदलने वाला कायाकल्प ही भगवद्भक्ति का यथार्थ रूप है।

अध्यात्म का दूसरा रूप है आध्यात्मिकता। आध्यात्मिकता का अर्थ हैं आत्मावलंबन। बहिरंग परिस्थितियों का मूलभूत कारण अपनी मनः स्थिति को मानना। आत्म सत्ता की गरिमा, महिमा और क्षमता का अनुभव करना। दूसरों से संपर्क रखने, आदान प्रदान का क्रम चलाते रहने में हर्ज नहीं पर विश्वास यही रखना चाहिए कि उत्थान पतन की पूर्ण जिम्मेदारी अपनी ही है। अकेले ही आये थे और अकेले ही जाना है। इस तथ्य के साथ इतना ओर जोड़ना चाहिए कि एकाकी निश्चय करना और उस संकल्प को पूरा करने के लिए एकाकी ही कटिबद्ध एवं अग्रसर होना है। उत्कृष्टता का मार्ग ही ऐसा है जिस पर चलने के लिए प्रोत्साहन देने वाले, मार्ग दिखाने और सहयोग देने वाले प्रायः दूसरे लोग नहीं ही मिलते हैं। लोक मानस संकीर्ण स्वार्थ परता से भरा है। लोगों की मान्यता, विचारणा और क्रिया अधोगामी प्रवाह में ही बहती रहती है। उनका परामर्श मानने अनुकरण करने पर भी व्यामोह के जाल जंजाल में ही जकड़े रहा जा सकता है।

पक्षी अपने पंखों के सहारे आसमान में उड़ते हैं। उन्हें न तो कोई मार्ग दर्शन करता है और न सहयोग देता है। शालीनता, सज्जनता, उदारता और पुण्य परमार्थ का मार्ग भी ऐसा ही है जिस पर किसी प्रशिक्षक या सहयोगी को आशा नहीं रखनी चाहिए इनमें अपना विवेक, अपना संयम, अपना संकल्प एवं अपना साहस ही काम देता है। प्रामाणिकता और शालीनता की कसौटी पर कस लेने के उपराँत ही अन्य लोग आदर करते, समर्थन करते, और सहयोग देते देखे गये है। अन्यथा गिरते को अधिक जोर से धक्का देकर गहरे गर्त में गिराने वाले तथा कथित मित्रों को ही सर्वत्र भरमार पाई जाती हैं। गुरुत्वाकर्षण की तरह पतन का प्रभाव एवं वातावरण ही सब ओर छाया दिखता है। इस दबाव से उभरना और अंतरात्मा की उत्कृष्ट प्रेरणा का अनुगमन करना अपने बलबूते ही बन पड़ता है।

गीता के परामर्शानुसार अपना उद्धार अपन ही करना पड़ता है। अवसाद से अपने को बचा लेने के लिए प्रचंड साहस का परिचय स्वयँ ही देना पड़ता है। मनुष्य स्वयँ ही अपना शत्रु हैं और मित्र है। जिसने स्वावलंबन अपनाया और अपने पैरों के बलबूते अपने मार्ग पर एकाकी ही चल पड़ा वही मंजिल तक पहुँचता है। रास्ते के साथ तो चलने वाले हर मार्ग पर मिल जाते हैं। जब पतन मार्ग पर अनेकों साथी मिल जाते हैं तो कोई कारण नहीं कि ऊँचा उठने और आगे बढ़ने के प्रयास में कोई साथ न दें।

संसार में बहुत कुछ है पर उसे खींच बुलाने और हजम करने के लिए तो अपने निज की चुंबकीय क्षमता ही काम देती है। आँखें न हो तो संसार के समस्त दृश्य समाप्त। काम न हो तो संसार के शब्दों का अंत, अपना मस्तिष्क साथ न दें तो समस्त संसार पागल। अपना दृष्टिकोण रंगीन चश्मे की तरह किसी कि सनक में सना हुआ हो तो हर वस्तु उस रंग में रंगी दिखाई देगी। इसलिए आत्म निरिक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास की प्रक्रिया अपनाते हुए साधक को आत्मावलंबन अपनाना चाहिए। एकाकी चल सकने का साहस जुटाना चाहिए। यही आध्यात्मिकता है। जिसे चेतना विज्ञान का दूसरा चरण माना जाता है।

तीसरा चरण हैं धार्मिकता। धार्मिकता का अर्थ है कर्त्तव्य परायणता। नीतिनिष्ठ ओर उदार सेवा साधना के ईद गिर्द ही धर्म की धुरी पर घूमते हैं। उसके अविच्छिन्न अंग हैं आत्म संयम और परमार्थ के निमित्त बढ़े चढ़े संकल्प साहस का प्रदर्शन।

उच्छृंखलता पशु प्रवृत्ति की परिचायक है। स्वेच्छाचार कीट पतंगों को ही शोभा देता है। अपराधों, अनाचारों से संलग्न रहने वाले शैतान की औलाद कहे जाते हैं। मनुष्य का स्तर इससे कही ऊँचा है। उसकी गरिमा, नीतिनिष्ठ, और शालीनता पर टिकी है। इसी को कर्त्तव्य परायणता भी कहते हैं। जिम्मेदारियों का निर्वाह भी। शरीर को स्वस्थ रखना, मन को संतुलित बनाये रखना, उसे मनोविकारों से बचाये रखना, अर्थोपार्जन में ईमानदारी बरतना, मिल−बांट कर खाना, , हँसते हँसते जीना, गिरतों को उठाना, उठतों को बढ़ाना जैसे अनेक दायित्व निजी जीवन के साथ जुड़े हुए है।

सामाजिक उत्तरदायित्वों में सत्प्रवृत्ति संवर्धन एवं दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन प्रमुख है। इसके लिए अपने व्यक्तित्व को प्रामाणिकता और प्रखरता से सुसज्जित करना पड़ता है।

कर्त्तव्य पालन की महत्ता बताते हुए शास्त्रों में उसे प्रकारांतर से ईश्वर पूजा का ही एक स्वरूप बताया गया है। कर्मयोग का वास्तविक स्वरूप कर्मयोग समझा जाना चाहिए। जिसने अपने आपको आदर्शों के अनुशासन में बाँध लिया वही सच्चे अर्थों में कर्मयोगी है। उसी को धर्मात्मा भी कहना चाहिए। धर्म और कर्तव्य पालन एक ही तथ्य की द्विधा व्याख्या विवेचना है।


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