कित्रु हासः किमानन्दः नित्य प्रज्वलिते सति। अंधकारवनद्वा कि, प्रदीपं न गवेषय॥ - धम्मपद
अर्थात् यह हँसना कैसा और यह आनन्द कैसा?जबकि समूचा संसार अग्नि ज्वाला में जला जा रहा है। निविड़ अधिकार से घिरे हुए तुम प्रकाश को क्यों नहीं खोजते?
कार्लाइल ने लिखा है- तत्वज्ञानियों को यह खोजते सदियाँ हो गयी कि “मैं कौन हूँ “ इस व्यर्थ की बात में सिर फोड़ी करने की अपेक्षा यह सोचा या बताया गया होता कि हमारा कर्तव्य क्या है और उसे कैसे निभाया जा सकता है- तो कही अच्छा होता।