धर्म धारणा जीवन में उतरे

August 1993

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सामाजिक क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठापना के लिए धर्म प्रचार आवश्यक माना जाता है। उत्साह के साथ धर्मानुयायी प्रचार के लिए निकल भी पड़ते हैं। पर प्रायः देखा यही जाता है कि उपदेश देने भर से ही अभीष्ट सफलता नहीं मिल पाती हैं। इसका प्रमुख कारण है धर्म के मर्म को न समझ पाना। धर्म का अर्थ है धारण करना। धर्म प्रचार में धर्म पहले आता है। धर्म की रक्षा करने अर्थात् धारण करने से ही प्रचार की सफलता निर्भर है। धारण की पूँजी एकत्रित किये बिना जो सामाजिक उत्कृष्टता की बात सोचते हैं, उन्हें असफलता ही हाथ लगती है।

धार्मिक प्रतिष्ठापना की सामाजिक उपलब्धि तभी प्राप्त हो सकती हैं जब धार्मिक आदर्शों एवं सिद्धांतों की विचारणा ही नहीं, अपने जीवन क्रम की प्रत्येक गतिविधियों में समावेश भी किया जाए। भूल वहाँ होती है जब सिद्धांतों एवं आदर्शों को जीवन में उतारे बिना धर्म प्रचार की चेष्टा की जाती है। ण्से प्रचारक वस्तुतः धर्म को जीवन में उतारना ही दूर धकेलते जाते हैं। धर्म को निश्चित क्रिया कृत्यों की सीमा में कैद कर उसे सांप्रदायिक बना देते हैं। परिणाम यह होता है कि धर्म एक स्थान विशेष, प्रणाली विशेष का अंग बनकर रह जाता है। धर्म की व्यापकता सांप्रदायिक स्वरूप को ग्रहण कर लेती है साम्प्रदायिकता की लकीर में उलट फेर होते ही सारे सम्प्रदाय में उपद्रव सा खड़ा हो जाता है। धार्मिक लकीरों की रक्षा के लिए अनेकों प्रकार के विग्रह खड़े हो जाते हैं। लकीर की रक्षा को ही धर्मरक्षा समझ लेते हैं।

इतिहास साक्षी है कि विश्व के सभी साम्प्रदायिक दंगे धर्म के निष्प्राण लकीरों, क्रियाकृत्यों का वर्चस्व सिद्ध करने एवं उन्हें सर्वोपरि ठहराने के लिए हुए हैं। उसमें धार्मिक तत्त्वों की कामना कम, अविवेक का पुट अधिक रहा हैं। इसके कारण मानव समाज को कितनी ही बार अपार क्षति उठानी पड़ी है। धर्म के स्थान पर अधर्म पनपा एवं अनीति बढ़ी है।

धर्म का लक्ष्य है संसार के समस्त विषमताओं में एकता की स्थापना करना, मनुष्यत्व की प्रतिष्ठापना करना। यह तभी हो सकता है जब धर्म के तत्व को समझा जाय, जीवन में उतारा जाय। वस्तुतः यह स्थिति चिंतन प्रधान नहीं, अनुभूति प्रधान है। यह अनुभूति धार्मिक आदर्शों के धारण से ही संभव है।

महापुरुषों की यह विशेषता होती है कि वे चिर सनातन धार्मिक आदर्शों को मात्र जानते ही नहीं हैं, वरन् उनका समावेश भी अपने जीवन क्रम में रखते हैं तत्पश्चात धर्म को संकीर्णता की सीमा से बाहर निकल कर उसे सर्वभौम रूप प्रदान करते हैं। कालान्तर में यह स्वरूप भी उपयोगी नहीं रहता समय की नवीन माँग होती है। प्रायः अनुयायियों का दुराग्रह मात्र कलेवर के स्वरूप के प्रति होता है। फलस्वरूप संकीर्णता पनपती हैं जिन धार्मिक तत्वों की प्रतिष्ठा के लिए कलेवर प्रदान किया गया था, वे लुप्त हो जाते हैं। प्रधानता स्वरूप ही रह जाती है।

विश्व में फैले सभी धर्म सम्प्रदाओं का अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दुराग्रह धार्मिक आदर्शों की सर्वोपरिता सिद्ध करने एवं अपनाने का होता तो बात समझ में भी आती किन्तु अपने प्रचलनों एवं विधि विधानों को श्रेष्ठ सिद्ध करने की चेष्टा की जाती है तो परिणाम दुखद होता है। ऐसा दुखद जिससे धर्म धारण को कलंकित होना पड़े।

धर्म प्रचार करने से पूर्व उसके लक्ष्य, सिद्धांतों एवं आदर्शों को जानना समझना तथा तद्नुरूप अपने जीवन में गढ़ना आवश्यक है। प्रचार की पृष्ठभूमि यही से बनती है। अभीष्ट सफलता प्राप्त करना तभी संभव होता है। धर्म धारण के बिना धर्म दुखद संभावनाओं का रसास्वादन संभव नहीं। भोजन करने से शक्ति मिलती है, यह बात सत्य है किंतु इसकी अनुभूति तभी होती है जब भोजन किया जाता है। अनुभूति स्तर पर उतरा यह सिद्धांत ही सत्य को प्रकट कर सकने में समर्थ होता है।

धर्म का यह सिद्धांत जब अनुभूति में उतर जाता है कि विभिन्न कलेवरों में एक ही परमात्मा क्रीड़ा कल्लोल कर रहा है। स्वरूप की भिन्नता देखते हुए भी मूल तत्त्व की एकता है, जो धार्मिक प्रचलनों के प्रति दुराग्रह का मोह स्वयमेव तिरोहित हो जाता है तब प्रचारक साधना प्रणालियों को नहीं आदर्शों एवं सिद्धांतों को महत्व देने लगता है। समाज में उसकी प्रतिष्ठापना ही उसका लक्ष्य होता है।

एकरूपता बनाये रखने के लिए किसी विशेष साधना प्रणाली का प्रचलन तो किया जा सकता है किन्तु उसके अपनाये जाने का आग्रह नहीं होता है। आग्रह यदि होता भी है तो धर्म के मूलभूत सिद्धांतों को अपनाये जाने का।

धारण के अभाव में सशक्त क्रिया प्रणाली भी उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती है। इस तथ्य को तो वर्तमान समय में ही स्पष्टतया ही देखा जा सकता है। इन दिनों अधर्म बढ़ा ही है, यह बात यथार्थ ही हैं किन्तु इसके साथ धर्म का कलेवर भी विस्तृत हुआ है।

गंभीरता पूर्वक निरिक्षण करने से पता लगता है कि विश्व में अनेकों नवीन धर्म सम्प्रदाय उभर कर सामने आये है। उसका कलेवर आकर्षक है और प्रतिपादन प्रणाली भी बुद्धि संगत है। फिर क्या कारण है कि वे मनुष्य समाज को प्रभावित नहीं कर पाते। जन जीवन का सुधार प्रसार कर सकने में असमर्थ सिद्ध होते हैं। कारणों की खोज की जाय तो स्पष्ट होगा कि प्रचार की सफलता के जो मूल आधार थे उसका ही अभाव रहा। धर्म धारण की कमी ही असफलता का कारण बनी। साधना प्रणाली में किस प्रकार की कमी नहीं है।

विचारशील वर्ग धार्मिक कृत्यों से अल्प काल के लिए प्रभावित तो होता है, किन्तु धर्म का ढिंढोरा पीटने वाले प्रचारकों के व्यक्तित्व में जब आदर्शवादी मान्यताओं का अभाव देखता है तो उसे उतनी घृणा भी हो जाती है। जिस तेजी से वह कुछ पाने के लिए आगे बढ़ता है, उसी तीव्रता से पीछे हट जाता है।

विश्व में नास्तिक का प्रादुर्भाव इसी प्रकार हुआ। धर्म तंत्र की विकृति ही प्रधानतया नास्तिकता का कारण बनी है। इस कटु सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रच्छन्न नास्तिकता की दार्शनिक पृष्ठ भूमि तो बहुत ही दुर्बल है। वस्तुतः इसका परिपोषण धार्मिकता के उथले तथा छद्म रूप में होती है यह नास्तिकता वस्तुतः नकारात्मक धार्मिकता मात्र है।

धर्म सशक्त और उपयोगी भी है। भौतिक सम्पन्नता एवं आध्यात्मिकता उन्नति के दोनों ही प्रयोजन धर्म को अपनाने जीवन का अविच्छिन्न अंग बना लेने से पूर्ण होते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि उनकी आदर्श वादी मान्यताओं का सदुपयोग मानव मात्र के परिष्कार से किया जाय। यह कार्य धर्म को सँप्रदाय की संकीर्ण सीमा से बाहर निकालने पर ही संभव हो सकता है। यह कार्य कठिन अवश्य है, किन्तु इसके बिना धर्म प्रचार प्रभावशाली सिद्ध नहीं हो सकता।

जिन्हें सच्चे अर्थों में धार्मिकता पसंद है, जो धर्म को जीवित जागृत देखना चाहता है, उन्हें धार्मिकता के सिद्धांत और स्वरूप का परिचय जन जन को कराना होगा। अभी तो अंध परम्परायें ही धर्म निष्ठ के स्थान पर विराज मान हो रही हैं और स्वयँ ही अश्रद्धा का वातावरण उत्पन्न कर रही हैं धर्म तत्व महान है उसकी संभावनाएँ और भी महान है, किन्तु यह सुखद परिणाम धर्म के कलेवर के नहीं धर्म धारण के है। इस तथ्य को जितना जल्दी समझा और हृदयंगम किया जा सकें उतना ही अच्छा है।। धर्म प्रचार के लिए लेखनी, वाणी से, धर्मानुष्ठानों और प्रशिक्षणों से यह धर्म प्रयोजन में बहुत सुविधा हो सकती हैं किन्तु साथ साथ ध्यान यह भी रखना होगा कि कि धर्म प्रचार का उत्तरदायित्व वहन करने वाले दूसरों को जो सिखाना चाहते हैं उस पर स्वयँ विश्वास करें। धर्म धारण को अपने जीवन में गहराई तक समाविष्ट करके ही व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाया जाता है। अनुगमन भी उसी का होता है जिसका कि व्यक्तित्व सौ टंच सोने की भाँति परीक्षण में खरा उतरता है।


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