परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - त्रिपदा गायत्री के तीन चरण व उनका मर्म

August 1993

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गायत्री मंत्र साथ साथ -

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यों नः प्रचोदयात्।

मित्रो हमारा सत्ता वर्ष का सम्पूर्ण जीवन सिर्फ एक काम में लगा है और वह है- भारतीय धर्म और संस्कृति की आत्मा का शोध। भारतीय धर्म एवं प्रकृति के बीज है- गायत्री मंत्र। इस छोटे से चौबीस अक्षरों के मंत्र में यह ज्ञान और विज्ञान भरा मुखों से चार चरण गायत्री का व्याख्यान चार वेदों के रूप में किया। वेदों से अन्यान्य धर्म ग्रंथ बने। जो कुछ भी हमारे पास हैं - इस सबका मूल जड़ हम चाहे तो गायत्री मंत्र के रूप में देख सकते हैं, इसलिए इसका नाम गुरुमंत्र रखा गया है, बीज मंत्र रखा गया है। बीज मंत्र के नाम से इसी एक मंत्र को माना जा सकता है। और गुरुमंत्र इसे कहा जा सकता है। हमने प्रयत्न किया कि सारे भारतीय धर्म और विज्ञान को समझाने की अपेक्षा यह अच्छा है कि इसके बीज समझ लिया जाय, जैसे कि विश्वामित्र ने तप करके इसके रहस्य और बीज को जानने का प्रयत्न किया। हमारा पूरा जीवन इसी एक क्रिया कलाप में लग गया। जो बचे हुए जीवन के दिन हैं, उसका भी हमारा प्रयत्न यही रहेगा कि हम इसी को शोध और इसी के अन्वेषण और परीक्षण में अपनी बची हुई जिंदगी को लगा दें। बहुत सारा समय व्यतीत हो गया। अब लोग जानना चाहते हैं कि आपने इस विषय में जो शोध की, जो जाना उसका सार निष्कर्ष हमें भी बता दिया जाय। बात ठीक है अब हमारे महा प्रयाण का समय नजदीक चला आ रहा है तो लोगों का यह पूछताछ करना सही है कि हर आदमी इतनी शोध नहीं कर सकता। हर आदमी के लिए इतनी जानकारी प्राप्त करना तो संभव नहीं है। हमारा सार और निष्कर्ष हर आदमी चाहता है कि बताया जाय। क्या करें? क्या समझा आपने? क्या जाना? अब हम आपको यह बताना चाहेंगे कि गायत्री मंत्र के ज्ञान और विज्ञान में जिसकी कि व्याख्या स्वरूप ऋषियों ने सारे को सारा तत्त्व ज्ञान खड़ा किया हैं, क्या हैं?

गायत्री को त्रिपदा कहते हैं। त्रिपदा का अर्थ हैं - तीन चरण वाली -तीन टाँगों वाली। तीन टुकड़े उसके हैं जिसको समझ करके हम गायत्री के ज्ञान और विज्ञान की आधार शिला को ठीक तरीके से जान सकते हैं। इसका एक भाग है विज्ञान वाला पहलू विज्ञान वाले पहलू में आते हैं तत्त्वदर्शन, तप, साधना, योगाभ्यास, अनुष्ठान, जप, ध्यान आदि। यह विज्ञान वाला पक्ष हैं। इससे शक्ति पैदा होती है। गायत्री मंत्र के जप करने से, उपासना और ध्यान करने से उसके जो महत्व बताये गये है कि इससे बह लाभ होता है, अमुक लाभ होते हैं, अमुक कामनायें पूरी होती है। अब यह देखा जाय कि कैसे पूरी होती है और कैसे पूरी नहीं होती। कब तक सफलता मिलती हैं और कब नहीं मिलती। किसी भी बीज को पैदा करने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है -भूमि उसके पास होनी चाहिए। भूमि के अलावा खाद पानी का इंतजाम होना चाहिए। अगर यह तीनों चीजें उसके पास होंगी तब फिर मुश्किल हैं। तब फिर वह बीज पल्लवित होगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। गायत्री मंत्र के बारे में यही तीन बातें हैं कि यदि गायत्री मंत्र के साथ तीन चीजें मिला दी जाय या किसी भी आध्यात्मिक उपासना के साथ मिला दी जाय तो उसके ठीक परिणाम होना संभव है। अगर यह तीनों चीजें नहीं मिलायी जायेगी तब फिर यही कहना पड़ेगा कि इसमें सफलता की आशा कम है।

गायत्री उपासना के संबंध में हमारा लम्बे समय का जो अनुभव हैं कि जप करने की विधियाँ और कर्मकाण्ड तो वही हैं जो सामान्य पुस्तकों में लिखें है।

या बड़े से लेकर छोटे लोगों के लिए है। किसी को फलित होने और किसी को फलित न होने का मूल कारण यह है कि उन तीन तत्त्वों का समावेश करना लोग भूल जाते हैं। जो किसी भी उपासना का प्राण है। उपासना के साथ एक तथ्य यह जुड़ हुआ हैं कि अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा की एक अपने आप में शक्ति हैं। बहुत सारी शक्तियाँ हैं - जैसे बिजली की शक्ति, भाप की शक्ति हैं, आग की शक्ति हैं, उसी तरह श्रद्धा की एक शक्ति है। पत्थर में से देवता पैदा हो जाते हैं। झाड़ी में से भूत पैदा हो जाता है, रस्सी में से साँप हो जाता है। और न जाने क्या क्या हो जाता है। श्रद्धा के आधार पर। अगर हमारा और आप का किसी मंत्र के ऊपर जप, उपासना के ऊपर अटूट विश्वास हैं प्रगाढ़ निष्ठ और श्रद्धा हैं तो मेरा अब तक का अनुभव यह है कि उसको चमत्कार मिलना चाहिए ओर उसके लाभ सामने आने चाहिए। जिन लोगों ने श्रद्धा से विहीन उपासनाएँ की हैं, श्रद्धा से रहित मात्र कर्मकाण्ड सम्पन्न किये हैं, केवल जीभ की नोक से जप किये हैं और अँगुलियों की सहायता से मालायें घुमाई हैं, लेकिन मन में वह श्रद्धा न उत्पन्न कर सकें, विश्वास उत्पन्न न कर सकें, ऐसे लोग खाली रहेंगे। बहुत सारा जप करते हुए भी अगर अटूट श्रद्धा और विश्वास के साथ उपासनायें की जाय तो यह एक ही पहलू ऐसा हैं जिसके आधार पर हम सह आशा कर सकते हैं हमारे अच्छे परिणाम निकलने चाहिए, और उपासना का पूरा पूरा लाभ देना चाहिए। यह एक पक्ष हुआ।

दूसरा उपासना को सफल बनाने के लिए परिष्कृत व्यक्तित्व का होना निताँत आवश्यक है। परिष्कृत व्यक्तित्व का मतलब हैं कि आदमी चरित्र वान हों, लोकसेवी हो, सदाचारी हो, संयमी हो अपने व्यक्तिगत जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने वाला हों। अब तक ऐसे ही लोगों को सफलतायें मिली हैं। अध्यात्म का लाभ स्वयं पाने और दूसरों को दें सकने में केवल वही साधक सफल हुए है जिन्होंने जप, उपासना के कर्मकाण्डों के सिवाय अपने व्यक्तिगत जीवन को शालीन समुन्नत, श्रेष्ठ और परिष्कृत बनाने का प्रयत्न किया है। संयमी व्यक्ति, सदाचारी व्यक्ति जो भी जप करता है, उपासना करते हैं उनकी प्रत्येक उपासना सफल हो जाती है। दुराचारी आदमी, दुष्ट आदमी, नीच पापी और पत्ति आदमी भगवान का नाम लेकर यदि चाहे तो पार नहीं हो सकते। भगवान का नाम लेने का परिणाम यह होना चाहिए कि आदमी का व्यक्तित्व सही हो और वह शुद्ध बनें। अगर व्यक्ति को शुद्ध और समुन्नत बनने में राम नाम सफल नहीं हुआ तो तो जानना चाहिए कि उपासना कि विधि में बहुत भारी भूल रह गयी। और नाम के साथ काम करने वाली बात को भुला दिया गया। परिष्कृत व्यक्तित्व उपासना का दूसरा पहलू है। गायत्री उपासना के संबंध में अथवा अन्याय उपासनाओं के संबंध में।

तीसरा हमारा अब तक का अनुभव यह है कि उच्चस्तरीय जप और उपासनायें तब सफल होती हैं जब कि आदमी का दृष्टिकोण और महत्वाकांक्षाएं भी ऊंची हो। घटिया उद्देश्य लेकर के निकृष्ट कामनायें और वासनायें लेकर के अगर भगवान की उपासना की जाय तो देवता सबसे पहले कर्मकाण्डों की विधि एवं विधानों को देखने की अपेक्षा यह मालूम करने की कोशिश करते हैं कि उनकी उपासना का उद्देश्य क्या हैं? किस काम के लिए करना चाहता है? यदि उन्हीं कामों के लिए जिसमें आदमी को अपनी मेहनत और परिश्रम के द्वारा कमाई करनी चाहिए, उसको सरल और सस्ते तरीके से पूरा करने के लिए देवताओं का पल्ला खटखटाया हैं तो वे उसके व्यक्तित्व के बारे में समझ जाते हैं यह कोई घटिया आदमी हैं और घटिया काम के लिए हमारी सहायता चाहता है। देवता भी बहुत व्यस्त हैं। देवता सहायता तो करना चाहते हैं, लेकिन सहायता करने से पहले यह तलाश करना चाहते हैं कि हमारा उपयोग कहाँ किया जायेगा? किस काम के लिए किया जायेगा? यदि घटिया काम के लिए उनका उपयोग किया जाना हैं तो वे कदा चित ही कभी किसी के साथ सहायता करने को तैयार होते हैं। ऊंचे उद्देश्यों के लिए हमेशा देवताओं ने सहायता की हैं। मंत्र शक्ति और भगवान की शक्ति केवल उन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित रही है जिनका दृष्टिकोण ऊंचा रहा है। ऊंचे काम करने के लिए भगवान की सेवा और सहायता चाही हैं। , उनको बराबर सेवा और सहायता मिली हैं। इन तीनों बातों का हमने प्राणपण से प्रयत्न किया ओर हमारी गायत्री उपासना में प्राण संचार होता चला गया। प्राण संचार अगर होता तो हर चीज प्राणवान और चमत्कारी होती चली जाती है और सफल होती जाती है। हमने अपने व्यक्तिगत जीवन में चौबीस लाख के चौबीस साल में चौबीस महापुरश्चरण किये। जप और अनुष्ठानों कि विधियों को संपन्न किया। सभी के साथ जो नियमोपनियम थे, उनका पालन किया यह भी सही हैं, लेकिन हर एक को यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी उपासना में कर्मकाण्डों का विधि विधानों का जितना ज्यादा स्थान हैं उससे कही ज्यादा स्थान इस बात के ऊपर हैं कि हमने उन तीन बातों को जो अध्यात्मिकता की प्राण समझी जाती हैं उन्हें पूरा करने की कोशिश की है। अटूट श्रद्धा और अडिग विश्वास गायत्री माता के प्रति रख करके और उसकी उपासना के संबंध में अपनी मान्यता और भावना रख करके प्रयत्न किया हैं और उसका परिणाम पाया हैं। व्यक्तित्व को भी जहाँ तक संभव हुआ हैं परिष्कृत करने की पूरी कोशिश की हैं। एक ब्राह्मण को और एक भगवान के भक्त को जैसा जीवन जीना चाहिए हमने भरसक प्रयत्न किया है कि उनमें किसी तरह की कमी न आने पायें। उनमें पूरी पूरी सावधानी हम बरतते रहें है। अपने आप को धोबी की तरह धोने और धुनिये की तरह धुनने में हमने आगा पीछा नहीं किया है। यह हमारी उपासना को चमत्कृत बनाने का एक बहुत बड़ा कारण है। उद्देश्य हमेशा से ऊंचा रहे। उपासना हम किस काम के लिए करते हैं, हमेशा यह ध्यान बना रहा। पीड़ित मानव के ऊंचा उठने के लिए, देश धर्म, समाज और संस्कृति को समुन्नत बनाने के लिए हम उपासना करते हैं, अनुष्ठान करते हैं। भगवान की प्रार्थना करते हैं। भगवान को देखा कि किस नियत से यह आदमी कर रहा हैं। भागीरथी की नियत को देख कर के गंगा जो स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के लिए तैयार हो गयी थी और शंकर भगवान उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गये थे। हमारे संबंध में भी ऐसा हुआ। ऊंचे उद्देश्यों को सामने रख करके चले तो दैवी शक्ति की भरपूर सहायता मिलें। हमारा अनुरोध यह है कि जो आदमी यह चाहतें हों कि हमको अपनी उपासना को सार्थक बनाना है तो उन्हें इन तीन बातों का बराबर ध्यान में रखना चाहिए।

हम देखते हैं कि अकेला बीज बोना सार्थक नहीं हो सकता। उससे फसल नहीं आ सकती। फसल कमाने के लिए बीज एक, भूमि दो और खाद पानी इन तीन चीजों की जरूरत होती है। निशाना लगाने के लिए बंदूक एक, कारतूस दो, और निशाना लगाने वाले का अभ्यास तीन यह तीनों होगी तो बात बनेगी। मूर्ति बनाने के लिए पत्थर, एक, छेनी - हथौड़ी दो और मूर्ति बनाने की कलाकारिता तीन। लेखन कार्य के लिए कागज, स्याही और शिक्षा तीनों चीजों की जरूरत है। मोटर चलाने के लिए मोटर की मशीन, तेल तथा ड्राइवर तीनों चीजों की आवश्यकता होती है। इसी तरीके से उपासना के चमत्कार अगर किन्हीं को देखने हैं, उपासना की सार्थकता की परख करनी हो तो इन तीनों बातों को ध्यान में रखना पड़ेगा। जो हमने अभी निवेदन किया उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, परिष्कृत व्यक्तित्व और अटूट श्रद्धा विश्वास। इन तीनों को मिला करके जो आदमी उपासना करेगा, निश्चयपूर्वक और विश्वासपूर्वक हम कह सकते हैं अध्यात्मिकता के तत्वज्ञान का जो कुछ भी महात्म्य बताया गया है - कि आदमी स्वयँ लाभान्वित होता है, सामर्थ्य बनता है, शक्तिशाली बनता है, शाँति पाता है। , स्वर्ग मुक्ति जैसा लाभ प्राप्त करता है और दूसरों की सेवा सहायता करने में समर्थ होता है सही है। गायत्री मंत्र के संबंध में हम आजीवन यही प्रयोग और परीक्षण करते रहें और पाया कि गायत्री मंत्र सही है, शक्ति मान है। सबकुछ उसके भीतर है, लेकिन यह तभी जब गायत्री मंत्र के बीज को तीनों चीजों से समन्वित किया जाय। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, अटूट श्रद्धा विश्वास ओर परिष्कृत व्यक्तित्व यह जो करेगा पूरी सफलता पायेगा। हमारे अब तक के गायत्री उपासना अनुभव यही हैं कि गायत्री मंत्र के बारे में जो तीन बातें कही जाती है पूर्णतः सही है। गायत्री को कामधेनु कहा जाता है यह सही है। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा जाता है यह सही है। , गायत्री को पारस कहा जाता है, इसको छूकर के लोहा सोना बन जाता है यह सही है। गायत्री को अमृत कहा जाता है, जिसको पीकर के अजर अमर हो जाते हैं, यह भी सही है। यह सब कुछ सही उसी हालत में है जबकि गायत्री रूपी कामधेनु को चारा भी खिलाया जाय, पानी पिलाया जाय, रखवाली भी की जाय। गाय को चारा आप खिलायें नहीं और दूध पीना चाहें तो यह कैसे संभव होगा? पानी पिलाये नहीं ठंड से उसका बचाव करे नहीं, तो यह कैसे संभव होगा? गाय दूध देती हैं, यह सही हैं, लेकिन साथ साथ में यह भी सही है कि उसको परिपुष्ट करने के लिए दूध पाने के लिए उन तीन चीजों की जरूरत हैं जो कि मैंने अभी आप से निवेदन किया।

यह विज्ञान पक्ष की बात हुई। अब ज्ञान पक्ष की बात आती हैं। यह मरा 70 वर्ष का अनुभव है कि गायत्री के तीन पाद- तीन चरण में तीन शिक्षाएँ भरी है। और ये तीनों शिक्षाएँ ऐसी है कि अगर उन्हें मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में समाविष्ट कर सके तो धर्म और अध्यात्म का सारे के सारा रहस्य और तत्वज्ञान का उसके जीवन में समाविष्ट होना संभव है। तीन त्रिपद गायत्री हैं- (1) आस्तिकता (2) आध्यात्मिकता (3) धार्मिकता। इन तीनों को मिला करके त्रिवेणी संगम बन जाता है। ये क्या है तीनों?

पहला है आस्तिकता। आस्तिकता का अर्थ हैं ईश्वर का विश्वास। भजन पूजन तो कोई आदमी कर लेता है, पर ईश्वर विश्वास का अर्थ है कि सर्वत्र जो भगवान समाया हुआ है, उसके संबंध में यह दृष्टि रखें कि उसका न्याय का पक्ष कर्म फल देने वाला पक्ष इतना समर्थ है कि उसका कोई बीच बचाव नहीं कर सकता। भगवान सर्वव्यापी हैं, सर्वत्र हैं, सबको देखता है, अगर यह विश्वास हमारे भीतर हो तो, इसके लिए पाप कर्म करना संभव नहीं होगा। हम हर जगह भगवान को देखेंगे और समझेंगे कि उसकी न्याय, निष्पक्षता हमेशा अक्षुण्ण रही है। उससे हम अपने आप का बचाव नहीं कर सकते। इसलिए आस्तिक का ईश्वर विश्वासी का पहला क्रिया कलाप यह होना चाहिए कि हमको कर्म फल मिलेगा, इस लिए हम भगवान से डरें। जो भगवान से डरता है उसे संसार में किसी और से डरने की जरूरत नहीं होती। आस्तिकता चरित्रनिष्ठ और समाजनिष्ठ का मूल है। आदमी इतना धूर्त है कि वह सरकार को झुठला सकता है, कानूनों को झुठला सकता है, लेकिन यदि ईश्वर का विश्वास उसके अंतःकरण में जमा हुआ है तो वह बराबर ध्यान रखेगा। हाथी के ऊपर अंकुश जैसे लगा रहता है आस्तिकता का अंकुश हर आदमी को ईमानदार बनने के लिए, अच्छा बनने के लिए प्रेरणा करता है, प्रकाश देता है।

ईश्वर की उपासना का अर्थ हैं - जैसा ईश्वर महान है वैसे ही महान बनने की हम कोशिश करें। हम अपने आप को भगवान में मिलाये। यह विराट विश्व भगवान का ही रूप है, हम उसकी सेवा करें, सहायता करें और इस विश्व उद्यान को समुन्नत बनाने की कोशिश करें, क्योंकि हर जगह भगवान समाया हुआ है। सर्वत्र भगवान विद्यमान है। यह भावना रखने से ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु ‘ की भावना मन में पैदा होती है। गंगा जिस तरीके से अपना समर्पण करने के लिए समुद्र की ओर जल पड़ती है। आस्तिक व्यक्ति ईश्वर का विश्वासी व्यक्ति भी अपने आप को भगवान में समर्पित करने के लिए जल पड़ता है इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान की इच्छाएँ मुख्य हो जाती है और सिखाती हैं, कि ईश्वर के संदेश, ईश्वर की आज्ञाएँ ही हमारे लिए सब कुछ होनी चाहिए। हमें अपनी इच्छा भगवान पर थोपने की अपेक्षा भगवान की इच्छा को अपने जीवन में धारण करना चाहिए। आस्तिकता के ये बीज हमारे अन्दर जमे हुए हों, तो जिस तरीके से पेड़ में लिपट कर बेल उतनी ही ऊंची हो जाती है जितना कि ऊंचा वृक्ष है। उसी प्रकार कह भगवान की ऊँचाई के बराबर ऊँचे चढ़ सकते हैं जिस प्रकार पतंग अपनी डोर बच्चे के हाथ में थमाकर आसमान में ऊँचे उड़ती चली जाती है। जिस प्रकार कठपुतली के धागे बाजीगर के हाथ में बंधे से कठपुतली अच्छे से अच्छा नाच तमाशा दिखाती है। उसी तरीके से ईश्वर का विश्वास, ईश्वर की आस्था अगर हम स्वीकार करें हृदयंगम करें और अपने जीवन की दिशा धारायें भगवान के हाथ में सौंप दें। अर्थात् भगवान के निर्देशों को ही अपनी आकाँक्षायें मान ले तो हमारा उच्चस्तरीय जीवन बन सकता है। और हम इस लोक में शाँति एवं परलोक में सद्गति प्राप्त करने के अधिकारी बन सकते हैं। आस्तिकता गायत्री मंत्र का पहला वाला चरण है- आध्यात्मिकता। आध्यात्मिकता का अर्थ होता है- आत्मावलंबन, अपने आप को जानना आत्म बोध। “आत्माऽवारे ज्ञातव्य “ अपने आप को जानना। अपने आपको जानने से हम बाहर बाहर भटकते रहते हैं। कई अच्छी आकाँक्षाओं को पूरा करने के लिए, अपने दुःखों का कारण बाहर तलाशे फिरते रहते हैं। जानते नहीं कि हमारी मनःस्थिति के कारण ही हमारी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है। अगर हम यह जान पायें तो फिर अपने आपको सुधारने की कोशिश करें। स्वर्ग और नरक हमारे ही भीतर है। हम अपने ही भीतर स्वर्ग दबायें हुए हैं- अपने ही भीतर नरक दबायें हुए है। हमारे मनःस्थिति के आधार पर ही परिस्थितियाँ बनती है। कस्तूरी का हिरण चारों तरफ तलाश करता फिरता था, लेकिन जब उसको पता चला कि वह तो उसकी नाभि में ही है, तब उसने इधर उधर भटकना त्याग दिया ओर अपने ही भीतर ढूंढ़ने लगा। फूल जब खिलता है तो भौंरे आते ही हैं। बादल तो बरसते तो हैं पर जिसके आँगन में जितना पात्र होता है, उतना ही पानी देकर जाते हैं। चट्टानों के ऊपर बादल बरसते हैं, लेकिन घास का ऐ किनका भी पैदा नहीं होता।

छात्रवृत्ति उन्हीं को मिलती है जो अच्छे नम्बर से पास होते हैं। संसार में सौंदर्य तो बहुत हैं, पर हमारी आँख न हो तो क्या मतलब। , संसार में संगीत गायन तो बहुत हैं पर हमारे कान न हो तो उन शब्दों का क्या मतलब। संसार में ज्ञान विज्ञान तो बहुत हैं, पर हमारा मस्तिष्क न हो तो उसका क्या मतलब। ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो जो अपनी सहायता आप करते हैं। इसीलिए आध्यात्मिकता का संदेश यह है कि हर आदमी को अपने आपको देखना, समझना, सुधारने के लिए भरपूर प्रयत्न करना चाहिए। अपने आपको जितना सुधार लेते हैं, उतनी ही परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल बनती चली जाती है। यह सिद्धांत गायत्री मंत्र का दूसरा वाला चरण है।

तीसरा वाला चरण गायत्री मंत्र का है- धार्मिकता। धार्मिकता का अर्थ होता है- कर्तव्य परायणता। कर्तव्यों का पालन। कर्तव्य, कर्म और धर्म लगभग एक ही चीज हैं। मनुष्य ओर पशु में सिर्फ इतना ही अंतर हैं कि पशु किसी मर्यादा में बँधा नहीं होता है। मनुष्य के ऊपर हजारों मर्यादायें और नैतिक नियमन बाँधे गये है और जिम्मेदारियाँ लादी गयी है॥ जिम्मेदारियाँ और कर्तव्यों को पूरा करना मनुष्य का कर्तव्य है। शरीर के प्रति हमारा कर्तव्य हैं कि इसको हम निरोग रखें। मस्तिष्क के प्रति हमारा कर्तव्य है कि अवाँछनीय विचारों को न आने दे। परिवार के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उनको सद्गुणी बनायें। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारा कर्तव्य है कि हम समुन्नत बनाने के लिए हम भरपूर ध्यान रखें लोभ और मोह के पास से अपने आपको छुड़ा करके अपनी जीवात्मा का उद्धार करना यह भी हमारा कर्तव्य हैं और भगवान ने जिस कार्य के लिए हमको इस संसार में भेजा हैं, जिस काम के लिए मनुष्य योनि में जन्म दिया हैं, उस काम को पूरा करना भी हमारा कर्तव्य है। इन सारे के सारे कर्तव्यों को यदि ठीक तरह से हम पूरा न कर सके तो हम धार्मिक कैसे कहला सकेंगे। धार्मिकता का अर्थ हैं कर्तव्यों का पालन हमने सारे जीवन में गायत्री मंत्र के बारे में जितना भी विचार किया, शास्त्रों को पढ़ा, सत्संग किया, चिंतन मनन किया, उसका साराँश यह निकला कि बहुत सारा विस्तार ज्ञान हैं, बहुत सारा विस्तार धर्म और अध्यात्म है लेकिन इसके सार में तीन चीजें समान हुई है (1) आस्तिकता अर्थात् ईश्वर का विश्वास (2) आध्यात्मिकता अर्थात् स्वावलंबन, आत्म बोध, और अपने आपको परिष्कृत करना अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकार करना और (3) धार्मिकता अर्थात् कर्तव्य परायणता। कर्तव्य परायणता, स्वावलंबी और ईश्वर परायण कोई भी व्यक्ति गायत्री मंत्र का उपासक कहा जा सकता है और गायत्री मंत्र के ज्ञान पक्ष के द्वारा जो शाँति और सद्गति मिलनी चाहिए उसका अधिकारी बन सकता है। हमारे जीवन का यही निष्कर्ष है विज्ञान पक्ष में तीन धारायें और ज्ञान पक्ष में तीन धारायें, इनको जो कोई प्राप्त का सकता हो गायत्री मंत्र की कृपा से निहाल बन सकता है और ऊँची से ऊँची से स्थिति प्राप्त करके इसी लोक में स्वर्ग और मुक्ति का अधिकारी बन सकता है। ऐसा हमारा अनुभव ऐसा हमारा विचार और ऐसा हमारा विश्वास है।


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