‘वह बरगद बहुत पुराना भी था और बहुत बड़ा भी। शाखायें बीघों जमीन घेरे हुए थीं। उसे एक छोर पर था सरोवर और दूसरे छोर पर था मरघट।
एक सिरे पर बाल-वृद्धों और तरुण-तरुणियों का मनोरम स्नान, सौंदर्य वह जी भर कर देखता और दूसरे छोर पर आये दिन जलने वाली चिताओं में अग्नि स्नान करते हुए दृश्य उसे मृदुल और करुण संवेदना प्रदान करते। दोनों को ही वह विरत वैरागी की भाँति शिरोधार्य करता। इसी उपक्रम में बरगद की लम्बी आयुष्य बढ़ती चली गयी।
एक दिन कोई भावुक पथिक उसकी छाया में विश्राम करने लगा। झपकी लेने के बाद दोनों सिरों पर दो विपरीत दृश्य देखे तो वह उद्विग्न हो उठा। संसार मृदुल है या वीभत्स। रमना सही है या भागना? सौंदर्य में यथार्थता है या शोक में? यहाँ अमृत है या विष?
भावुक पथिक जितना सोचता था उतना ही उलझता था। वह बाल बिखेर कर इधर-उधर टहलने लगा। कभी सरोवर तट पर जाता और मनोमुग्धकारी दृश्य देखता। कभी उठती उम्र की जलती लाशें देखकर सिर धुनता। इस संपन्नता और विपन्नता की विडम्बना को चीर कर वह यथार्थता का बोध पाना चाहता था, पर कुछ सूझ-समझ पड़ा नहीं। वह थककर जमीन पद बैठ गया और सर खुजलाने लगा।
वृक्ष की डाली पर से कुछ पके हुए फल टपके। पथिक का ध्यान भंग हुआ। भूख बहुत लगी थी, सो उसने इधर-उधर बिखरे अनेक फल समेटे। भर पेट खाये ओर संतोष पाया।
उद्वेग के क्षणों को समाधान में बदलने की कृपा किसने की? भावुक पथिक ने सोचा शायद कोई देवता इस वट वृक्ष पर रहते होंगे। वे कहाँ है?यह जानने के लिए उसने जिज्ञासा भरी दृष्टि पसारी और पल्लवों की सघनता को मर्म भरी जिज्ञासा के साथ निहारा।
बूढ़े बरगद की आत्मा पथिक की आकुलता को देर से देख रही थी। उसने साँत्वना भरे मंद और मृदुल शब्दों में कहा-तात। यहाँ सृजन और मरण की अविच्छिन्न संगति है। तथ्य के यह दोनों सिरे मधुर और कटु भले ही लगें, पर वे रहेंगे जहाँ के तहाँ ही। अच्छा यही है कि संवेदनाओं की लहरों में उतरने -उछलने की अपेक्षा का कर्तव्य का सारतत्व स्वीकारें। मुझे देखते नहीं दोनों सिरों पर घटित होने वाले दो विपरीत दृश्यों के बीच फल और छाया के उत्पादन में संलग्न रहकर किस प्रकार संतोष की साँस लेता हूँ। क्या अनुकरण तुम्हारे लिए समाधान कारक नहीं?
पथिक को समाधान मिल गया। उसने संतोष की साँस ली और सरोवर तथा श्मशान के मध्य खड़े समुन्नत मस्तक वाले बरगद को श्रद्धा वनत् नमन किया और गन्तव्य दिशा में चल पड़ा।