गहना कर्मणोगतिः

August 1993

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प्रायः समझा जाता है कि हम जो भी शुभ अशुभ कार्य करते हैं, वह उस क्रिया के स्थूल परिणाम तक ही सीमित होता है। उसके बाद न तो उस कार्य का कोई अस्तित्व रह जाता है और न ही किसी प्रकार के पृथक फल की आशा की जाती है। ऐसे विचार करने वाले उसके समर्थन में यह तर्क, प्रस्तुत करते हैं कि यदि कोई चोर चोरी करता है, तो उसे या तो फल के रूप में धन की प्राप्ति होती है या पकड़े जाने पर अपराध की सजा मिलती है। कर्म तो यही समाप्त हो जाता है। इसका दण्ड भी उसे मिलता है। फिर परमसत्ता की ओर से अन्य किसी फल का क्या औचित्य रह जाता है? देने वाला उसे किस आधार पर बाद में वह फल देता है।

वस्तुतः ऐसा सोचने वाले भूल करते हैं। दृश्य परिणाम उपस्थित करने के बाद ही कोई क्रिया पूर्णतः समाप्त हो जाती हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता है। गर्मियों के दिन में नदी, सरोवर सूख जाते हैं। उनका जल वाष्पीभूत होकर आँखों से ओझल हो जाता है इस रूपांतरण की प्रक्रिया से अनभिज्ञ व्यक्ति यह समझ सकता है कि जल समाप्त हो गया, पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि इस क्रिया के बाद भी जल का आस्तित्व ज्यों के त्यों बना रहता है। हाँ उसके स्वरूप में भिन्नता अवश्य आयी। पानी ने अपना स्थूल स्वरूप बदलकर वाष्प का सूक्ष्म रूप धारण कर लिया, पर क्रिया की समाप्ति ही नहीं हो गयी। यह तो इसका आरंभ हैं, क्रिया का एक भाग है। इसकी पूर्णता तभी होगी, जब चक्र पुनः होगा, अर्थात् वशीभूत जल पुनः बादल बनकर बरसेगा। बादल का बरसना इस क्रिया का फल हुआ। ऐसी ही प्रक्रिया कर्म के साथ भी घटित होती है। वस्तुतः हम जो कर्म करते हैं, उसका सूक्ष्म प्रभाव हमारी आत्मा पर पड़ता है। स्थूल रूप से क्रिया समाप्त हो जाती है पर उसका सूक्ष्मीकृत अंश इस स्थिति में भी विद्यमान रहता है। जिस प्रकार मिर्च को जलाने पर उसकी स्थूलता तो नष्ट हो जाती हैं मगर वह अपने वायुभूत अंश से वातावरण को प्रभावित किये रहती है। ऐसा ही कर्म के साथ भी होता हैं कर्म के यही सूक्ष्म भाग संस्कार कहलाते हैं। , जो हमारी आत्मा और सूक्ष्म शरीरों को अपने प्रकार से संस्कारित कर लेते हैं। वास्तव में हमारी आत्मा के चारों ओर स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के तीन आवरण है। हम जो भी कार्य करते उसका प्रभाव स्थूल शरीर तक ही नहीं सीमित होकर रह जाता है वरन् छन कर सूक्ष्म शरीरों तक चला जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सूक्ष्म शरीर स्थूल प्रभाव को धारण नहीं कर सकते। संगीत रिकार्डिंग में कितने प्रकार के वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता हैं पर रिकार्ड में उसकी स्थूलता की आवश्यकता नहीं पड़ती। सार रूप में सभी की ध्वनियाँ अंकित हो जाती है। यही हाल हमारे कर्म प्रभाव एवं संस्कारों का है।

इसे दूसरे प्रकार से इस तरह समझा जा सकता है कि विद्यालय में जब विद्यार्थी गणित पढ़ते हैं तो आरंभ में उन्हें स्थूल प्रश्न हल करना बताया जाता है। किंतु वे ज्यों ज्यों वे आगे कक्षाओं में बढ़ते जाते हैं उनके साथ ऐसे उदाहरणों एवं नियमों की संख्या भी बढ़ती जाती है। ऐसी स्थिति में मस्तिष्क इतने उदाहरणों और स्थूल नियमों को कैसे याद रख सकता है? क्योंकि ह इसकी सामर्थ्य से परे की बात है। तब वह इसके सार रूप सूत्रों को याद कर लेता है। , जिसके सहारे बड़े बड़े सवाल भी सुगमता पूर्वक हल किये जा सकते हैं। जब सरल संक्षिप्त सूत्रों से काम चल सकता हैं तो बड़े और लम्बे सूत्रों का बोझ ढोने की क्या आवश्यकता है? एक अन्य प्रकार से इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के पास जब भी पैसे इकट्ठा हो जाते हैं, वह उसकी जगह एक रुपये का नोट रखना पसंद करता है। जब उसके पास एक एक के सौ नोट इकट्ठा हो जाते हैं तो वह सौ रुपये का एक नोट रखना पसंद करता है। बात एक ही है वह सौ पैसे रखे या ऐ नोट, सौ नोट रखे अथवा सौ की एक नोट। किन्तु प्रश्न यह कि जब एक रुपये और सौ रुपये के नोट से वही काम हो सकता है

जो सौ पैसे एवं एक के सौ नोटों से, तो सुरक्षित जमा रखने की दृष्टि से कोई अनावश्यक स्थूलता का यह कष्ट क्यों उठायेगा?

संस्कारों के साथ भी ऐसी ही स्थिति सामने आती हैं। जिस प्रकार गणितीय सूत्रों एवं नोटों की क्रमशः सूक्ष्म अवस्थायें आती चली जाती हैं। वैसे ही संस्कारों की भी सूक्ष्म अवस्थायें होती है। सबसे सूक्ष्म संस्कार कारण शरीर पर अंकित होते हैं। जो मृत्यु के पश्चात जीवात्मा के साथ चले जाते हैं। यह कर्म के फल नहीं वरन् क्रिया के कारण रूप है। फल तो अब इसके आधार पर ईश्वरीय सत्ता से मिलता है। जिसने कर्म किया है, चाहे वह भला हो या बुरा, क्रिया के आधार पर उसे उसका फलितार्थ तो मिलना ही चाहिए। अब प्रश्न है कि चोर को चोरी की सजा न्यायाधीश द्वारा मिल जाती है, तो दैवी सत्ता का दण्ड उसी अपराध के लिए दुबारा क्यों भोगना पड़ता है? इसे समझाने के लिए उस व्यक्ति पर विचार करना होगा, जिसने कोई गम्भीर अपराध किया हो। जब वह इस दौरान जनता द्वारा पकड़ा जाता है, तो वह भी अपराध कर्म के लिए उसे अपने प्रकार की सजा देती है। सकी पिटाई करती हैं, अंग भाँग करती हैं और दूसरे प्रकार की यातनायें भी देती है। इस प्रकार कोई न्यायाधीश से यह जाकर कहें कि इसे किये का दण्ड मिल चुका हैं, अब आप इसे छोड़ दें, तो न्यायाधीश इन बातों का तनिक भी ध्यान न देगा। क्योंकि वह जानता है कि अपराधी ने कानून का उल्लंघन किया हैं, जिसकी एक उचित सजा एक मजिस्ट्रेट ही दे सकता है। जो न्याय और कानून से अनभिज्ञ हो, वह या तो अपराध की तुलना में कठोर दण्ड देगा या मृदु दण्ड। , दूसरे वह इस कार्य के लिए अनधिकृत होता है, अतः उसकी याचना की अपेक्षा कर दी जाती है। जुर्म कितना संगीन हैं एक अधिकारी व्यक्ति ही उचित निर्णय कर सकता हैं और तद्नुरूप दण्ड का निर्धारण भी। न्यायाधीश द्वारा सुनाया गया निर्णय दोषी को हर प्रकार से मानना व पालन करना पड़ता है। यही विधान भगवान के दरबार में भी लागू है। दोषी व्यक्ति जुर्म करके सृष्टि और सृष्टा दोनों को भंग करता है। अतः सजा का पात्र हैं, भले ही मुजरिम को लौकिक दृष्टि से दण्ड मिल चुका हो, पर वह दण्ड उसके दरबार में वैधानिक नहीं माना जाता है। किस जुर्म का कैसा दण्ड हो सकता है, इसका निर्धारण भी भाँति परमसत्ता ही कर सकती है, अतः हर अपराधी को उसकी सजा भोगनी ही पड़ती है॥भगवत् सत्ता की यह व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक हो जाती हैं, कि मनुष्य अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति कर सकें। इस आधार पर पाप कर्म का दण्ड दुःख दर्द कष्ट कठिनाई एवं पुण्य का पारितोषिक सुख संतोष के रूप में मिलना आवश्यक हो जाता है। यदि यह व्यवस्था न हो तो मनुष्य अपने पाप कर्म के रूप में हुई भूल में सुधार कर ही नहीं सकता और वह इस प्रकार लक्ष्य से भटक जायेगा

इस प्रकार ईश्वरीय सत्ता की दण्ड व्यवस्था का उद्देश्य बड़ा होता है। उसमें उसकी सुधार प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए मनुष्य को उसके परम लक्ष्य का ओर अग्रगामी बनाने का प्रयोजन मुख्य होता है जबकि भौतिक जगत की दण्ड व्यवस्था में यह उद्देश्य निहित होता है। यहाँ अपराध कर्मी को दण्ड सिर्फ इसलिए दिया जाता है, क्योंकि उसने अपराध किया। इस दण्ड से उसमें सुधार हो या न हो, सकी जिम्मेदारी मजिस्ट्रेट की नहीं होती, दैवी दण्ड की एक विशेषता यह भी है, कि इससे मनुष्य को सोचने के लिए विवश होना पड़ता है। कि आखिर यह दण्ड उसे क्यों मिला और यही से सुधार क्रम का सिलसिला भी आरंभ हो जाता है। वह अच्छे कर्म के लिए उद्यत होता है, जिसका परिणाम भी उसे हाथों हाथ मिलता है। सुख, संतोष, श्रद्धा, सम्मान इस लोक में और स्वर्ग मुक्ति जैसा आनन्द परलोक से प्राप्त होता है। इसके विपरीत दुष्कर्मों में संलिप्त रहने वालों की भौतिक संसार में तो दुर्गति होती ही है। , मृत्यु के बाद भी उसे नरक की पीड़ा सहनी पड़ती है। ऐसे लोगों को देखकर यह कहना पड़ता है कि यदि परिस्थितियाँ सही रही होती, तो उसे इतना कष्ट नहीं उठाना पड़ता, पर सच तो यह है कि शुभाशुभ कर्मों के आधार पर परिस्थितियों का बनना बिगड़ना भी उसी सत्ता के आधीन है और वही इसका अभियंता है, किन्तु इसके लिए उसे प्रकट होने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह सब उसकी स्वसंचालित प्रक्रिया के माध्यम से चलता रहता है। जिस प्रकार परीक्षा पास करने के बाद हर किसी को एक सर्टीफिकेट दिया जाता है, उसमें उसकी योग्यता का उल्लेख रहता है, और उसी के आधार पर उसे छोटी बड़ी नौकरी मिलती है, उसी प्रकार मानवीय सत्ता में सूक्ष्म संस्कारों की सत्ता रहती है। हर मनुष्य के लिए यह उसकी व्यक्तिगत योग्यता का प्रमाण पत्र रहता है, जिसमें उसके वर्तमान जीवन एवं पिछले जन्मों के संपूर्ण कर्मों का उल्लेख सार रूप में रहता है। इसी आधार पर जीवन में उसे सुख दुःख मिलते और उनकी अवगति प्रगति होती है।

कुछ लोग स्थूल क्रिया की समाप्ति को ही कर्म की समाप्ति मान लेते हैं, पर यह गलत हैं। कर्म की समाप्ति तब तक नहीं होती जब तक कारण शरीर में सूक्ष्म रूप में उसका अंकन होकर फल प्राप्ति नहीं हो जाती। चक्र पूरा होने के बाद क्रिया पूरी होती है। इस प्रकार न तो यह कहा जा सकता है कि स्थूल क्रिया के बाद कर्म की समाप्ति हो जाती है और न ईश्वर पर यह आक्षेप लगाया जा सकता है कि लौकिक दण्ड मिल जाने के बाद उसकी न्याय व्यवस्था का कोई महत्व नहीं रह जाता है। वस्तुतः भगवान की ओर से भी सजा मिलती है, वह हमारी भलाई के लिए ही होती है। जीव मात्र का इसी में कल्याण है और कल्याणकारी उसकी व्यवस्था है। कर्मों की गति वस्तुतः न्यारी है एवं भारतीय ऋषि प्रणीत कर्म व्यवस्था से श्रेष्ठ कोई सिद्धांत इसकी व्याख्या तर्क सम्मत रीति सं नहीं कर सकता। हमें इसे ही सही नीति सम्मत व औचित्य पूर्ण मानकर अपने कर्मों को सही बनाते रहने का पुरुषार्थ सतत् करना चाहिए।


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