दुर्गुणों की जननी दुर्बुद्धि

August 1993

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अशांत रहने के कारणों में वे व्यवधान प्रधान होते हैं, जिन्हें प्रतिकूलता, कठिनाई, समस्या आदि के नाम से जाना जाता है। एक सीमा तक मनुष्य परिस्थितियों का गुलाम भी है। जैसे भले बुरे अवसर सामने आते हैं उनके अनुरूप प्रसन्न व खिन्न होना पड़ता है। संपदा की बहुलता में इच्छित वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं। इच्छित व्यक्तियों का सहयोग भी प्रायः कुछ ले दे कर हस्त गत हो जाता है इतने पर भी अशाँति से पीछा नहीं छूटता। अभावग्रस्त या विपन्न लोगों की चिंता परेशानी समझ में आती है, किन्तु इसके विपरीत देखा यह गया है कि जिनके पास विपुल साधन हैं वे भी चैन से नहीं रह पाते। अशांति उन्हें भी घेरे रहती है। बात तो आश्चर्य की लगती है, पर है सत्य और तथ्य से समन्वित।

अभाव ग्रस्त आहार, विहार, निवास, निर्वाह के साधनों की कमी से कठिनाई अनुभव करते हैं जिन्हें स्नेह सहयोग भी नहीं मिलता। श्रेय और सम्मान के अभाव में उन्हें अपने अपेक्षित तिरष्कृत रहने जैसी अनुभूति भी होती रहती है। यह स्वाभाविक हैं, क्योंकि जिनके पास न ज्ञान हैं, और न साधन उन्हें कष्टों और संकटों का सामना करना ही पड़ेगा। ऐसी दशा में आकुल व्याकुल रहना पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। किन्तु ऐसे भी लोग कम नहीं जो शिक्षित भी हैं और साधन संपन्न भी। फिर भी उनकी मनः स्थिति अभाव ग्रस्तों से भी अधिक गयी गुजरी है, उन्हें अशांति, विकृति चिंतन के कारण त्रास देती है। धन निर्वाह के लिए चाहिएं सो कम साधनों में चला जाता है। मुट्ठी भर अन्न से पेट भरता है। उतनी कमाई कुछ घण्टे श्रम से हो सकती है, बहुमूल्य आहार से पोषण मिलता है। यह मान्यता भ्रम पूर्ण है। यदि ऐसा रहा होता तो सभी धनवान इच्छित भोजन मिलने के कारण मोटे तगड़े, परिपुष्ट निरोग और दीर्घ जीवी रहे होते, पर ऐसा कहाँ देखा जाता है उसमें तो कही अच्छी स्थिति कृषकों और मजदूरों की होती हैं जो मोटा झोटा खाते हैं और धूप वर्षा की परवाह न करते हुए कठोर श्रम में जुटे रहते हैं। संपन्न लोग खाते कम बिगाड़ते अधिक हैं। स्वादिष्ट पकवान बार बार अनावश्यक मात्रा में खाते रहते हैं, फलस्वरूप पेट खराब कर लेते हैं और अपचजन्य अनेकानेक रोगों के शिकार होते हैं। चिकित्सा और मरण की चिंता बनी रहती है।

देखा गया है कि मतिभ्रम अपने चंगुल में फँसे लोगों को अधिकाधिक मात्रा में धन कमाने की ललक उत्पन्न करते हैं। भले ही वह धन अनीति पूर्वक, अपराध का आश्रय लेते हुए ही क्यों न इकट्ठा किया गया हो। ऐसा धन आमतौर से शराब खानों में वेश्यावृत्ति में ओर अदालतों में, रिश्वतों में चला जाता है। अनेक ईर्ष्यालु उत्पन्न होते हैं। ठगने वाले चापलूसों की कमी नहीं रहती। तथाकथित मित्र कुसंग में घसीटते हैं और दुर्व्यसनों की लत। लगाते हैं। ठाठ बाट बनावट शृंगार, सज्जा आभूषण ढेरों पैसा माँगते हैं। इस प्रकार अपव्यय करने वाले साथियों का जब भी कमीशन लाभ घटता है तभी वे दुश्मन बन जाते हैं और भेद खोलकर बदनामी कराते हैं तथा जिस तिस मार्ग से दिखाने के लिए कुछ न कुछ षड्यंत्र रचते रहते हैं। यह सब कारण ऐसे हैं जिसके कारण अनावश्यक रूप से कमाया हुआ धन विपत्ति, चिंता, पाप का कारण बनता है।

उत्तराधिकारियों को वृद्धों की संपदा मुफ्त में मिलने की आशा रहती है। इसलिए वे स्वावलम्बी बनने का नाम नहीं लेते। उस संपदा को जल्दी प्राप्त करने की प्रतीक्षा करते और जिसके अधिकार में वह धन है उसके मरने की प्रतीक्षा करने लगते हैं।

बटवारे के प्रश्न को लेकर उत्तराधिकारियों में मुकदमें बाजी, फौजदारी की नौबत आ जाती हैं और वह मुफ्त का धन इसी जंजाल में खर्च हो जाता है।

कई बार तो उत्तराधिकारी अभिभावकों के मरने का प्रतीक्षा भी नहीं करते वरन् अपना हिस्सा अलग करवाने पर सब पर हावी होने का प्रयत्न करते हैं। इन परिस्थितियों में सोचना यही पड़ता है कि किसके फेर में अनावश्यक धन कमाया गया था उससे अधर्म को बढ़ाया गया था। जो कभी चतुरता प्रतीत होती थी वह परले सिरे की मूर्खता सिद्ध होती है। जो धन साथ जाने वाला नहीं, जिसमें कोई परमार्थ सधने वाला नहीं है। उसे एकत्र करने के लिए अनेकों मुसीबतें मोल लेना है। कही गड्ढा करके ही ऊंचा भवन बन सकता है। अन्यथा दौलत बढ़ते ही उसे जरूरतमंदों को बाँट देने का कर्त्तव्य उपेक्षित रहने पर टोंचता ही है और बेचैनी बढ़ाता रहता है।

गीतकार का कथन है कि -“ अशाँत को सुख कहाँ “ अशाँति दुर्भाग्य में तो यदा कदा ही होती है, इसका प्रकोप दुर्बुद्धि का कारण ही अधिक होता है। निर्धनता की तुलना में दुर्बुद्धि अधिक दुखदायी एवं दुष्परिणाम उत्पन्न करने वाली है।

कुछ लोग विलासिता में सुख देखते हैं। इन्द्रिय तृप्ति के लिए अपवाद की सीमा तोड़ने लगते हैं। इसका प्रतिफल यह होता है कि व्यक्ति खोखला हो जाता है। स्वास्थ, सौंदर्य, शौर्य पराक्रम सभी गवाँ बैठता है। न बुद्धि काम करती है न काया। ऐसे रोग घेर लेते हैं जो न मरने देते हैं और न जीने। कसक कराह में रोते चीखते दिन बीतते हैं। बौर अशाँति स्वयँ आमंत्रित उत्पादित की हुई होती है। जब तक बेढंगी चाल नहीं बदलती तब तक वह पीछा भी नहीं छोड़ती है।

यह परिस्थितिजन्य प्रत्यक्ष विपन्नताओं की चर्चा हुई। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी भी होती है जो सोचने का तरीका विकृत हो जाने के कारण उत्पन्न होती है। उनका वास्तविक कारण नगण्य जितना ही होता है। इसमें एक महत्वाकाँक्षा। लोग बड़े आदमी बनना चाहते हैं। अमीरों, विद्वानों या सिद्ध पुरुषों की पंक्ति में बैठना चाहते हैं। इसके लिए जितनी योग्यता श्रम शीलता अर्जित करनी चाहिए उसे करते नहीं। ओछे आधार अपना कर बड़प्पन हथियाना चाहते हैं। इस आधार पर आरंभ में कुछ कौतूहल खड़ा भी कर लिया जाय, पर वह देर तक नहीं टिकता। ढोल की पोल खुले बिना नहीं रहती। तब जो अयोग्यता के रहते बड़प्पन लूटने के लिए सरंजाम जुटाये गये थे वे उलटे उपहास तिरस्कार का कारण बनते हैं। मुखौटा बाँधकर रामलीला या नाट्य मंच पर प्रहसन तो किये जा सकते हैं, पर उन महत्वाकाँक्षाओं को पूरा नहीं किया जा सकता जो अध्यवसाय चाहती हैं और व्यक्तित्व की गहराई तक जड़ जमाये बिना स्थायी नहीं बनती। आतंकवाद का रौब दौब अधिक समय नहीं टिकता। टिके भी तो अपनी जान बचाने के लिए चूहे, खटमलों की तरह जहाँ तहाँ छिपते फिरना पड़ता है।

द्वेष, दुर्भाव, कुढ़न, खोज, आवेश, आक्रोश, अहंकार, आलस्य जैसे दुर्गुण भी ऐसे हैं जो उबल पड़ने के उपरान्त दूसरों की अपेक्षा अपने लिए अधिक हानिकारक सिद्ध होते हैं। जिन्हें चैन से रहना और रहने देना है, उन्हें इन दुर्बुद्धिजन्य दुर्गुणों से बचते ही रहना चाहिए।


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