जीव जन्तुओं को प्रायः निरीह नासमझ माना जाता और समझा जाता है कि उनका सहचार्य मनुष्य को मात्र विनोद मनोरंजन ही दे सकता है, पर यह संपूर्ण सत्य नहीं है कुछ जन्तु ऐसे भी होते हैं, जो जो सहकारी वृति के होते और मन बहलाव करने के अतिरिक्त मनुष्य की तरह तरह की सहायता करते हैं। यदि किसी कार्य विशेष के लिए प्रशिक्षण किया जा सके, तो वे उस क्षेत्र में और भी अधिक बढ़ी बढ़ी योग्यता का प्रदर्शन करते हैं। इन्हीं में से एक है - डाल्फिन मछली। ये मछलियाँ इतनी परोपकारी होती है कि जल क्रीड़ा अथवा स्नान के मध्य यदि किसी व्यक्ति का जीवन संकट में पड़ जाये, इसका पता डाल्फिनों को चल जाये, तो वे तुरन्त संकट ग्रस्त की सहायता के लिए प्रस्तुत होती देखी जाती है।
घटना सन् 1943 की है फ्लोरिडा के समुद्र तट पर एक दिन मार्था नामक एक महिला स्नान कर रही थी, वहाँ पर तट कुछ ढलवा था कमर तक जल में पहुंचकर जैसे ही डुबकी लगाने लगी, उसके पैर अचानक फिसल के कारण वह गिर पड़ी और सारा जल फेफड़ों में जाने के कारण वह बेहोश हो गयी। दुर्भाग्यवश आस पास कोई नहीं था, फलतः उसे किसी की सहायता नहीं मिल सकी। उसी समय वहाँ से एक व्यक्ति गुजर रहा था। उसने देखा कि समुद्री जल में एक मानव का शरीर डूबता उतराता शनैःशनैः तीर की ओर अग्रसर हो रहा है। उत्सुकतावश उसे देखने और उसकी विलक्षण गति का रहस्य जानने के लिए वह रुक गया। शरीर पूर्ववत् किनारे की ओर बढ़ता चला आ रहा था। जब वह व्यक्ति तट के अत्यंत समीप आया, तो देखा कि एक बड़ी डाल्फिन मछली उस मानव शरीर को अपनी पीठ पर लादे प्रयत्न पूर्वक समुद्रतल की ओर ला रही है। जब वह किनारे पर बिल्कुल छिछले जल में पहुँच गया, उस शरीर को वही छोड़ कर विशाल जल राशि में कही अदृश्य हो गयी। यात्री ने जब अपना निरिक्षण किया, तो उसे अपने जीवन के कुछ लक्षण दिखाई पड़े। वह उसे पानी से बाहर लाया और फेफड़ों में घुसे पानी को प्रयास पूर्वक निकालने लगा। इस क्रिया में मार्था की चेतना धीरे धीरे वापस लौट आई, तब उसने उस व्यक्ति से अपने डूबने की घटना सुनायी और अजनबी से उसे डाल्फिन द्वारा बचा लिये जाने का आँखों देखा विवरण बताया। इसे सुनकर मार्था ने अपने भाग्य को सराहा और घर चली गयी पर वह व्यक्ति जन्तु विज्ञान कामूर्धन्य प्रोफेसर डॉ. बी. एरलैण्डसन था। उनके मन में जब यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि डाल्फिन ने संयोग वश मार्था को बचाया अथवा अपनी सहयोगी प्रवृत्ति के कारण उसकी रक्षा की। इसे जानने के लिए उसने एक प्रयोग किया एक बड़े हौज में एक ऐसी अस्वस्थ मादा डाल्फिन को रखा, जिसे साँस लेने के लिए जल सतह तक आने में कठिनाई होती थी। उसकी मदद के लिए उसी में एक स्वस्थ और अपरिचित नर डाल्फिन को छोड़ा गया। नर मछली बार बार मादा को ऊपर उठा कर साँस लेने में सहयोग प्रदान कर रही थी। बाद में उसमें एक अन्य मादा डाल्फिन छोड़ी गयी। वह भी इस सेवा कार्य में जुट पड़ी। दोनों ने मिलकर 48 घण्टों तक अस्वस्थ मत्स्य की मदद की, तब कही जाकर वह योग्य हो सकी कि स्वयं जल सतह तक जा कर साँस ले सके। इस प्रयोग से डाल्फिन मछली की परोपकारी वृति असंदिग्ध साबित हो गयी और प्रोफेसर की यह दृढ़ धारणा बन गयी कि यह उसकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है।
एक अन्य घटना न्यूजीलैण्ड की है वहाँ के होकोआँगा बंदरगाह में सन् 1950 के दशक में एक मानव प्रेमी डाल्फिन जील एक तेरह वर्षीय बालिका से इतना हिल मिल गयी थी कि वह उसे दूर तक अपने ऊपर बैठाकर सैर करा लाती थी। प्रायः वह मात्र निकटवर्ती “ओमोपीयर “ तट तक होती। यही तक बंदरगाह ला हुआ था। इसके बाद वह जील को वापस लौटा लाती थी अपनी उक्त प्रवृत्ति के कारण स्थानीय लोगों में “ओमो “ नाम से लोकप्रिय हो गयी थी। इस घटना से वह इतनी प्रसिद्ध हुई कि न्यूजीलैण्ड में उसके संरक्षण के लिए एक कानून बनाया गया। इस कानून के बाद लोग उसके कौतुकों से अपना मनोरंजन तो करते, पर उसे छोड़ने की कोशिश नहीं करते। ओमो भी अपने कर्तव्यों द्वारा स्नान करने वालों का खूब दिल बहलाती। उनमें जैसे कही जील दिखाई पड़ती, वह तुरन्त उसके पास पहुँच कर उसे जल विहार के लिए ले जाती। एक ऐसे ही अवसर पर असावधानीवश जील उसकी पीठ से लुढ़क पड़ी और गहरे जल में डूबने उतराने लगी। ओमो को ज्यों ही यह ज्ञात हुआ, उसने तत्काल डुबकी लगाकर लड़की को अपने ऊपर बैठा लिया। शायद घटना कि गंभीरता का उसने कुछ अनुमान कर लिया था, अतः वह और आगे न बढ़कर बैरंग पीछे लौट पड़ी। तट पर जील को छोड़कर गहरे जल में विलुप्त हो गयी। उस दिन के बाद फिर उसके दर्शन न हुए। संभव हो उसे इस घटना का त्रास पहुँचा हो। ऐसे ही पेलोरस जैक नामक एक अन्य डाल्फिन 40 की शताब्दी में वहाँ चर्चा का विषय बनी रही। अनेक वर्षों तक यह मछली नाविकों का मनोरंजन करती रही। कई बार उन्हें पीठ पर बैठा कर समुद्र की यात्रा भी कराती। जब बूढ़ी हुई तो एक बार पेरेविन जलयान से टकराकर बुरी तरह घायल हो गया। बाद में इसी दुर्घटना के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। आज भी उसका चौदह फीट लम्बा कंकाल विलिंगटन के अजायबघर में रखा है। सन् 1971 में अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य में ण्लिसबरी परिवार के पास एक पालतू डाल्फिन थी वह परिवार वालों के साथ वाटर पोलो खेला करती थी। यदा कदा जब छोटे बच्चों की गेंद खेलते समय जब पानी में गिर पड़ती जो वह उसे उठाकर बाहर फेंक देती। बच्चों के साथ वह खूब अठखेलियाँ किया करती थी। एक बार एलिसबरी परिवार का एक बालक खेलते समय अचानक पानी में गिर पड़ और डूबने उतराने लगा। जब तक परिवार के लोग उसकी सहायता के लिए प्रस्तुत होते उससे पूर्व ही उस मछली ने उसे सुरक्षित बाहर कर दिया था।
कई बार डाल्फिनें छोटी मोटी शरारतें भी करती है। ऐसी ही एक मछली ब्रिटेन के आम्यल ऑफ मेन के पोर्ट एरिन बंदरगाह में थी। उसमें लोगों की सहायता और मनोरंजन करने की दोनों प्रवृत्तियां भी थी, पर एक तीसरा स्वभाव भी था कि वह नाविकों से छेड़छाड़ भी किया करती थी। “डोनाल्ड “ नामक डाल्फिन जब मस्ती में आती, वह नावों का लंगर खोल देती थी। यदा कदा वह उन्हें धकेलकर दूर समुद्र में ले जाती और वहाँ उछल उछल कर तट पर खड़े नाविकों को यह बतलाने की कोशिश करती कि वह उसी की शरारत है।
डाल्फिनों को यदि प्रशिक्षित किया जा सके अथवा सेवा सहायता उन्हें किसी प्रकार समझायी जा सके, तो उन कार्यों को भी वह दक्षता पूर्वक वे करती देखी जाती है। स्पेन के दक्षिण पश्चिम में “ ला -कोरोना “ के समुद्र तट पर डाल्फिनें मछुआरों को मछली पकड़ने में मदद करती दृष्टिगोचर होती है। यहाँ पर मछुआरों को जब मछलियाँ पकड़नी होती हैं तब वे पानी में पैरों के माध्यम से एक विशेष प्रकार की लहर व मुँह से विशिष्ट प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करते हैं इन संकेतों का अर्थ समझकर डाल्फिनें सहायता के लिए तत्काल प्रस्तुत होती है। उनका झुण्ड चारों ओर से मछलियों को घेर घेर कर उनकी ओर लाती है और मछुआरे उन्हें जाल फेंक कर फँसा लेते हैं। इस प्रकार मछली पकड़ने का कार्य अत्यंत सरल हो जाता है।
सेना में प्रतिरक्षा संबंधी कार्यों में कुत्तों, कबूतरों की मदद तो देखी सुनी जा रही हैं, पर यह कदाचित ही सुना गया है कि इस कार्य में मछलियाँ भी निष्णात् होंगी, किन्तु यह सत्य है कि इस क्षेत्र में जब डाल्फिनों की मदद ली जा रही है। जिसकी शुरुआत अमेरिका ने की है। प्रयोग के रूप में इस प्रकार के प्रशिक्षण का शुभारंभ सर्वप्रथम कैलीफोर्निया के चाइना लेक स्थित नेवल आर्डिनंन्स सेण्टर में किया गया।
वहाँ बारी बारी से तीन डाल्फिनों को प्रशिक्षित किया गया और बाद में खुले समुद्र में छोड़कर उनकी परीक्षा ली गयी यह जानने का प्रयास किया गया कि प्रशिक्षण के दौरान उन्हें जो सिखाया गया, वे उसे सचमुच सीख पाया या नहीं। परिणाम उत्साह वर्धक देखा गया। इस आरंभिक सफलता के उपरान्त यह प्रशिक्षण कार्य अमेरिका में अब कैलीफोर्निया के अतिरिक्त फ्लोरिडा एवं हवाई के दो अन्य नौसैनिक केंद्रों में चलाया जा रहा हैं। पिछले वर्षों में ऐसी प्रशिक्षित मछलियों ने फारस की खाड़ी में अमेरिकी जलपोतों की रक्षा कर अपनी महत्वपूर्ण। भूमिका का प्रमाण परिचय दिया है। ईरान ईराक युद्ध के कारण उक्त वर्ष जब इस क्षेत्र में तनाव बढ़ा और समुद्र में बारूदी सुरंगों का जाल बिछा, तो अमेरिकी नौसेना ने जहाजों की रक्षा के लिए डाल्फिनों की सहायता ली थी। तब कई प्रशिक्षित डाल्फिन खाड़ी में भेजी गयी थी, जो जल के भीतर छुपी सुरंगों का सही सही अनुसंधान कर उसकी सूचना जलयान में देती व संभाव्य दुर्घटना को टालने में मदद करती थी। आज अमेरिका के पास सौ से भी अधिक प्रशिक्षित मछलियाँ हैं, जो समय समय पर जल सेना को अपनी बहुमूल्य सेवा प्रदान करती रहती हैं।
संभवतः डाल्फिनों की इसी सेवा वृति ने महान अंग्रेज कथाकार शेक्सपियर को उन पर कथा सृजन की प्रेरणा दी। उनकी “ दि ट्वेल्व्स नाइट “ नामक कहानी में ऐसी ही परोपकारी मछलियों का वर्णन हैं जिन्होंने सरियन नामक एक यात्री को समुद्री दस्युओं द्वारा सागर में फेंक दिये जाने पर सुरक्षित ग्रीस तक पहुँचाकर उसकी प्राण रक्षा की थी। इस प्रकार डाल्फिनों की सहकारिता निश्चय ही सराहनीय है। विकास वादियों के अनुसार कशेरुकी मेरुदण्ड युक्त प्राणियों में मछलियाँ सबसे निम्न श्रेणी की है। उच्चकोटि में स्तनपाइयों को रखा गया है। उसमें भी मनुष्य को सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ व बुद्धिमान माना गया है डाल्फिन मछली है और अल्प विकसित है। वह मनुष्य की तुलना में अत्यंत अशक्त - असमर्थ है फिर भी अपनी सीमित क्षमता योग्यता का भरपूर उपयोग करती और सहकार वृत्ति का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करती है। मनुष्य उससे अनेक गुना विकसित ओर सामर्थ्यवान है। उसकी परोपकारिता भी अनेक गुना बढ़ी बढ़ी होनी चाहिए।