प्रतीकों के पीछे छिपे उद्देश्य

August 1993

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भारतीय संस्कृति में प्रतीक पूजा का प्रचलन है। मूर्तियों में, नदी, पर्वत, वृक्ष, पशु-पक्षियों में, यहाँ तक एक चूल्हे, चक्की, ऊखल, फसल जैसे उपकरणों की पूजा का प्रावधान है। स्थूल दृष्टि से हम सब जड़ पूजा का उपहासास्पद प्रयोग प्रतीत होता है। किन्तु वस्तुतः वैसा हैं नहीं। सूक्ष्म तक पहुँचने के लिए स्थूल तक का प्रयोग किया जा सकता है। सूक्ष्म जीवाणुओं और विषाणुओं को खुली आँखों से नहीं देख पाते हैं। तो इसलिए माइक्रोस्कोप का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य की भाव संवेदना अति सूक्ष्म होती है। उनकी स्मृति और जाग्रति के लिए उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। प्रतीक इसी की पूर्ति करते हैं। भाव संवेदनाओं के उभार एवं परिष्कार के लिए अध्यात्मवेत्ताओं ने इसे उचित एवं आवश्यक माना है।

ज्ञानवृद्धि के लिए पुस्तक की आवश्यकता पड़ती है। विचार अभिव्यक्ति के लिए लेखनी का उपयोग करना पड़ता है। विचार सूक्ष्म हैं इसकी कोई आकृति नहीं बन सकती, पर लेखनी से लिपि बद्ध करके उन्हें मूर्तिमान बना दिया जाता है। इन लिखे पृष्ठो को पढ़ने से उन्हीं भावों के साथ पाठक का संबंध स्थापित हो जाता है। जो लेखक के मन मस्तिष्क में थे इस प्रकार कागज पर लिखे अक्षर सर्वथा स्थूल होते हुए भी अभीष्ट चिंतन के आदान प्रदान का साधन बन जाते हैं। प्रतीक पूजा की प्रतीकवाद की उपयोगिता इस आधार पर सहज ही समझी जा सकती हैं

निराकार वादी भी कई प्रकार के प्रतीकों का उपयोग अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति के लिए करते हैं। ईसाइयों में क्रूस के चिन्ह का सम्मान है। मुसलमान काबा की तरफ मुंह करके नमाज पढ़ते हैं और हज जाकर संगे अवसाद का बोसा लेकर अपनी यात्रा को सफल मानते हैं। ताजिये निकालने और मस्जिद को खुदा का घर मानने की मान्यता भी प्रतीक पूजा कही जा सकती हैं राष्ट्रीय झण्डे का सम्मान और अभिवादन किया जाता है। बुद्धिवादी लोग भी अपने पूर्वजों के चित्र टाँगते और उनका सम्मान करते हैं। आर्यसमाजी और पारसी धर्मावलंबी अग्नि पूजा करते हैं। बच्चों को क - कबूतर और ख -खरगोश पढ़ाया जाता है साथ ही गिनती सिखाने के लिए बाल फ्रेम की गोलियों का प्रयोग होता है। किन्डर गार्टन पद्धति में लकड़ी के टुकड़े जोड़कर अक्षरों की शक्ल बनाने की विधि शिक्षण प्रक्रिया में सम्मिलित रखी गयी। इन्हें भी कहने वाले प्रतीक पूजा कह सकते हैं, पर इससे किसी को कोई हानि नहीं होती, और न प्रयोगकर्ताओं को उपहासास्पद ठहराया जाता है।

भारतीय धर्म संस्कृति के प्रतीक पूजा के माध्यम से उपयोगी उपकारी पदार्थों शक्तियों एवं व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है और उसमें जो श्रेष्ठता सन्निहित होती हैं, उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने एवं अपनाने का भाव है। यह सोचना व्यर्थ है कि प्रतीक पूजा वाले इतने मूर्ख हैं जो प्रतिमाओं को ही देवता या परमेश्वर मान लेते हैं मूर्ति खण्डन हो जाने पर उसे जल प्रवाह कर देते हैं। और उसके स्थान पर नयी प्रतिमा स्थापित करते हैं। नवरात्रि में देवी की भाद्रपद में गणेश की प्रतिमायें स्थापित की जाती है ओर धूम धाम के साथ किसी जलाशय में विसर्जित कर दी जाती है। यदि उन प्रतीकों को भगवान या देवता माना जाता तो उन्हें इस प्रकार प्रवाहित करने की धृष्टता करने की बात कोई सोच नहीं सकता था। हर कोई जानता है कि प्रतीक प्रतीक है। उनके माध्यम से भावनाओं को उभारने का प्रयोजन सिद्ध किया जाता है। वेद, कुरान, गीता, बाइबिल, जेन्दाबस्ता, गुरु ग्रंथ साहिब आदि ग्रंथों के प्रति हर धर्म में श्रद्धा सम्मान भरी अभिव्यक्ति होती है। यह छपे कागजों का नहीं, उनके ग्रंथों के लिखे विचारों का ही सम्मान है। भारतीय संस्कृति में प्रतीक पूजा को इसी दृष्टि से स्थान दिया गया हैं उसमें न तो उपहास की कोई बात हैं और न जड़ पूजा पर आक्षेप करने की। यह उत्कृष्ट चिंतन को दिशा देने की सरल, सुबोध और सर्वोपयोगी प्रक्रिया है। भारतीय तत्त्ववेत्ताओं का प्रतीकवाद की स्थापना में यही प्रयोजन रहा कि ब्राह्मीय चेतना में सन्निहित मानवी गरिमा को समुन्नत करने वाली सत्प्रवृत्तियों की महत्ता मनुष्य को समझायी जाय और उसके प्रति असीम श्रद्धा रखने के लिए कहा जाय। देव प्रतिमाएँ भावात्मक उत्कृष्टता की प्रतीक है। देवत्व की परिधि में जो भी गुण, धर्म, स्वभाव आते हैं। उन सभी को आकृतियाँ देकर कल्पनात्मक रहस्यवाद का परिचय दिया गया है। महामनीषियों के इस उद्देश्य को समझा जा सके तो ही हम देव मान्यता और प्रतीक पूजन का समुचित लाभ उठा सकते हैं।

प्रतीक वाद या देववाद का एक पक्ष हैं -दिव्य भावनाओं को आलंकारिक आकृतियाँ देकर उनके प्रति जन साधारण में अगाध आस्था उत्पन्न करना उनकी स्थापना अंतःकरण में करना और व्यवहार में उतारने की चेष्टा को प्रदीप्त करना देव आराधना के लिए किये जानें वाले उपचारों का उद्देश्य है। प्रतीक उपासना से प्रेरणा पाकर मनुष्य दिव्य गुण संपन्न बन सके, ऋषिगणों का यही उद्देश्य इस पुण्य प्रयोजन के पीछे रहा है।


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