मृत्यु को यदि हर क्षण याद रखा जाय तो पाप कर्मों से छुटकारा स्वतः ही मिल जाता है। संत एकनाथ की यही शिक्षा थी। एक बार एक साधक उनके पास पहुँचा। उनकी प्रशंसा और गुणगान करने लगा और अपने दुर्गुणों का प्रायश्चित पूछने लगा। संत एकनाथ ने उस साधक की बात सुनकर बड़े विनम्र शब्दों में कहा की आप मेरी चर्चा अधिक न करें। मुझे ऐसा आभास होता है कि मृत्यु आज से सात दिन पश्चात हो जायेगी। संतों की वाणी कभी मिथ्या नहीं हो सकती। घर पहुँचते पहुँचते वह साधक बीमार पड़ गया। 6 दिन इसी स्थिति में रहा। सातवें दिन संत एकनाथ उसके घर जा पहुँचें ॥ महाराज के दर्शन करते ही साधक भाव विभोर हो उठा। एकनाथ ने मुस्कुराते हुए कहा कि इन 6 दिनों में आप ने कितने पाप कर्म किये हैं? साधक ने उत्तर दिया कि कोई नहीं, क्योंकि मेरे ऊपर तो हर क्षण मरण रूपी शेर सवार रहा। जिसकी भय ग्रस्तता के परिणाम स्वरूप पापकर्मों का चिंतन मस्तिष्क में पनप नहीं पाया।
महाराजा भोग के इस सवाल पर सभासदों की अलग अलग राय थी कि सज्जनता बड़ी है या ईश्वर भक्ति। अनेकों दिन विचार मंथन चलता रहा परन्तु निर्णय के नाम पर शून्यता छाई रही।
कई दिन बीतने पर एक दिन महाराजा भोज वन भ्रमण के लिए निकलें। दुर्भाग्य से मार्ग में वन्य जातियों ने उन पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण के कारण उनका शेष सहयोगियों से संबंध टूट गया। वे घने जंगल में भटक गए जंगल में प्यास के कारण उनका दम घुटने लगा। लेकिन दूर दूर तक कहीं पानी दिखाई नहीं दे रहा था। किसी तरह वह एक साधु की पर्ण कुटी तक पहुँचे। साधु ध्यानस्थ थे। पहुँचते पहुँचते महाराज मूर्छित होकर गिर पड़े। गिरते गिरते उन्होंने पानी के लिए पुकार लगाई।
कुछ समय बाद मूर्छा टूटने पर वही संत उनका मुंह धो रहे हैं पंखा झल रहे हैं और पानी पिला रहे है। आश्चर्य चकित होकर राजा ने पूछा आपने मेरे लिए अपना ध्यान क्यों भंग किया? परमात्मा की इच्छा है कि उनके संसार में कोई दीन दुःखी न हों। उनकी इच्छा पूर्ति का महत्व अधिक हैं। सेवा और सज्जनता ईश्वर भक्ति का का ही श्रेष्ठतम रूप है। भोज को समाधान मिल चुका था।
तब भारत परतंत्रता की बेड़ियों से जकड़ा हुआ था। उन दिनों पंजाब भर में उर्दू और फारसी का जोर था, हिंदी की ओर किसी का ध्यान भी न था। हिंदी की उपेक्षा गो. गणेशदत्त जी से सही न गई और उन्होंने हिंदी प्रचार वृत लिया कि - वे नियमित रूप से लोगों को मातृभाषा हिंदी पढ़ायेंगे।
यह काम जितना बड़ा था, उतना ही कठिन भी, कोई पढ़ने को तैयार न होता था। निदान उन्होंने एक टूटा कनस्तर हाथ में लेकर लायलपुर के सारे शहर में स्वयँ यह मुनादी की कि जो भी भाई हिंदी पढ़ना चाहे निःशुल्क पढ़ाई जायेगी। मुश्किल से कुछ छात्र मिले तो उनको पढ़ाने के लिए जगह का प्रबंध न हुआ। इस पर उन्होंने एक खुले स्थान पर बैठकर मिट्टी के तेल की कुप्पी के प्रकाश में अपनी हिंदी की पाठशाला आरंभ की। उनकी यह पाठशाला कुछ ही समय पश्चात हाईस्कूल बन गयी। संकल्प के धनी गोस्वामी जी ने भारत विभाजन होने से पूर्व पंजाब में 60 डिग्री कॉलेज, 150 इण्टर कॉलेज, 100 कन्या पाठशालाएँ, 100 मिडिल स्कूल और 4 ब्रह्मचर्य आश्रम स्थापित किये। आज उनकी अनेकों शाखाएँ देश भर में विद्यादान कर रही है।