व्यक्तित्व विकास को सर्वोपरि महत्व देना होगा

August 1993

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स्रष्टा की महिमा इसलिए भूरि भूरि प्रशंसा के योग्य मानी जाती है कि उसमें व्यवस्था क्रम का आश्चर्यजनक सुनियोजन है। इसमें कमी या गड़बड़ी रहती, तो अनियंत्रित स्वेच्छाचार के कारण ग्रह गोलक आपस में टकराते और टूट फूट कर नष्ट हो ते रहते।

प्राणियों और वनस्पतियों के संबंध में भी यही बात है। वे इसलिए एक व्यवस्था के अनुरूप उगते, बढ़ते और सार गर्भित होते रहते हैं, यहाँ तक कि खुली आँखों से न दीख पड़ने वाले अणु परमाणु तक अपने छोटे कलेवर में विशाल सौर मण्डल जैसी गतिविधियों के अनुकरण का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है। यदि यह विशाल ब्रह्मांड व्यवस्था में कहीं भी असंतुलन रहा होता, तो यह समूचा पसारा कूड़े कबाड़े की तरह दीख पड़ता और उस अव्यवस्था के बीच टूट फूट का, अस्तव्यस्तता का परिचय मिलता रहता, किसी भी वस्तु को अपना काम कर सकना संभव हो जाता। स्रष्टा की अनेक महिमाओं में उनके सुनियोजन का कौशल नितान्त प्रत्यक्ष और सर्वत्र आश्चर्य भरा दीख पड़ता है। सृष्टि का सौंदर्य और उपयोग इसी व्यवस्था कौशल के आधार पर गतिशील हो रहा है।

शरीरों की संरचना ओर मनः संस्थान की बनावट में भी चकित करने वाला तालमेल देखा जाता है। जहाँ भी गड़बड़ी खड़ी हुई, वहाँ विग्रह विद्रोह खड़ा हो जाता है। और आधि व्याधियों का दौर लद पड़ता है। परिवार तंत्र जीवित प्राणियों का एक छोटा सा तंत्र है। यदि उसके सभी नियमोपनियम ठीक तरह पलते रहे, तो समझना चाहिए कि अपने छोटे घर घरौंदे के आँगन में स्वर्ग जैसा आनन्द मचलता इठलाता देखा जा सके गा। यदि परिपाटी व्यवहार, और क्रम व्यवस्था में अनियमितता घुस पड़े, तो समझना चाहिए कि वहाँ देवासुर संग्राम का उदय हुआ। एक दूसरे को संग खींचने का सिलसिला शुरू हुआ और वह समूचा परिकर नरक रूप में परिणीत हुआ। यह परस्पर विरोधी परिस्थितियों के उत्पन्न होने का एक मात्र कारण यह है कि व्यवस्था बुद्धि अपनी जगह पर से हट गई और मनमानी उच्छृंखलता से इसका स्थान ग्रहण कर लिया।

व्यवसाय पूरी तरह व्यवस्था बुद्धि की उपेक्षा करता है। उसमें गड़बड़ी रहे तो पड़ोसी जिस काम में अच्छा खासा लाभ उठाते हैं वहाँ लापरवाही और गैरजिम्मेदारी के बीच चलने वाले व्यवसाय घाटा उठाते और अंतः दिवालिया बनते देखे गये हैं। यही बात प्रगति के हर क्षेत्र पर लागू होती है। व्यवस्था की पल पल पर, पग पग पर आवश्यकता पड़ती हैं। उसमें जहाँ जितनी कमी या विदूषिता पाई गयी, वहाँ उतना ही असंतोष छाया मिलेगा। गड़बड़ियों का दोष साझेदार एक दूसरे पर मढ़ रहा है। कुल मिलाकर वह तंत्र लड़खड़ा जायेगा और उपहास, लाँछन, भर्त्सना का भाजन बनेगा।

जीवन क्रम में योजना बद्ध रीति से जी सकना अपने ढंग की अति महत्वपूर्ण कला कौशल हैं। जिन्हें यह आता है, वे गई गुजरी परिस्थितियों और कठिनाइयों के बीच रहते हुए भी प्रगति का मार्ग ढूँढ़ निकालते हैं और उस पर समझदारी के साथ चलते हुए उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचते हैं, जिसमें सफलता और प्रतिष्ठा का आनन्द भरा पूरा रहता है। बुद्धिमता की जाँच परख के अनेकों आधार हैं उनके आधार पर अपने अपने काम में सभी लोग सफलता पाते और लाभ उठाते हैं, किन्तु उन सभी संदर्भों में सबसे प्रमुख गिनी जाने योग्य विभूति सुव्यवस्था की ही है। जो इस संदर्भ में कुशल हैं, समझना चाहिए कि उसके लिए पग पग पर श्रेय प्राप्त करते चलना कुछ कठिन नहीं रह गया। इसके विपरीत जो जितना अस्त−व्यस्त, लापरवाह, गैर जिम्मेदार हैं, उसे उतना ही निकम्मा समझा जायेगा, भले ही उसके पास संपदा, शिक्षा सुन्दरता, जैसी विभूतियाँ कितनी ही क्यों न हों। अकेले सुव्यवस्था ही है, जो अनेक गुत्थियों को सुलझाती है और अवरोधों के भँवर से नाव को बाहर निकाल ले जाती है।

अधिकारी गणों में सभी की उपयोगिता और प्रतिभा है, किंतु यदि उन सब में सर्वोपरि दायित्व का पद देखा जाय, तो वह व्यवस्थापक का ही मिलेगा। सरकारी तंत्र में इसे मैनेजर, कण्ट्रोलर, सुपरवाइजर आदि नामों से जाना जाता है क्योंकि उसे ही समझदारी और नासमझी के आधार पर काम बनते बिगड़ते रहते है॥ जो मार्ग दर्शन कर सकता है, जिसमें किसी कार्य के साथ जुड़े अनेकानेक प्रश्नों को समय रहते समझ लेने की क्षमता हो, समझना चाहिए कि वही अपने उपक्रम का मेरुदण्ड हैं। ऐसे व्यक्ति जहाँ भी दायित्व संभालते हैं, वही सफलता के पर चाँद लगा देते हैं, साथियों की तुलना में दस कदम आगे ही रहते हैं। ऐसे ही लोगों को सेना का सेनापति और कारोबार का मैनेजर बनाया जाता है। यदि उनकी समझदारी अनुभवों पर सही आकलन कर सकने की क्षमता पर आधारित रही तो समझना चाहिए कि सफलता की आधी मंजिल पार हो गई। महत्वपूर्ण कार्य कर गुजरने वालों में से प्रत्येक को दूरदर्शिता, व्यवहार कुशलता और प्रबंध शक्ति का परिचय देना पड़ा है। इसके बिना भटकने, खीजने, घाटा उठाने और अपयश बटोरने के अतिरिक्त ओर कुछ हाथ नहीं आता। जिस भी सुसंचालन का सौभाग्य उपलब्ध नहीं हुआ, वह जिस प्रकार लंगड़ाते गिरते पड़ते चलता रहेगा। पर दबाव बढ़ जाने पर जो हाथ में हैं वह भी गंवा बैठेगा और सर्वसाधारण की दृष्टि में अयोग्य, अनाड़ी या उपहासास्पद ही बन कर रहेगा।

संस्थाएँ उसी आधार पर चलती है। कुशल संयोजन उन्हें उन्नति के शिखर पर पहुँचा देता है, जबकि अयोग्य के उस स्थान पर जा विराजने पर पतन का सिलसिला चल पड़ता है। और किये कराये को चौपट करके रख देता है। सद्गुणों में, यदि प्रमुखता देने योग्य किसी को गिना जाय तो प्रथम स्थान व्यवस्था बुद्धि को ही देना पड़ेगा।

वह विभिन्न प्राकृतिक लोगों को एक धागे में बाँध कर सफल होती हैं वही संकट की पूर्व सूचना देती है और साथ ही यह काम भी उसी का हैं कि समय रहते ऐसे उपाय खोजे, जिसमें आशंकाएँ निरस्त होती चलें, और सुसंभावना समय समय पर सामने आती रहै। सूत्र संचालन के कार्य व्यवस्था, बुद्धि वालों के हाथ जाकर ही श्रेय प्राप्त करते और दूसरों के लिए उदाहरण बनते हैं।

प्रश्न यह उठता है कि क्या हर किसी के लिए इस महान विभूति का संपादन करना संभव है? इसके उत्तर में एक ही बात कही जा सकती है। मानसिक संरचना की दृष्टि से प्रायः सभी मनुष्य समान स्थिति के होते हैं। जन्मजात रूप से विशेष प्रतिभा का चमत्कार तो जब कभी भी अपवाद रूप में देखा जाता है। प्रगति शीलता किसी भी स्तर की क्यों न हो, वह अपने ही लगन भरे प्रयत्नों से अर्जित करनी पड़ती है। जन्म से कोई डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर, इंजीनियर आदि की विशेषता साथ लिए पैदा नहीं होता। इन्हें अर्जित करने के लिए सिखाने वाले विद्यालयों में भर्ती होना और व्यवहारिक अनुभव सिखाने वाले मार्गदर्शक से तब तक अनुभव अर्जित करना पड़ता है, जब तक कि उस विषय में कुशलता उपलब्ध न कर ली जाय। इसमें सिखाने वालों का जितना श्रेय हैं, उससे अधिक सीखने वालों की दिलचस्पी, लगन और मेहनत का है। यदि ऐसा न होता तो एक ही विद्यालय के, एक ही शिक्षण क्रम के अंतर्गत रहने वाले छात्रों में से कुछ उत्तीर्ण और कुछ अनुत्तीर्ण क्यों हो जाते हैं, जो निर्धारित विषय की परिपूर्ण तैयारी में जुटे रहते हैं, नकल, टीप के आधार पर, धमकी रिश्वत आदि के सहारे जो किसी प्रकार उत्तीर्ण भी हो जाते हैं, उन्हें तब भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, जब सौंपे गये कार्य को ठीक तरह पूर्ण नहीं कर पाते और अनौचित्य के अपराध में पदोन्नति के दिशा में बढ़ ही नहीं पाते।

मस्तिष्क संरचना ऐसी है जिसे काम देने और उत्साह और साहस के आधार पर विकसित होने का अवसर दिया जाय, तो सीलन में पड़े रहने वाले चाकू की तरह उसकी धार मेथरी हो जाती है और जंग चढ़कर निकम्मे स्तर का बना देती है। इच्छा शक्ति की महिमा गाने वाले मनो वैज्ञानिक थकते नहीं। संकल्प को प्रगति का मूल भूत आधार माना गया है। दिलचस्पी लेने वाले संपर्क परिवार से ही इतना कुछ सीख लेते हैं, जितना कि उपेक्षा दृष्टि वाले हजार कोशिश करने पर भी नहीं सीख पाते।

संसार में असंख्यों व्यक्ति ऐसे हुए हैं। जिन्हें किसी प्रकार साँगोपाँग प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला, सहायता करने वालों का कोई सहयोग न बैठ सका, पर अपनी प्रबल उत्कंठा के बल पर उपलब्ध साधनों का टूटा फूटा आश्रय लेकर ही आगे बढ़ते रहै। उत्कंठा का चुम्बकत्व अभीष्ट स्तर का आकर्षण बनाये रहता है और जहाँ तहाँ से अपनी बिरादरी के बिखरे कणों को समेट बटोर कर अपने ज्ञान भण्डार को भर लेता है। वैज्ञानिक आविष्कारकों में से कितने ही ऐसे हुए है, जिनने अपनी लगन, मेहनत ओर दिलचस्पी के आधार पर अनेकों प्रयोगों को बार बार किया और अनेकों बार असफलताएँ प्राप्त करने के उपरान्त भी निराश न होने तथा सत्प्रयास करते करते अतंतः आविष्कार करने में सफलता पायी। जेल के एक कैदी से, परमपूज्य गुरुदेव को यह जानने का अवसर मिला कि उसने बचे हुए समय का उपयोग लोहे के तसले को सिलेट बनाकर केकड़ों से पेंसिल का काम लेते हुए साथियों में से जो कुछ जानते थे, वे उनसे पूछ पूछ कर अंग्रेजी पढ़ना लिखना सीख लिया। एक पुराना अखबार कहीं से हाथ लग जाने पर उसी से पाठ्य पुस्तक का प्रायोजन पूरा कर लिया। विदेश में दिन भर मजदूरी करने वाले श्रमिकों में से कितने ही होते हैं, जो रात्रि पाठशाला में दो घण्टे समय लगाते हुए धीरे धीरे इच्छित विषय के विद्वान पदवीधारी बन जाते हैं। कोई प्रयत्नशील प्रकृति का व्यक्ति यह शिकायत करते नहीं सुना गया कि उसे इसलिए पिछड़ना पड़ा कि परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थी। उदारचेताओं ने आगे बढ़कर उस पर अनुदान नहीं बरसायें। स्मरण रखने योग्य यह तथ्य है कि मनुष्य को परावलंबी स्तर का प्रकृति ने बनाया नहीं। उसके पास ऐसा व्यक्तित्व जन्मजात रूप से विद्यमान रहता है, जो यदि चाहे, तो अपने सामर्थ्य, साहस और श्रम के बलबूते ऐसे काम कर सकता है, जिनके संबंध में साधन संपन्नों को भी आश्चर्यचकित हो कर रह जाना पड़ता है। वर्ल्ड रिकार्ड की गिनीज बुक में ऐसे अनेकों उदाहरण अंकित हैं, जिनने सर्वदा विपरीत परिस्थितियों में भी अपने सीमित साधनों के सहारे चकित कर देने वाली सफलताएँ अर्जित कर दिखाई। छोटे से बड़े बनने वालों में से प्रायः प्रत्येक को ही अपनी प्रचण्ड इच्छा शक्ति के सहारे आगे बढ़ने का साहस उभारना पड़ा है। साहस ने शक्ति दी हैं और उसे सुनियोजित करके सामान्यों को असामान्य बनाने का अवसर मिला है।

प्रबंध कर लेने की क्षमता अर्जित कर लेना भी संभावित प्रगति क्रम से भिन्न नहीं है। सतर्कता पूर्वक ध्यान देने, बारीकी से समस्याओं को समझने और अवसर मिलते ही अभ्यास करने लगने से कितने ही व्यक्ति उन कामों को सफलता पूर्वक करने लगे, जिनके लिए वे आरंभ में नौकरी करते थे और परिश्रम के बदले सीमित पैसे प्राप्त करते थे। सभी जीवन भर मजदूरी करते रहे, पर जिन्होंने बारीकी से दृष्टि गड़ाई और सीखने की इच्छा शक्ति नियोजित की, उसकी क्षमता सहज ही बढ़ती चली गयी और एक दिन ऐसा आया कि वे उस रास्ते चलते सीखे हुए कार्य को कुशलता पूर्वक संपन्न करने में सक्षम हो गये। मजदूर स्तर के वे व्यक्ति फलता फूलता व्यवसाय चला सकने में सामर्थ्य हुए॥ पिछड़ेपन के साथ आजीवन लगे रहने वालों में से अधिकाँश ऐसे होते हैं, जो यथास्थिति में संतुष्ट रहते और आगे बढ़ने की उमंग को विकसित ही नहीं होने देते। प्रबंध शक्ति का विकास भी इसका अपवाद नहीं है। कोई यदि किसी संदर्भ में दिलचस्पी ही न ले उत्सुकता ही प्रकट न करे चिंतन मनन के तथ्य को प्रसुप्त स्थिति में ही पड़ा रहने दे, आस पास की परिस्थितियों पर नजर ही न डाले और उनसे कुछ अनुभव ही संचित न करें, तो मस्तिष्कीय क्षमता का विकास अपने आप कहाँ विकसित होने वाला है।

मनुष्यों में से अनेकों ऐसे होते हैं, जो देखने में चलते फिरते, काम करते और बोलते चालते दीखते हैं साधारणतया जागृत ही कहा जायेगा, पर वस्तुतः उनकी सूक्ष्म दृष्टि सोयी रहती है। वे घटनाओं को देखते तो हैं, पर उनके साथ जुड़े कारणों को समझने पर ध्यान नहीं देते। ऐसे लोग जिस तिस प्रकार जिंदगी के दिन ही पूरे कर पाते हैं। व्यक्तित्व का विकास न होने से सूक्ष्म दृष्टि का उभार न आने से वे नर वानरों की तरह पेट और प्रजनन के कोल्हू में ही पिलते रहते हैं, प्रगति उन्हें देखकर मुँह मोड़ लेती है।

ईद गिर्द के वातावरण का भी जनसाधारण पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। अनुकरण प्रिय प्रवृत्ति होने के कारण मनुष्य वही सीखता है, जो उसके समीपवर्ती वातावरण में होता देखा जाता हैं बच्चे परिवार में बोली जाने वाली भाषा को अनायास ही सीख लेते हैं और आचार विचार की वही शैली अपना लेते हैं, जो उनके निकटवर्ती लोगों द्वारा प्रयुक्त की जाती हैं। क्योंकि लम्बे समय से हम लोग सामन्तशाही के उत्पीड़न में रहते रहते न केवल आर्थिक सामाजिक त्रास सहते हैं, वरन् चिंतन और चरित्र की उत्कृष्टता भी गवा बैठते हैं और फूहड़पन की रीति नीति अपनाये रहने के अभ्यस्त हो गये है। ण्सा कुछ प्रकाश पुँज समीप में उगता नहीं, जो शालीनता ओर जागरुकता के समानान्तर शिक्षा देकर प्रगति शीलता अपनाने के लिए प्रेरित कर सकें। ऐसी दशा में ऐसी पुस्तकों का सहारा ना अनिवार्य हैं जो मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में आगे बढ़ा सके।

स्वाध्याय प्रयोजन के अतिरिक्त लोक शिक्षण की जो विधाएँ जहाँ उपलब्ध हैं वहाँ उनका प्रयोग करना चाहिए। लोगों को एकत्रित करने के लिए ऐसे आयोजन किये जा सकते हैं, जो चलती फिरती व्यक्तित्व विकास की आवश्यकता पूरी करती रह सकें। कुछ आयोजन परम्परागत रूप से भी संपन्न होते रहते हैं, जिनमें समुदाय अपनी मान्यताओं के अनुरूप स्वतः ही एकजुट हो स्थान विशेष पर अनायास ही पूर्व प्रचलन के अनुसार एकत्र होता रहता है। ऐसे अवसरों पर चूका नहीं जाना चाहिए ख्वरप् व्यक्तित्व विकास की अति महत्वपूर्ण आवश्यकता को पूरा कर सकने वाले लोक शिक्षण को चलाने के लिए नये सिरे से नया प्रयत्न करना चाहिए।


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