अंतरंग को परखें, बहिरंग से प्रभावित न हों

August 1993

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पैमाने गलत हों, मूल्याँकन को कसौटियाँ विकृत हों तो अन्याय स्वभाव बन जाता है। आज समाज में अन्याय, अनीति तथा भ्रष्टाचार को कुंठित व्यूह रचाना दिखाई पड़ती है, उन बहुत कुछ उत्तरदायित्व उन गलत मानदण्डों पर है जिसके आधार पर मनुष्य को तोला व नापा जाता है। जो उसके व्यक्तित्व के मूल्याँकन की कसौटी पर बने हुए हैं।

लोगों ने देखा कि कितनी विशाल कोठी है। सोने की तरह दमक रही है। खिड़की दरवाजे व रोशनदान रंगीन काँच से जड़े है। रेशमी परदे झिलमिला रहें है। मूनलाइट बल्ब जल रहा है। स्टीरियो डेक से गायन वादन के स्वर गूँज रहें है। आंखें चकाचौंध हो गयी, कान लालायित हो उठे, मन कह उठा साक्षात् स्वर्ग का निवास है। बड़ा भाग्यवान है इसका मालिक। कितना बड़ा आदमी है? लाखों, करोड़ों होंगे इसके पास। अनायास श्रद्धा जागी उस अनजान धनवान की और झुक गया। उसका बड़े आदमी के रूप में मूल्याँकन हो गया। वह चर्चा और प्रतिष्ठा का पात्र बन गया ओर कोई अवसर आने पर पूजा प्रतिष्ठा के रूप में उसका मूल्य व्यक्त कर दिया जाता है।

धन प्रतिष्ठा का विषय रहा है। इसलिए कि वह परिश्रम और पुरुषार्थ का साक्षी होता था। प्राचीन समय में जब धन को प्रतिष्ठा के विषय में स्थान दिया गया था, लोग यह कल्पना तक भी नहीं कर सकते थे कि इसका अर्जन पार्जन अनीति के मार्ग से भी किया जा सकता है। अनुचित तथा अनीति के पैसे और पैसे वाले लोग ऐसे डरते और घृणा किया करते थे जैसे विषैले सर्प से। कोई किसी का अन्न खाने, दान या सहायता लेने हजार प्रकार से सोच विचार किया करते थे। उसी की सेवा अथवा सहायता की जाती थी जिसका कमाई के विषय में यह विश्वास रहता था कि प्रत्यक्ष तो क्या परोक्ष रूप से इसका पैसा अन्याय अथवा अनीति से दूषित नहीं हुआ है। यदि इस प्रकार का संदेह भी हो जाता था तो समाज का बच्चा बच्चा लक्षाधिपति होने पर भी उस धनवान को नीची नजर से देखा करता था। जिससे उसकी धनाढ्यता ही उसके लिए काल फाँस की तरह दुःखदायिनी हो जाती थी।

समाज द्वारा कठोर मूल्यों से अनुशासित तब के धनवान अपने व्यापार और व्यवसाय में पराकाष्ठा तक पवित्र एवं सत्य परायण रहकर विशुद्ध परिश्रम एवं पुरुषार्थ से उस स्थिति तक पहुँचकर प्रतिष्ठा के पात्र बनते थे। साथ ही वह विशुद्धता भी तब तक मान्यता नहीं पाती थी जब तक उसका पवित्र धन पवित्र एवं पुनीत कामों में नहीं व्यय होता था। इस प्रकार आय व्यय दोनों से ही समान पवित्रता से तुलकर ही कोई धनवान धन के आधार पर उसी प्रकार समाज में मान्यता एवं श्रद्धा के भाजन बन पाते थे जैसे जन सेवा के अन्य कार्य करके कोई सत्पुरुष।

पहले जहाँ धन की मात्रा का कोई मूल्य नहीं था, मूल्य था उसकी आय व्यय की रीति नीति का, वहाँ आय व्यय की रीति नीति का तो कोई मूल्य नहीं रहा। धन की मात्रा को ही श्रेष्ठता का मापदण्ड मान लिया गया है। स्थिति बिल्कुल विपरीत हो गयी है, इसलिए इसका प्रभाव एवं परिणाम भी उलटा हो गया है।

लोगों ने कोठी, कार, एयरकन्डीशन, टी.वी., वी.सी.आर, आदि विलास और आमोद प्रमोद की चहल पहल देखी नहीं कि बड़ा आदमी मान लिया और मान सम्मान देना शुरू कर दिया। मान सम्मान जैसी बहुमूल्य चीज और श्रद्धा जैसी दुर्लभ वस्तु को जो कि त्याग, तपस्या, साधना, सेवा, श्रम और पुरुषार्थ के आधार पर इतनी सस्ती और आसानी से मिल सकती है तब क्या किसी ने भाँग खाई है कि वह प्रतिष्ठा पूर्ण जीवन जीने के लिए संयम और साधना करता फिरे। सेवा और त्याग का परिमाण देता घूमें। क्यों न किसी प्रकार से धन बटोर कर उसे प्राप्त किया जाये? जनता द्वारा धन के प्रभाव में आकर दी जाने वाली इस सस्ती सामाजिक प्रतिष्ठा ने लोकप्रियता के प्यासे लोगों को अंध आर्थिकता में डुबो दिया है।

यही नहीं के लोग किसी का धन वैभव देखकर ही प्रभावित हो जाते हैं और उसे प्रतिष्ठा पूर्वक नजर से देखने लगते हैं फिर चाहे उसका धन उसके अथवा समाज के किसी हित में आता हो या न आता हो। प्रतिष्ठा का स्तर इतना गिर गया है, सम्मान इतना सस्ता हो गया है कि जन सामान्य धन के संचय को ही नहीं अपव्यय को श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। नाच रंग में डूबा रहना, शराब खोरी और फैशन परस्ती में लगा रहना, बड़ी बड़ी दावतों और शहर में पैसा पानी की तरह बहाना तक लोगों के लिए श्रद्धास्पद बन गया है। लोग उसे उदार, बड़ा आदमी, शाह खर्च कह कर सम्मान करते और रास्ता देते हैं। जनता की इस सस्ती श्रद्धा और अस्तरीय मापदंड ने भी लोगों को अंध आर्थिकता बढ़ाने में बहुत कुछ योग दिया है।

हर विचारशील व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है कि वह किसी के वैभव विलास से प्रभावित होकर उसका मूल्याँकन करने से पहले यह अवश्य देख ले कि इस संपत्ति का आधार नीति रहा है या नहीं? उसे उसके सघन उपायों तथा युक्तियों की पवित्रता की खोज कर लेना आवश्यक है जिससे कि गलत कामों के त्रुटिपूर्ण मूल्याँकन का अपराध न हो जाय।

जब यह बात स्पष्ट दिखाई देती है कि अमुक व्यक्ति छल कपट, छीना झपटी, चोर गुजारी, मुनाफा खोरी और भ्रष्टाचार को आधार बनाकर कोठी पर कोठी बनाये जा रहा है, बैंक बैलेन्स और कारोबार बढ़ाता जा रहा है तब क्या उसे अधिकार है कि हम उसे यह सब कुछ दें? यदि हम दोनों में से कोई भी ऐसा करता है तो अनाधिकार चेष्टा करता है, समाज में अंध अर्थवाद को बढ़ावा देकर भ्रष्टाचार फैलाने में सहयोग देता है जो सामाजिक अपराध एवं आध्यात्मिक पाप है।

आज यदि लोग धनाढ्यता का मूल्याँकन करना छोड़कर साधनों और उसके उपायों पर ध्यान रखने लगे तो समाज में पैसों के लिए फैला हुआ भ्रष्टाचार बहुत कम हो सकता है। अनुचित साधनों के कारण यदि धनिकों का मूल्यांकन कम हो जाय उनका वह अन्याय उपार्जित वैभव घृणा एवं तिरस्कार का प्रसंग बन जाय तो निश्चय ही लोग आवश्यकता से अधिक धनवान बनने की लिप्सा छोड़कर सम्मान रक्षा के लिए कमाई के उचित एवं उपयुक्त उपाय अपनाने के लिए विवश हो जाय।

आर्थिक क्षेत्र की ही तरह धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में भी जनता के मूल्याँकन की कसौटी खोटी हो गयी।

जटी रखाये जिसे भी रंगे कपड़े पहने चंदन लगाये भस्म रमाये देख लिया उसी को महात्मा, संत व साधु समझ लिया और पूजा प्रसाद चढ़ाने लगे। सेवा करने और वरदान की आशा लगाने लगे। जिसकी भी धार्मिक शब्दावली में वाचालता करते सुन लिया। विद्वान, दार्शनिक, तत्ववेत्ता मान लिया। जिसे हाथ उठाये पैर गड़ाये शरीर तपाते पानी में खड़े सूर्य से आँख मिलाये देख लिया उसे ही सिद्ध चमत्कारी, मुक्त, वीतराग, गुणातीत, आदि न जाने क्या क्या समझकर पूजा प्रतिष्ठा करने लगे।

जनता की इस सस्ती श्रद्धा ने आध्यात्मिक क्षेत्र में रंगे स्यारों की बाढ़ लादी है। जब ढोंग आडम्बर तथा बहरूपियापन करके तपस्वियों तथा सिद्धों जैसी पूजा पाई जा सकती है स्थान पर बैठे बैठे पुजापा प्राप्त किया जा सकता है तब क्या जरूरत है त्याग तपस्या का असिधारा के सम्मान तीखा मार्ग अपनाया जाय।

पता नहीं श्रद्धा जैसी बहुमूल्य संपत्ति को लोग बिना परखे पहचाने ढोंगियों और आडम्बरियों पर क्यों लुटाते फिरते हैं? वे क्यों सोचने समझने की कोशिश नहीं करते कि अध्यात्म साधना और उनकी सिद्धियां यदि इतनी सरल और सस्ती होती तो प्राचीन ऋषि मुनि आत्म परिष्कार, चिंतन मनन, स्वाध्याय में अपना जीवन क्यों खपा देते?

आध्यात्मिक सिद्धियों के धनी क्या इस प्रकार गली गली पैसा और प्रतिष्ठा माँगते फिरते हैं। क्या यह शंका और संदेह का विषय नहीं है। कि जो दूसरों को धन वैभव संपत्ति, संतान का वरदान देने की क्षमता रखता है वह क्यों स्वयँ दरिद्र भिखारी तथा पैसे पैसे के लिए जान दे रहा है? क्या दूसरों को लाखों का वरदान देकर दस पैसा माँग ले जाने वाला सिद्ध हो सकता है। उसकी पूजा की जानी चाहिए? इस मान्यता में कौन सा तुक है यह बात समझ में नहीं आती।

अटपटे शब्दों का उच्चारण और विलक्षण क्रिया प्रतिक्रिया के साथ भूत भगाने वाले, रोग और दोष दूर करने वाले यदि पूजा प्रतिष्ठा के अधिकारी होते हैं तो क्या कारण है कि विचित्र और अनबूझ भाषा बोलने वाले और असंगत काम करने वाले पागल पूजा के अधिकारी नहीं है, ऐसा किस प्रकार कहा जा सकता है।

शब्द सुनकर भक्त हो जाने वाले और शब्द सुनकर ही विश्वास करने वाले की सर्वजनीय दुर्बलता समाज के नित्य नए वाक् वंचकों को जन्म देती और आगे बढ़ाती है। शब्द सुनकर ही किसी के प्रभाव में आ जाना वह प्रोत्साहन एवं प्रेरणा है। जिससे लोग व्यक्तिगत आचरण की उपेक्षा कर वाक्पटुता का अभ्यास करके सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठा पा लेते हैं जनता पर यदि महत्व का मापदण्ड होता तो निश्चय ही वाक् वञ्चकों की बुद्धि पर अंकुश लग जाता है और समाज परिणत प्रवृत्ति के धर्म ध्वजों तथा वञ्चकों से होने वाली हानियों से बच जाता और धार्मिकता ओर अध्यात्मिकता क्षेत्र में बढ़ रहे भ्रष्टाचार की बाढ़ पर रोक हो जाती है। किन्तु खेद है कि जनता की अंध श्रद्धा और अंधविश्वास और मूल्याँकन की खोटी कसौटी ही हित अनहित का निदर्शन नहीं करने देती।

यह बात बड़ी सीमा तक सत्य मानी जा सकती है कि यदि लोक जीवन में विवेक शीलता उभर सके और मूल्याँकन के विषय में अपनी श्रद्धा एवं प्रतिष्ठा का मापदण्ड ठीक करके सही कसौटी काम में लायी जाए तो जीवन के व्यापक दायरे में भ्रष्टता बहुत हद तक दूर हो सकती है। अर्थ और धर्म के क्षेत्र में देखने, परखने, मूल्यांकन करने का सही मापदण्ड साधन और सच्ची कसौटी व्यक्ति के कथन तथा आचरण की एकरूपता ही है। जिस दिन लोक मानस इस तथ्य को हृदयंगम कर तटस्थ आचरण पर उतारू हो जायेगा। उसी दिन सुधार शुभारंभ सुनिश्चित है।


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