अपने भाग्य व भविष्य का निर्माता मनुष्य स्वयँ

August 1993

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मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है। निज का उत्थान पतन उसके बस की बात है। यह तथ्य जितना सत्य है उतना ही यह भी सही है कि वातावरण का प्रभाव अपने ऊपर भी पड़ता है और अपने व्यक्तित्व से परिवार एवं समाज का वातावरण भी प्रभावित होता है। बुरे वातावरण में रहकर कदाचित ही कोई अपनी विशिष्टता बना सका हो। साथ ही यह भी सच है कि वातावरण का प्रभाव भी पड़े बिना नहीं रहता।

अधिक लोगों के समर्थ लोगों के क्रिया-कलाप ही वातावरण बनाते हैं बहुसंख्यक होने पर और एक प्रकार की गतिविधियां क्रिया-कलाप ही वातावरण बनाते हैं बहुसंख्यक होने पर और एक प्रकार की गतिविधियां अपना लेने पर दुर्बल स्थिति के लोग भी अपना एक विशेष प्रकार का माहौल बना लेते हैं। व्यसनी अनाचारियों का समुदाय भी ऐसा प्रभाव उत्पन्न करता है जिससे जिससे सामान्य स्तर के लोग प्रभावित होने लगे। इसलिए अच्छे वातावरण में रहना और बुरे वातावरण से बचना भी उसी प्रकार आवश्यक है जैसे स्वच्छ हवा में रहने वाले और दुर्गन्ध से बचने का प्रयास किया जाता है। वह कहानी प्रसिद्ध हैं जिसमें एक ही घोंसले से पकड़े गये दो तोते के बच्चे दो भिन्न प्रकार के व्यवसाय वालों ने पाले। वे वहाँ की स्थिति के अनुसार ही बोलना सीख गये। सन्त के यहाँ वाला तोता ‘सीताराम “राधेश्याम ‘ कहता और चोर के यहाँ वाला तोता लूट खसोट भरी बातों की रट लगाता था। क्योंकि उन्हें यही दिन भर सुनने को मिलता था। मनुष्य के संबंध में भी यही बात है वह जैसे लोगों के साथ रहता है जैसी परिस्थितियों में रहता, जो कुछ समीपवर्ती लोगों को करते देखता है इसी के अनुरूप अपना स्वभाव भी ढाल लेता है। वह बंदर की तरह अनुकरण प्रिय जो है।

ऐसा भी देखा गया है कि मनस्वी लोग अपनी आदर्शवादिता पर सुदृढ़ रहकर अनेकों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। कितनों को ही अनुकरण की प्रेरणा देते हैं। अपने औचित्य के कारण उस मार्ग पर चलने के लिए लोगों को आकर्षित करते हैं। आवश्यक नहीं कि वह मार्ग परम्परागत या सरल ही हो। नवीन विचार भी अपने औचित्य के कारण प्रतिभाशाली लोगों द्वारा अपनाये जानें पर एक मार्ग बन जाता है। सर्वसाधारण की तो परम्पराएँ ही सब कुछ प्रतीत होती है। पर विचारवान लोग औचित्य को देखते परखते हैं। उसे ही चुनते अपनाते हैं। काँच के मोती गरीब लोग भी खरीदते पहनते हैं। पर असली बहुमूल्य मोतियों का कोई परखी खरीददार न हो से ऐसी बात भी नहीं हैं। बुद्ध और गाँधी का मार्ग सर्वथा नया था पर उनके प्रामाणिक व्यक्तित्व और औचित्य भरे प्रतिपादन का परिणाम था कि असंख्यकों व्यक्ति उनके अनुयायी बनें और एक नवीन वातावरण बना देने में सफल हुए। पर ऐसा होता तभी है जब प्रतिभावान अग्रगामी बनकर किसी उपयुक्त मार्ग को अपनाएँ और अपनी बात को तर्क, तथ्य, प्रमाण उदाहरण समेत समझाएँ। स्वयं उस मार्ग पर सुदृढ़ रहकर अन्यायों में मनोबल उत्पन्न करें।

यह सही है कि मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है। उसके पास समझने -सोचने की शक्ति है। दैनिक व्यवसाय वह इसी आधार पर चलता है। इतने पर भी वह परोक्ष रूप से प्रथा-परम्पराओं के अनुरूप अपने को भी उसी ढर्रे पर चलाता है जिस पर समीपवर्ती लोग चलते हैं। इसी को वातावरण कहते हैं यह बुरा भी होता है और भला भी। जिस भी प्रवाह में बहनें लगा जाय अपना व्यक्तित्व या स्तर भी प्रायः उसी ढाँचे में ढल जाता है। वातावरण बनाने वाले तो कोई विरले ही होते हैं। अधिकाँश ऐसे पाये जाते हैं जो प्रवाह में बहते हैं। और जो कुछ हो रहा है उसकी का अनुगमन करने लगते हैं। परिणति तो क्रिया के अनुरूप ही होती है। मूढ़ मान्यताओं और अवाँछनीयताओं के प्रवाह में बहकर मनुष्य ऐसी स्थिति में जा पहुँचता है जिसमें व्यस्त होने का उसका अपना कोई पूर्व निश्चय नहीं था। इसलिए जहाँ तक अपने भविष्य निर्माण का संबंध है। वहाँ अपने पुरुषार्थ और दिशा का निर्धारण का भी महत्व है। वहाँ यह भी कम प्रभावशाली तथ्य नहीं है कि किस समुदाय के साथ चल पड़ने का अवसर मिला है?किन लोगों की गतिविधियाँ उसे किस सीमा तक प्रभावित करती रहीं?

अपना समाज ऐसे लोगों से भरा है जिसमें भले लोगों की तरह बुरे भी भरे पड़े है। जहाँ आदर्शवादिता और सेवा भावना के अनेकों उदाहरण देखें जाते हैं। वहाँ दुर्व्यसनी, अपराधी और अनगढ़ स्तर के लोगों की भी कमी नहीं। दो प्रवृत्तियाँ पास-पास भी रहती है और घुली मिली रहती हैं। इसलिए वातावरण के बीच भी यह पाया जाता है कि दूरदर्शी विवेकवान अपनी रुचि के अनुरूप चयन कर लेते हैं। जिनका मनोबल या स्वतंत्र चिंतन काम नहीं करता, वे ही हवा के झोंके के साथ उड़ने वाले तिनके पत्ते का उदाहरण बनते हैं। सामान्यजनों को वातावरण ही घसीट-घसीटे फिरता है और उस प्रभाव से प्रभावित होकर वे अनिच्छित भवितव्यता के चंगुल में फंसते हैं। इसलिए वातावरण की प्रबलता को स्वीकार करते हुए भी यह मानना पड़ता है कि मानवी विवेक और मनोबल सर्वोपरि है। वह वातावरण के प्रभाव को ग्रहण तो करता है पर यह भी संभव है कि वह उसे अस्वीकार कर दे और जो उचित है उसे करे। यह स्वतंत्र चिंतन ही वस्तुतः भाग्य का निर्माता है अन्यथा जिस नियति को सामान्य जनों द्वारा अपनाया जाता है वही अपने गले भी बँधती है।

प्रथा परम्पराओं में से अधिकाँश आज की परिस्थितियों के अनुरूप नहीं रहीं भले ही वे किसी जमाने में अपने समय के अनुरूप भूमिका निभाती रहीं हों। समय गतिशील है। वह आगे बढ़ता है, पीछे नहीं लौटता। चरण सदा आगे बढ़ते हैं। यदि कोई पीछे की तरफ उलटी गति से चलना आरंभ करे तो विचित्र लगेगा। धीमे चलेगा। काँटे चुभने जैसे संकट में भी फँसेगा। फिर वापस लौटने वापस लौटने से हाथ भी क्या लगेगा? उसमें समय की बरबादी ही पल्ले पड़ेगी। आदिम काल में लोग जिस रहन सहन को अपनाने के लिए विवश थे वह उस समय की सही सूझबूझ हो सकती थी। पर अब न हम गुफाओं में घर बनाकर रह सकते हैं और न पत्ते लपेटकर ऋतु प्रभाव से बच सकते हैं। निर्वाह के लिए चिर पूर्वज जिन साधनों पर निर्भर थे उन्हें इस प्रगतिशील युग में कोई भी अपनाने के लिए तैयार न होगा। फिर भी फिर भी हम पुरातन की दुहाई देते हैं। और उन्हीं प्रचलनों की सराहना करते हैं जो कभी परिस्थितिवश अपनाए जाते हैं।

जिस प्रकार जराजीर्ण मनुष्य की आँखों में मोतियाबिन्द का परदा चढ़ जाता है और धुँधला दिखाई देता है उसी प्रकार पुरातन काल के प्रचलन आज की स्थित में अंध परम्परा या मूढ़ विश्वास भी बन सकते हैं। अस्तु पुरातन प्रचलनों को अपनाने का आग्रह करके हम अंधविश्वासी या दुराग्रही कहलाने का जोखिम सहन नहीं कर सकते। साथ ही यह भी सत्य है कि आ ज जो कुछ हो रहा है, जो बहुमत द्वारा अपनाया जा रहा है उसे भी यथावत् स्वीकार नहीं किया जा सकता। नशेबाजी जैसे कुप्रचलनों की इन दिनों भी कमी नहीं दूसरों की देखा-देखी उन्हीं व्यसनों को अपना लिया जाय तो इससे हित साधन न होगा। अपने भाग्य के निर्माता आप बनने के लिए हमें न प्रचलनों पर निर्भर रहना चाहिए और न हवा के झोंकों के साथ उड़ना चाहिए। अपना रास्ता आप ही चुनना चाहिए। चुनाव इसलिए करना पड़ता है कि एक ही जंक्शन से अनेक दिशाओं में गाड़ियां आती जाती हैं। स्टेशन पर उनकी पटरियाँ पास-पास होती हैं। पर कुछ ही आगे अनेक मोड़ होते हैं जिन पर तनिक सा हटते ही दिशा बदल जाती है और रेलगाड़ियों के गन्तव्य में सैकड़ों मील का अंतर पड़ जाता है। यदि पास पास स्टेशन पर खड़ी गाड़ियों में से बिना अपने अभीष्ट का चुनाव किये किसी भी डिब्बे में जा बैठें तो फिर कहीं भी पहुँचा जा सकता है। भाग्य निर्माण के लिए अपने चिंतन और चरित्र का स्तर ऊँचा उठाना पड़ता है। उन लोगों से बचना पड़ता है जो कुमार्ग अपना चुके हैं और किसी गर्त में गिरने जा रहें हैं। उचित और अनुचित भले और बुरे में जो अपने को अभीष्ट हो पहचानना और अपनाना होगा। ’मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। ‘इस कथन का अभिप्राय यह भी है कि अच्छे की तरह बुरा भविष्य भी बनाया जा सकता है। इसके लिए इच्छा या कल्पना करना मात्र ही पर्याप्त नहीं मार्ग निर्धारण करने से लेकर कार्य का निर्धारण और उसमें जुट जानें का साहस भी स्वयं ही करना होगा। जो इतना कर गुजरते हैं। उनके लिए यह तथ्य मूर्तिमान होकर प्रकट होता है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।

संसार में ऐसे अनेकानेक उदाहरण मौजूद है जिनमें कितने ही लोग ऊँचे उठे, आगे बढ़े और महामानव स्तर तक जा पहुँचे हैं। इसके विपरीत ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं है कि साधन और सुविधा हो ते हुए भी उनका सदुपयोग न कर सके। कुमार्ग पर चले। बुरे लोगों के साथ रहे। बुरे वातावरण में एवं फिर ऐसी परिस्थितियों में फँसे जिनका अंत खेदजनक एवं तिरस्कार भरा ही हुआ। दोनों में से किसका चयन किया जाय वह अपनी विवेक -बुद्धि के ऊपर अवलंबित है।

परमेश्वर की इस सृष्टि में हर प्रकार के अवसर मौजूद हैं। यहाँ पैरों में चुभने वाले काँटे भी बहुत हैं और सुषमा से भरे फूलों की भी कमी नहीं हम किनके निकट पहुँचे है निर्णय करने का संकल्प प्रयास और अधिकार पूरी तरह अपने हाथ हैं माना कि बुराइयां बहुत हैं। लोगों का भी बाहुल्य है पर उनमें से इतनी शक्ति किसी में भी नहीं कि जो इच्छा के विपरीत किसी को अपनी ओर खींच सके ओर बलात् बाधित या विवश कर सके। किसी के आमंत्रण को स्वीकार करना न करना अपने मन की बात है। परिस्थितियाँ लदती किसी के ऊपर भी नहीं उन्हें बुलाने और स्वीकार करने में अपनी ही प्रत्यक्ष या परोक्ष सहमति होती है। जिस दिशा में कदम बढ़ाते हैं उस गंतव्य तक देर सवेर में पहुँचा ही जाता है। जिसको अस्वीकार कर दिया जाता है वह खींच तान भले ही करता रहे पर यह संभव नहीं कि साहस पूर्वक विरोध करने वाले को कोई दबा या झुका सके।

कई व्यक्ति इस तलाश में रहते हैं। कि कोई दूसरा कंधे पर बिठाकर इच्छित स्थान तक पहुँचा दे। यह कठिन है। नदी पार करने में नाव का सहारा सहायक होता है पर साथ ही यह भी ठीक है कि घर से चलकर नाव तक पहुंचने का परिश्रम स्वयं ही करना पड़ेगा। समय पड़ने पर छोटे बच्चों या अपंगों को कंधे पर बिठाया, पीठ पर लादा भी जाता है पर यह सुविधा कुछ देर तक पाई जाती है। ऐसा नहीं हो सकता कि जिंदगी पूरी तरह दूसरों के सहारे ही चल जाये। सहायकों की सराहना की जा सकती है। पर यह नहीं हो सकता कि पूरी उन्हीं की कृपा पर निर्भर रहा जा सके। कोई भोजन भरी थाली परोस दे तो भी ग्रास को तोड़ने, चबाने का काम स्वयं ही करना पड़ेगा। पचावेगा उसे अपना पेट ही। दूसरों के खाए पचाए भोजन से अपनी आवश्यकता पूरी नहीं की जा सकती। मनुष्य जिस दिशा में जिस मार्ग पर आगे बढ़ता है उस पर आगे चलने वाले पथिक, साथी सहयोगी बनते रहते हैं।

वस्तुतः हम अपने संकल्प एवं व्यक्तित्व को एक शक्तिशाली चुम्बक की तरह प्रयुक्त करते हैं। अपने स्तर के लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष आमंत्रण द्वारा अपने निकट खींच बुलाते हैं। भले और बुरे सर्वत्र मौजूद हैं। उनमें से किन्हें चुनें किनके साथ घनिष्ठता बनाएँ यह पूरी तरह अपनी मर्जी पर अवलंबित हैं।

किसी को भी यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारी प्रगति या अवगति के लिए दूसरे उत्तरदायी है। किसी को भी यह नहीं कहना चाहिए कि हमें परिस्थितियों से, व्यक्तियों से, विवश होकर यह करना पड़ा। वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है। पर वह इतना प्रबल नहीं है कि साहसी को बाधित कर सके। आदर्शों को तोड़ने मोड़ने में समर्थ हो सके। अंततः यह निष्कर्ष अपनी यथार्थता सिद्ध करता है कि मनुष्य अपने भाग्य और भविष्य का निर्माता है।


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