जीवन क्या है?

June 1991

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जीवन समय के घटकों से मिलकर बना हुआ एक शृंखला समुच्चय है। इसका एक-एक दाना हीरक हार की मणि मुक्ताओं के समतुल्य है, वरन् उससे भी अधिक मूल्यवान। खोये हुए मणि-मुक्ताओं को प्रयत्नपूर्वक दूसरी बार भी पाया जाता सकता है, पर जो समय चला गया समझना चाहिए कि वह अनन्त के गर्त में विलीन हो गया। उसे फिर से प्राप्त कर लेने की कोई आशा संभावना नहीं है।

नदी के प्रवाह में दुबारा नहीं नहाया जा सकता है। जब तक दूसरी बार डुबकी लगाने की तैयारी करेंगे, तब तक पहले वाला पानी न जाने कहाँ से कहाँ बहकर जा चुका होगा। समझदार लोग समय का मूल्य समझते हैं और उसे योजनाबद्ध रूप से इस प्रकार खर्च करते हैं जिससे उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग बन पड़े। जो भी भली बुरी उपलब्धियाँ हस्तगत की जाती हैं। वे सभी समय की कीमत पर खरीदी गयी होती हैं। मिनट, सेकेण्ड, घण्टे यह एक प्रकार के छोटे सिक्के हैं, जिनमें से प्रत्येक का अपना मूल्य है। उन सबको एकत्रित कर लिया जाय तो उस समन्वय से जीवन का विशालकाय पर्वत जैसा परिकर बनकर खड़ा होता है। यह दर्शनीय भी है और सौभाग्य जैसा प्रशंसनीय भी।

कुछ मूर्ख ऐसे भी होते हैं जो अपनी कीमती चीजों को बारबार करने में मजा लेते हैं। फुलझड़ी जलाना ऐसा ही खेल है जिसमें चिनगारियों की चमक तो दीखते बनती है पर उथले मनोरंजन के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। कभी-कभी तो वे चिनगारियाँ उड़कर कपड़ों पर जा पड़ती हैं और अग्निकाण्ड खड़ा कर देती हैं। इसे कहते हैं पैसा खर्च करके उपद्रव मोल लेना। ठीक इसी प्रकार एक भौंड़ा मनोरंजन है समय की बरबादी। कितने ही आलसी-प्रमादी आवारागर्दी में अपना समय बिगाड़ते रहते हैं। कहते हैं आराम फरमा रहे हैं। मौज मस्ती कर रहे हैं। जब नौकर चाकर, परिवार वाले काम करने के लिए मौजूद हैं तो हम क्यों खटें? क्यों अपने हाथ घिसें? क्यों पैरों को कष्ट दें?

समय को बिताना ही, ठहरा-काटना ही प्रयोजन रहा, तो उसे दुर्व्यसनों में भी खपाया जा सकता है। स्वयं खाली बैठें हों तो गपबाजी के लिए और कोई अपने जैसा ठलुआ ढूँढ़ा जा सकता है। ताश, चौपड़, शतरंज जैसे कितने ही खेल खिलवाड़ हैं जिनमें मन भी लगा रहता है और समय भी कटता रहता है। किन्तु इसका परिणाम यह होता है कि जहाँ निम्नस्तरीय आदतें पड़ जाती हैं वहाँ उस बहुमूल्य समय की बरबादी भी होती रहती है जिसके बदले में बहुत कुछ पाया कमाया जा सकता है।

अनुकरणीय, आदरणीय महामानवों ने अपने जीवन में ऐसे उदाहरण छोड़े हैं जिन्हें पढ़ने-सुनने भर से अनेकों को प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं। मन हुलसता है कि इसी रीति-नीति को अपना कर हम स्वयं भी क्यों प्रगतिशील जीवन न बिता सकें?


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