शक्ति पीठों के बनने का सिलसिला चालू हो गया था। गुजरात में जूनागढ़ के एक कर्मठ कार्यकर्ता को लगन थी कि अपने में विलक्षण माँ गायत्री की एक पीठ उस गिरनार की पहाड़ी की गोद में बने, जहाँ माँ अम्बा का भी मंदिर था। एक दिन उधर से घूमते हुए जा रहे थे कि एक स्थान को देखते ही अनुभूति हुई मानों स्वयं परमपूज्य गुरुदेव कह रहे हैं कि इसे यहीं स्थान उपयुक्त है। इसे ले लो। पता लगाया यह जमीन जंगल वालों की है व नहीं मिलेगी। वे धुन पर लगे रहे। उसी स्थान पर एक गायत्री महापुरश्चरण आरंभ कर दिया। घनघोर जगत य हिंसक जन्तु किन्तु भय तनिक सा भी नहीं। अनुष्ठान अवधि में ही ज्ञात हुआ कि एक संशोधन के तहत वह भूमि मिल सकती है। भूमि ले ली जाती पर पैसे थे नहीं। उसी दिन पुनः ध्यान लगाया तो पूज्यवर ने प्रेरणा दी कि आज ही राशि मिल जायेगी। पूर्वी अफ्रीका वासी एक करोड़पति उनके पास उस दिन मध्याह्न पहुँचा व उन्हें एक कोरा चेक देकर बोला कि जितना पैसा चाहिए ले लो। उनने उतनी ही राशि लिखी जितने की भूमि थी व आवश्यकता थी।
जमीन लेने के बाद भवन बनना आरंभ हुआ। कर्ज लेकर भी निर्माण होते ही प्राण प्रतिष्ठ हेतु पूज्यवर के पास दौड़े आ पहुँचे। पूज्यवर ने कहा “तुम्हारे यहाँ अवश्य आयेंगे।” पूज्य गुरुदेव के प्रवास चक्र में (1981-82) जूनागढ़ परिजन से पूछा कि कितना ऋण तुम पर है। उनने न कुछ कहा न उसके बाद सामने आए। पूज्यवर ने कहीं भी सार्वजनिक प्रणाम का क्रम नहीं रखा था पर वहाँ वे बैठ गए श्रद्धा स्वरूप चढ़ाई गयी राशि ठीक उतनी थी, न एक पैसे कम न ज्यादा जितना कि उन सज्जन पर कर्ज था। महासत्ता कर्ज उतारने स्वयं भक्त के आग्रह पर जा पहुँची थी। अब वह शक्ति पीठ ऐतिहासिक पीठों में से एक है।
परमपूज्य गुरुदेव लीला प्रसंग : 3