प्राणरक्षक संजीवनी-जिनकी सिद्ध थी!

June 1991

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“आपकी भावनाएँ हमें पुलकित कर देती हैं। माताजी ने पत्र पढ़ा तो आँखों में आँसू भर लाई। भगवान को किसी ने देखा नहीं और न उनके स्थान आदि का कुछ पता है। फिर भी भावना के वशीभूत वह मदारी के बन्दर की तरह भक्त के इशारे पर नाचता रहता है और सामने आ खड़ा होता है। हम भी आपसे कभी विलग न होंगे। चमड़ी का पिंजड़ा यदि दूर रहे तो भी कुछ बनता बिगड़ता नहीं। हमारी आत्मा को आप सदा अपने ऊपर मंडराती अनुभव करेंगे।” 18 मार्च 1970 को परम पूज्य गुरुदेव द्वारा एक परिजन को लिखे पत्र की ये पंक्तियाँ बताती हैं कि कितने सशक्त सघन आत्मीयता के सूत्रों में बाँधकर उनने गायत्री परिवार रूपी विशाल संगठन खड़ा किया। भाव संवेदना शब्दों में से निर्झरिणी की तरह प्रवाहित हो रही हो, ऐसा उनका संदेश होता। अगणित व्यक्तियों तक यह भावना की गंगोत्री विगत पचास वर्षों में लेखनी व वाणी के माध्यम से बही व उसमें स्नान कर सभी धन्य हो गए।

सुनिश्चित आश्वासन देते हुये वे एक परिजन को लिखते हैं “हमारे जीवित रहते व उसके बाद भी हमसे जुड़े होने के कारण आपको कुछ भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। पत्र द्वारा ही नहीं आत्मा से आत्मा की प्रेरणा द्वारा भी हमारी शिक्षा आप तक बराबर पहुँचती रहेगी” 31-12-63 को लिखा यह पत्र साक्षी है एक ऐसे मनस्वी का जो अपने शिष्य का पूरा दायित्व अपने कंधों पर लेते हुए कहता है “मामेकं शरणं व्रज”। जिस किसी से भी पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने नाता जोड़ा उस तक अनुदान निरन्तर पहुंचते रहे।

शारीरिक कष्ट से लेकर आत्मबल की कमी जैसे व्यवधान सभी के रोजमर्रा के जीवन में आते हैं। सतत् उनका समाधान होता रहा। पत्र जब भी आता था, ऐसी प्रेरणा की संजीवनी से ही भरा होता था। 18-10-1943 को उनके द्वारा एक वरिष्ठ गायत्री परिजन को लिखे पत्र से उद्धत कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं “आप उलझन और कठिनाइयों में भी धैर्य को पकड़े रहें। दिन नहीं रहा तो रात भी न रहेगी। ईश्वर सब मंगल करेंगे। अमंगल में भी मंगल की भावना करने से मन को एक अद्भुत शान्ति प्राप्त होती है। आप सदा प्रसन्न रहिए और ईश्वर को स्मरण रखिए। “इसी प्रकार एक अन्य परिजन को जो पत्र उनने 20 मई 1961 को लिखा, की पंक्तियाँ हैं-” हम अकेले पार होना कभी स्वीकार न करेंगे। जब हम पार होंगे तो उस में तुम्हारा भी साथ अवश्य होना होगा, वही तुम्हारा भी होगा। इसलिए तुम निश्चिन्त रहा करो। किसी प्रकार का डर अपने मन में न आने दिया करो।”

यही आत्मबल बढ़ाने वाले उनके शब्दों का प्रभाव होता रहा है कि लाखों परिजनों में से एक-एक उनके साथ अविच्छिन्न रूप से संबंध स्थापित कर स्वयं की प्रगति यात्रा निश्चिन्त होकर चलाता गया है। जुड़ने के बदले में जो अनुदान मिले हैं, उनका वर्णन कहाँ तक किया जाय। परिजनों की अनुभूतियों से भरी अनगिनत फाइलें जो शाँतिकुँज में जमा हैं, प्रमाण देती हैं कि कैसे विभिन्न परिजन गुरुसत्ता के सामीप्य से निहाल होते चले गए।

अनुदान एक औघड़दानी की तरह उनने जीवन भर बाँटे। किसी की तकलीफ में हिस्सा बँटाया, कष्ट से उसे मुक्ति दिलाई। मानसिक वेदना में विगलित क्षुब्ध स्वजन को कष्ट से राहत किया, तो किसी के मनोबल आत्मबल को बढ़ाते हुए प्रतिकूलताओं से जूझने का पथ प्रशस्त किया। अनुदान हमेशा पात्रता परख कर बाँटे गए। बदले में व्यक्ति को यही प्रेरणा दी गयी कि वह अपना जीवन बदले, समाज के लिए कुछ करने के लिए आगे आए। इस प्रकार सत्प्रवृत्ति विस्तार के लिए आत्मकल्याण से लोक मंगल वाला मार्ग बनता चला गया। यही नहीं यह भी स्पष्ट होता चला गया कि जो भी क्षुद्रता को त्याग कर महानता के, श्रेष्ठता के साथ अपना संबंध जोड़ेगा वह दैवी सत्ता के अनुदानों से निहाल होता चला जाएगा। परम पूज्य गुरुदेव की सत्ता स्थूल रूप से आज नहीं हैं। वे और भी व्यापक व सघनतम हो गए हैं किन्तु सतत् अनुदान अब भी सबको सहज ही उन्हें स्मरण करने मात्र से मिलते हैं इससे दैवी सत्ता का शाश्वत नियम सही प्रमाणित होता है।

एक भी परिजन, नया या पुराना, ऐसा नहीं जिसके जीवन में विलक्षण कुछ घटा न हो। घटनाक्रम के विस्तार में सामान्य बुद्धि चली जाती है, वह उसके मर्म को नहीं समझ पाती। यही बात परम पूज्य गुरुदेव बार-बार समझाते रहते थे कि घटना को नहीं उसके पीछे छिपे दैवी संबंधों को महत्व दें, नहीं तो मात्र आदान प्रदान के इस प्रारंभिक उपक्रम तक ही वह व्यक्ति सीमित होकर रह जाएगा। इसीलिए प्रेरणा भरे वचन, न कि घटना का विस्तार पूज्यवर अपने पत्रों में लिखते रहे। वे एक बहिन को 6-12-1967 के पत्र में लिखते हैं-”तुम्हारा कष्ट हमें अपना निज का कष्ट प्रतीत होता रहता है और उसके निवारण के लिए वही उपाय करते हैं जैसा कोई व्यक्ति अपना कष्ट निवारण करने के लिए कर सकता है।”

बिलासपुर (मध्यप्रदेश) के एक कार्यकर्ता के श्वसुर पेट के कैंसर से अंतिम स्थिति में टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल बम्बई में भरती थे। उनकी दो बच्चियाँ शादी योग्य थीं। कार्यकर्ता महोदय ने लिखा कि एक वर्ष का जीवनदान मिल जाए तो वे जिम्मेदारी से मुक्त हो जायेंगे। पूज्य गुरुदेव ने उन्हें लिखा-”......जी का जीवन जीवनकाल बहुत लम्बा नहीं खींचा जा सकता। थोड़ी ही रोकथाम संभव हुई है। सो आप यथा संभव जल्दी ही बच्चियों की शादी से उन्हें निवृत्त कराने का प्रयत्न करें।” अप्रैल 1963 में माँगा गया जीवनदान मार्च 1964 तक चला। इस बीच उनकी दोनों बच्चियों की शादी हो गयी। सामान्य चिकित्सा द्वारा ही जीवन कार्य चलाते हुए वे जीवित रहे। अवधि समाप्त होते ही पुरानी शिकायत यथावत हो गयी व उसी रोग से उनका देहावसान हो गया।

हमेशा किसी की रोग मुक्ति पर, परेशानियों के हटने पर पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी, श्रेय माँ गायत्री को देते व लिखते या कहते कि “माता से की गयी प्रार्थना से ही आपको यह सब मिला है। इस जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करने, गायत्री के सद्बुद्धि के तत्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के संबंध में विचार करें।” पटना के एक सज्जन लिखते हैं कि उनके बड़े भाई को पेशाब की थैली में कैंसर बताया गया। सभी जाँच के बाद यह कहा गया कि तीन-चार माह से अधिक वे जी नहीं पायेंगे। वे आए और शाँतिकुँज से पूज्यवर का आशीर्वाद व भस्म ले गए। भस्म का सेवन श्रद्धापूर्वक गंगाजल के साथ इस भाव से कराया गया कि यह पूज्यवर का चरणामृत है। तकलीफ ठीक होती गयी व एक्सरे भी ठीक आया। आज सात वर्ष से अधिक हो गए हैं। वे पूर्णतः स्वस्थ हैं व संस्था के कार्यों में पूर्ण सहयोगी हैं।

जबलपुर के एक सज्जन को लम्बी प्रतीक्षा के बाद पुत्ररत्न प्राप्ति हुई जाँच पड़ताल के बाद चिकित्सकों ने बताया कि मल विसर्जन का द्वार नहीं होने से इसका आपरेशन करना होगा। उन सज्जन ने पूज्यवर का ध्यान किया व प्रार्थना की कि “आपसे अब तक कुछ नहीं माँगा। पुत्र हुआ व उसको भी जन्म के तुरन्त बाद चीरफाड़ से गुजर कर जीवन भर पेट के सामने वाले भाग के एक छेद से मल विसर्जन करना होगा। कुछ कीजिए, ऐसी नारकीय जिन्दगी से उसे बचाइए।” उनकी अंतरात्मा को आश्वासन मिला तथा भर्ती होने के बाद ही चाइल्ड सर्जरी के प्रमुख ने आकर केस अपने हाथ में लिया। जाँच पड़ताल के दौरान नली गुजारने की कोशिश में पाया गया कि पतली झिल्ली सी मल द्वार के मुँह पर आवरण के रूप में विद्यमान है व अंदर के दबाव से स्वतः वह खुल गया है तथा मल विसर्जन बराबर हो रहा है। सभी चिकित्सक आश्चर्यचकित थे कि यह सब कैसे हुआ। क्या जो पहले देखा था वह गलत था, या जो अब देखा है वह गलत है। अगले ही दिन वंदनीया माताजी का पत्र उन सज्जन को सब कुछ ठीक तरह होने के आश्वासन के साथ मिला। उनका वह पत्र आज समाज को समर्पित है।

दिल्ली के एक स्वजन जो बराबर शाँतिकुँज आते रहते हैं, शोध संस्थान से जुड़े चिकित्सकों के लिए एक चलते फिरते आश्चर्य है। कारण यह कि उनके हृदय के दो वाल्व इतने अधिक विकृत हो चुके थे कि बिना आपरेशन कोई चारा नहीं था। साँस लेने में भी कष्ट होता था व हाथ-पाँव में सूजन आदि तकलीफ बराबर बनी रहती थी सभी चिकित्सकों की राय थी आपरेशन होना चाहिए। पूज्य गुरुदेव ने कहा कि जाँच करा लो पर आपरेशन जरूरी नहीं है। बिना ऑपरेशन भी काम चल जाएगा। वे दिल्ली से जाँच करा के वापस आए तो पता चला कि वाल्व इतने अधिक सिकुड़ चुके हैं कि तीन माह में ही आपरेशन करवाना होगा। तारीख भी दे दी गयी।

परमपूज्य गुरुदेव ने जाते समय फिर आशीर्वाद दिया कि घूम आओ पर आपरेशन की जरूरत नहीं पड़ेगी। भरती होने के बाद आपरेशन से एक घण्टा पूर्व जब हृदय से जुड़ी धमनियों के प्रेशर की जाँच की जा रही थी तो सब आश्चर्यचकित थे कि सब कुछ ठीक है जब कि तीन माह पूर्व की जाँच बताती है कि स्थिति बिना आपरेशन के ठीक नहीं होने वाली। चूँकि यह अवरोध “मेकेनिकल” स्तर का था, इसमें किसी प्रकार कोई गलती की अब संभावना नहीं थी। जाँच के बाद बिना आपरेशन के उन्हें भेज दिया गया, यह कहकर कि अब यह जरूरी नहीं थीं। वे सज्जन अभी भी पूर्ण स्वस्थ स्थिति में पत्रकारिता से जुड़े मिशन के कार्य का विस्तार कर रहे हैं। परम पूज्य गुरुदेव से समीप से जुड़े चिकित्सक स्तर के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता को अभी भी चालीस से अधिक रोगियों की जानकारी है, जिन्हें हार्टवाल्व या धमनियों की खराबी होने की वजह से सर्जरी की राय दी गयी थी पर उन्हें जब गुरुदेव का आशीर्वाद मिल मिल गया तो किसी तरह की बड़े स्तर की चीरफाड़ की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी। वे सभी स्वस्थ हैं एवं सक्रिय हैं। यह मृत संजीवनी है जो परमपूज्य रूपी अवतारी सत्ता द्वारा अनगिनत लोगों को मिलीं। सारे घटनाक्रमों को लिपिबद्ध करना ही एक असंभव कार्य है।

एक सज्जन जिनका परिवार तीन पीढ़ियों से परम पूज्य गुरुदेव से जुड़ा मानता है, दिल्ली में रहते हैं व अंश-अंश को उनका ऋणी मानते हैं। उनकी अनुभूतियाँ विलक्षण हैं। उनकी बड़ी से बड़ी विपत्तियों को परम पूज्य गुरुदेव ने टाला। जब भी किसी की व्याधि चिकित्सकों की सीमा से पार हो गयी तो उनने गुरुसत्ता का स्मरण किया व इतने मात्र व उनके दृढ़ विश्वास से सब ठीक होता गया। उनकी पत्नी को असहनीय पीड़ा से मुक्ति मिली। स्वयं वे “पेम्फीगस वल्गेरिस” नामक एक भयंकर महाव्याधि से तब पूज्यवर के आशीर्वाद से मुक्त हो गए जब उनके चिकित्सक उन्हें निराश कर चुके थे। उनके छोटे भाई की मस्तिष्क की धमनी फटने से रक्तस्राव होने से जो स्थिति हुई, उसे इन पंक्तियों के लेखक ने स्वयं देखा है। मरणासन्न स्थिति से उठाकर उस स्थिति में पहुँचा देना कि वे कुछ वर्ष के एक्सटेंशन द्वारा अपने दायित्वों को पूरा कर सकें। परिवार संबंधी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी होने पर व मिशन से संबंधित ऋण चुकते ही उन्हें एक्सटेंशन से मुक्त कर दिया गया।

एक अंतिम रोग मुक्ति व जीवनदान वाली घटना बताकर इस अध्याय को यहीं समाप्त करेंगे। मिशन से अपरिचित किन्तु पूज्यवर की प्राणदायिनी शक्ति से परिचित हुए एक नये सज्जन शाँतिकुँज आए व नीचे बैठे रहे, यह परीक्षा के लिए कि “यदि वे तत्वज्ञ त्रिकालदर्शी हैं तो मेरे आने की जानकारी उन्हें होना चाहिए”। मिलने की, दर्श की कोई उत्सुकता उनने नहीं दर्शाई। जब पूज्यवर ने ऊपर से पूछवाया कि फलाँफलाँ सज्जन क्या नीचे बैठे हैं? वे आश्चर्यचकित रह गए क्योंकि अपनी कोई जानकारी उनने किसी को नहीं दी थी। ऊपर वे दर्शन को पहुँचे तो उलाहना सुना कि “पेट का कैंसर है तो क्या ऐसे ही ठीक हो जाएगा? गुरु की शक्ति की थाह पाना चाहते हो क्या?” वे बोले “आप जैसी महासत्ता को कष्ट नहीं देना चाहता था। प्रारब्ध मेरा है, मुझे ही भोगने दें। गुरु सत्ता का उत्तर था कि तुम्हें इससे मुक्ति दिलाएँगे ताकि तुम समाज का काम कर सको ।”एक गुलाब का फूल दिया गया व कहा गया कि एक पंखुड़ी रोज खाना जब तक फूल सूखकर समाप्त, न हो जाय। इसके बाद ही रोग से मुक्ति मिल जाएगी। जिस परिजन ने यह घटनाक्रम देखा था उसने उस रोगी से चर्चा कर बाद के घटनाक्रमों पर दृष्टि रखी। वे रोग मुक्त हो गए व अभी भी स्वस्थ स्थिति में इस घटना प्रसंग के आठ वर्ष बाद सतत् कार्यरत हैं। क्या इन सब के बावजूद हम यह प्रश्न चिन्ह लगाते रहेंगे कि हमें अध्यात्म के तत्वदर्शन से सही अर्थों में जोड़ने वाली सत्ता असामान्य ईश्वरीय स्तर की थी कि नहीं?


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