वातावरण जो उनके स्पर्श से धन्य हो गया

June 1991

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जन्मजात संस्कारों की भूमिका, महत्ता अपनी जगह है। उसे नकारा नहीं जा सकता। पर इनके साथ-साथ वातावरण के महत्व को भी स्वीकारा जाना चाहिए। वातावरण वह, जहाँ के सूक्ष्म संस्कार एक सिद्ध पुरुष का संपर्क पाकर, उनकी तप ऊर्जा के कारण इतने प्रबल हो जाएँ कि वह स्थान, एक जीता जागता शक्ति केन्द्र बन जाए। कमजोर मनोबल व सुसंस्कारों वाला व्यक्ति भी ऐसे वातावरण में बदल कर जाए व अपनी गरिमा को बोध के महान प्रयोजन में जुट जाए। स्थान विशेष को प्राणचेतना का जीवन्त शक्ति पुँज बनाने हेतु तप साधना हमारी भारतीय संस्कृति का एक अनिवार्य अंग रही है। तीर्थ, देवालय, आरण्यक, गुरुकुल, आश्रम आदि सबसे जुड़े इतिहास यही बताते हैं कि इस स्थान की प्रसुप्त संस्कारिता को किसी महापुरुष ने तप द्वारा उभारा व वातावरण सशक्त ऊर्जा सम्पन्न बनाया। शांतिकुंज जिसे युग तीर्थ की उपमा प्राप्त है, की चर्चा जब परम पूज्य गुरुदेव के जीवन दर्शन के संदर्भ में की जाती है तो सहज कही इस संबंध में अनेकानेक रहस्यों पर से पर्दा उठने लगता है।

आज जहाँ मनोरम शान्तिकुँज आश्रम गंगा की गोद व हिमालय की छाया में उत्तराखण्ड के द्वार पर स्थित है। वह आज से तेईस वर्ष पूर्व घनघोर वन था। दुर्गम हिमालय से ऋषि सत्ता की तपचेतना जहाँ सघनीकृत हो ऊर्जा के रूप में प्रकट होती है, गंगा, गायत्री व गुरुसत्ता की अद्भुत त्रिवेणी के रूप में गायत्री तीर्थ जहाँ विद्यमान है, यह जानकारी परिजनों को विदित होना चाहिए। मथुरा से दस वर्ष बाद हिमालय चल देना है, यह परमपूज्य गुरुदेव ने 1961 में अज्ञातवास से लौटते ही परिजनों को पत्र में लिखना व पत्रिका में उसकी घोषणा करना आरंभ कर दिया था। साथ ही यह भी क्रमशः स्पष्ट करने लगे थे कि वंदनीया माताजी गंगातट पर उत्तराखण्ड के द्वार पर तप करेंगी व मिशन का सूत्र संचालन संभालेंगी। 1967-1968 में परोक्ष सत्ता के निर्देश पर वे दो तीन बार हरिद्वार आए व जमीन की तलाश में घूमे। सही भूमि न मिलने पर वे अगले दिन वापस लौट गए।

1968 की जून माह की बात है। वे अपने एक निकट संबंधी जो वकील भी थे के साथ शाँतिकुँज हेतु भूमि के निर्धारण हेतु आए थे व गंगातट पर एक धर्मशाला पर रुके थे। दलाल के साथ भूमि की तलाश हेतु निकले तो कई जमीनें उनके संबंधी साथी व दलाल महोदय को ऐसी लगीं जो शहर के समीप थीं व जिनकी कीमत भी कम थी। पर उन्हें जिस सुसंस्कारित, ऊर्जा संपन्न चिर परिचित स्थान की तलाश थी वह उन्हें अभी नहीं मिला था। घूमते-घूमते तीनों सप्त सरोवर जा पहुँचे। जहाँ शांतिकुंज आज विद्यमान हैं, वहाँ आकर परमपूज्य गुरुदेव रुक गए व इसी भूमि के बारे में पूछने लगे। दलाल महोदय का कथन था कि यह भूमि जल के नैसर्गिक स्रोतों से भरी पड़ी है व दलदल है। कोई भी इसे लेकर एक घाटे वाला सौदा ही करेगा। आपको और भी जगह बताई हैं, वे इससे सस्ती भी हैं व अच्छी भी। “परन्तु वे नहीं माने। वे इसी पर अडिग रहे कि “यदि मुझे आश्रम बनाना है तो वह यहीं बनेगा चाहे इसके लिए हजारों ट्रक मिट्टी डालनी पड़े।

इसी स्थान के लिए वे क्यों उत्सुक हैं जबकि यह मुख्य सड़क पर भी नहीं है। शहर से प्रायः सात किलो मीटर दूर है, एक नितान्त निर्जन स्थान पर है, यह पूछने पर उनने वकील साहब को बताया कि वे नहीं समझ पा रहे हैं पर स्वयं गुरुदेव उस भूमि के प्रसुप्त संस्कार को देख रहे हैं व पहचान रहे हैं कि यह विश्वामित्र ऋषि की तपःस्थली है। कभी गंगा की धारा समीप से ही बहती थी। आज यह आधा किलोमीटर दूर चली गयी है। नूतन सृष्टि के सृजन का तप ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने यहीं किया था। इसी स्थान पर नवयुग की आधारशिला विनिर्मित होनी है, इसी हिमालय से लौटकर उन्हें बीस वर्ष ऋषि परम्परा के बीजारोपण का कार्य करना है।

महामानवों की यही विशेषता उन्हें सामान्य से अलग कर देती है। वे अंतर्दृष्टि से पहचान लेते हैं कि किस स्थान में क्या विशेषता विद्यमान है व किस स्थान पर किया गया तनिक सा अध्यात्म पुरुषार्थ ही वहाँ पर ऐसा प्रचण्ड आभामण्डल विनिर्मित कर देगा कि जो भी उस स्थान के संपर्क में आएगा वह आने वाले सौ वर्षों तक निहाल होता रहेगा। जैसे पांडिचेरी के लिए अरविंद घोष ने अपनी तपोभूमि को अगस्त्य मुनि की तपस्थली वेदपुरी के रूप में पांडिचेरी में चुना तथा महर्षि रमण ने शैव साधकों की तपस्थली अरुणाचलम का अपनी मौन साधना हेतु चयन किया, प्राणशक्ति को घनीभूत कर इन स्थानों को प्रचण्ड ऊर्जा संपन्न बना दिया, परमपूज्य गुरुदेव भी अपने लिए व अपने पद चिन्हों पर चलने वाले अनुयायियों के लिए भारतीय संस्कृति का एक समग्र शिक्षण करने वाले आरण्यक के रूप में शाँतिकुँज की भूमि, वातावरण का चयन कर चुके थे। जिनने इस आश्रम के निर्माण को प्रारंभ से देखा हैं, वे जानते हैं कि यहाँ खड़े भवन वस्तुतः जलधारा में तैर रहे हैं। न जाने कितनी मिट्टी डालकर इस स्थान को दुर्गम से रहने योग्य बनाया गया है। अभी भी थोड़ी सी भूमि को खोदते ही जलधारा स्पष्ट दिखाई देती है व गंगा नदी की तलहटी में पाए जाने वाले शालिग्राम पाए जाते हैं किन्तु यह आश्रम जो स्वयं में अनूठा है, व दिव्य संरक्षण प्रदान कर रहा है। यह वातावरण में छाए दैवी संस्कारों की प्रचुरता व सशक्तता ही है कि जो यहाँ आता है, उसकी मनोकामना हर इच्छा कल्प वृक्ष के नीचे बैठने की तरह यहाँ पूर्ण होती देखी जाती है। इस आश्रम की जन्म गाथा को जानने के बाद यहाँ के वातावरण की विशिष्टता को समझना हर किसी के लिए सरल हो जाता है।

वातावरण से जुड़े दो शब्द और हैं, परिवेश और पर्यावरण। “वातावरण” शब्द वात के आवरण इस अर्थ से बना है। “वात शब्द वायु का समानार्थी है। वायु से मतलब उस तत्व विशेष से है, जो अपने स्पर्श से जन-जन के अन्तःकरण में अनुभूतियों की इन्द्रधनुषी आभा बिखेर दे। संस्पर्श द्वारा अपनी अनुभूति करा सके, ऐसे आवरण को ही मनीषियों ने वातावरण कहा है। “परिवेश” से तात्पर्य है विशुद्धतः वे भौतिक परिस्थितियाँ जो वातावरण में विद्यमान हैं। स्थान विशेष की स्थिति, आस पड़ोस इत्यादि परिवेश की परिधि में आते हैं। “पर्यावरण” शब्द अपने अर्थ की व्यापकता के घेरे में परिवेश के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ समेटे हुए हैं परिवेश की प्रभाविकता का अध्ययन-पर्यावरण (परिआवरण) के अंतर्गत आता है। पर्यावरण का अर्थ है न केवल परिवेश बल्कि वायुमण्डल-आकाशीय स्थिति के साथ जुड़ी वे सूक्ष्मताएँ जो हमारे जीवन को विभिन्न रूपों में प्रभावित करती हैं। मानव जीवन पर स्थूल शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्तर पर क्या कुछ प्रभाव पड़ रहा है, यह विद्या आज “डीप इकॉलाजी” के रूप में मान्यता प्राप्त कर पर्यावरण का महत्व हमें भली भाँति समझाती है।

वातावरण परिवेश व पर्यावरण को समेटने वाला और भी अधिक सूक्ष्मतम तत्व है। यदि परिवेश स्थूल पर्यावरण सूक्ष्म है तो वातावरण को कारण तत्व कहा जा सकता है। तीनों की ही अपनी विशिष्टता है। स्थूल मोहक आकर्षण तो बहुत स्थान पर विद्यमान है पर शेष विशेषताओं का वहाँ अभाव है। कहीं परिवेश ठीक है तो कहीं पर्यावरण नहीं व कहीं पर्यावरण ठीक है तो कहीं वातावरण ठीक नहीं है। ये तीनों जब विशिष्ट बन जाते हैं तो इन दुर्लभताओं का सम्मिश्रण एक अनूठा योग बनाता है जिसकी प्रभाव-सामर्थ्य अनुभूति के स्तर पर पहुँच जाती है। आज अपनी अनिवार्यता और आवश्यकता के बावजूद धरती पर ऐसे स्थान नगण्य हैं जहाँ वे तीनों ही-परिवेश, पर्यावरण और वातावरण उच्चस्तरीय शक्ति संपन्न हों, परस्पर घुले मिले हों व एक दूसरे के प्रभाव को बढ़ाते हों। जहाँ जाकर व्यक्ति अपनी जीवनचर्या, स्वास्थ्य, व्यवहार और संस्कारों में सुनिश्चित कायाकल्प अनुभव करता है। जीवन की उल्टी धारा को मोड़कर सीधा कर सही अर्थों में जीवन जीना सीख लेता है। ऐसा ही एक विलक्षण संयोग गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज, गायत्री तपोभूमि मथुरा, जन्मभूमि आंवलखेड़ा तथा उन सभी स्थानों पर देखने को मिलता है, जहाँ-जहाँ परम पूज्य गुरुदेव के चरण पहुँचे। उनके द्वारा वंदनीय माताजी के द्वारा जहाँ तप संपन्न हुआ, वह स्थान वहाँ के प्रसुप्त संस्कार ऋषि सत्ता के ओजमय आभामण्डल से अनुप्राणित हो धन्य बन गए।

यह तथ्य इस संदर्भ में इसलिए भी महत्वपूर्ण बन जाता है कि आज के इस भौतिकवादी युग में ऐसा पुरुषार्थ विस्मृतप्राय दीख पड़ता है, जो वातावरण के उच्चस्तरीय शक्ति स्पंदनों को सघन बनाए रख सके। मानवी विकास के लिए चेतना जगत में प्रवेश कर उच्चतम स्थितियों तक पहुंचने के लिए इसके सिवा कोई अन्य रास्ता भी नहीं है। कभी जब हमारी धरती पर सतयुगी परम्पराएँ जीवन्त थीं तो उसके पीछे वह प्रयास पुरुषार्थ ही था जिसके द्वारा हर ग्राम को एक छोटे-मोटे तीर्थ का रूप दे दिया गया था। मात्र यही नहीं विशिष्ट स्थानों में कठोर तपश्चर्या के बलशाली चुम्बक द्वारा पवित्रता, प्रफुल्लता शाँति जैसे जीवनदायी-ऊर्जामय तत्वों से भरी पूरी ऐसी चादर तान दी जाती थी, जिसके साये में मानव अपने दैनन्दिन जीवन के संताप, आकुलता, आधि-व्याधियों से छुटकारा पा सके। यह चादर मजबूती से तनी रहे इसके लिए सतत् जप-सत्प्रवृत्ति विस्तार तंत्र द्वारा तप की चुम्बकीय सामर्थ्य सक्रिय बनाये रखने का दायित्व जो सतयुग में पूरा होता था आज जिन उँगलियों में गिने जाने योग्य स्थान पर होता देखा जाता है, उनमें एक शाँतिकुँज है।

पौराणिक आख्यानों में ऋषियों की तपोभूमियों के वातावरण का, विशिष्ट प्रयोगशालाओं का वर्णन हमारे लिए कौतूहल का विषय हो सकता है, पर यह एक जाना माना तथ्य है कि व्यक्ति विशेष की तपचेतना से वह वातावरण जो उसके आसपास का है, विशिष्ट ऊर्जा से अनुप्राणित हो जाता है। ऋषि अरविन्द घोष अलीपुर जेल की जिस काल कोठरी में रहे, उनके जाने के बाद जेलर ने वहाँ किसी अन्य कैदी को रख दिया। योग से अनुप्राणित वातावरण की सघनता कैदी के मन पर हावी हो जबरन किन्हीं ऊँचाइयों की ओर ले जाने लगी, अनभ्यस्त मन घबरा गया। पागल होने की सी स्थिति पैदा हो गयी। अँग्रेज जेलर को जब कारण पता चला तो उसने स्थान बदलवाया। इतनी प्रबल प्रभाव सामर्थ्य होती है तप शक्ति से निकले स्पन्दनों में। “चम्पक लाल की वाणी” में लेखक ने उद्धृत किया है वह स्वयं पाटन शहर के पास बावड़ी नामक गाँव में तालाब के किनारे लेट गया। लेटते ही उसकी गहरी समाधि लग गयी। उसे इस अद्वितीय आनन्द की उपलब्धि पर महान आश्चर्य हुआ। बाद में उसे जानकारी मिली कि एक संत ने वहाँ वर्षों कठोर साधनाएँ की हैं। दक्षिणेश्वर में जहाँ स्वयं श्रीरामकृष्ण ने जिस कक्ष में अपनी तप साधना की थी, अभी भी जाकर उस आध्यात्मिक ऊर्जा की अनुभूति की जा सकती है। बहुत चंचल मन भी वहाँ एकाग्र हो जाता है। उत्तराखण्ड में-हिमालय के हृदय में ऐसे अनेक स्थान विद्यमान हैं जहाँ बैठकर ध्यान करने मात्र से ही मन सहज ही ऊंचाइयों को स्पर्श करने लगता है। थियोसॉफी की जन्मदात्री मैडम ब्लावट्स्की ने इसे सिद्धपुरुषों की उच्चतम समिति का स्थान बताया है, जो परोक्ष जगत से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय लेती है। स्वयं पूज्य गुरुदेव ने चार बार दुर्गम हिमालय के इसी स्थान पर पहुँच कर तप किया। ऋषि सत्ता से साक्षात्कार किया व उन्हीं की प्रेरणा से सारे महत्वपूर्ण निर्धारण किये।

वातावरण की सिद्धि के रूप में ही शाँतिकुँज के स्वरूप को समझा जाय तो अधिक अच्छा होगा। हिमालय की पर्वतीय शृंखला के मध्य कल−कल निनाद करती गंगा की सप्तधाराओं के मध्य स्थित इस स्थान की स्थूल अलौकिकता व नैसर्गिक सौंदर्य हमें कितना ही आकर्षित क्यों न करे पर यह सिर्फ उतना भर नहीं है। यहाँ गायत्री मंत्र के प्रथम दृष्ट विश्वामित्र से लेकर भारद्वाज, कश्यप, गौतम, अत्रि, जमदग्नि, वशिष्ठ ऋषि आदि ने ज्ञान-विज्ञान संबंधी महत्वपूर्ण प्रयोग यहीं सम्पन्न किए थे। पातंजलि, चरक, कणाद, पिप्पलाद जैसे ऋषियों की परम्पराएँ कभी यहाँ चलती थीं। आज उन सभी परम्पराओं का यहाँ जाग्रत जीवन्त कर इसे एक सिद्ध पीठ बनाया गया है।

चौबीस वर्ष तक जिसके मार्गदर्शन संरक्षण में पूज्य गुरुदेव के महापुरश्चरण संपन्न हुए वह अखण्ड दीपक यहाँ स्थापित है। उसी के प्रकाश में “अखण्ड-ज्योति” का लेखन कार्य संपन्न होता गया तथा अनेक करोड़ होता है। वंदनीया माताजी ने 16 कुमारिकाओं द्वारा यहीं अखण्ड महापुरश्चरण संपन्न कराया। परम पूज्य गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण साधना जो वर्षों चली, यहीं संपन्न हुई। इस प्रकार से यह संस्कारित शक्ति केन्द्र है जहाँ आने वाले का भावनात्मक कायाकल्प हो जाता है एक अनिर्वचनीय अलौकिक शाँति की अनुभूति होती है तथा उसकी मन की इच्छाएँ सहज ही पूरी हो जाती है। पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद उनकी परोक्ष सत्ता को गायत्री तीर्थ के सूक्ष्म स्पन्दनों में अनुभव किया जा सकता है।

जिसकी जितनी ग्रहणशीलता है, उसी अनुपात में वह पाता है। ग्रहणशीलता के अभाव में ही सुमेरु शिखर पर चढ़ दौड़ने वाले पर्वतारोही वहाँ के दिव्य वातावरण के स्पन्दनों से रीते बने रहते हैं। तीर्थ यात्रा कर चारों धाम की उत्तराखण्ड की यात्रा कर आने वाले मात्र पर्यटन का ही लाभ ले पाते हैं। शारीरिक स्तर की ग्रहणशीलता बर्फ की कँपकँपी भर दे पाती है। यदि शरीर के साथ प्राण को गायत्री तीर्थ के महाप्राण से एकाकार करने की कोशिश की जाय तो न केवल व्यवहार की दुर्बलता से मुक्ति मिलेगी, प्रसुप्त संस्कार भी जागेंगे व्यक्तित्त्व रूपी उद्यान में दिव्यता के बीज बोए जा सकेंगे। जागरुक भावनाशीलों के लिए शाँतिकुँज प्रेरणा की गंगोत्री बना युगों-युगों तक मार्गदर्शन करता रहेगा।


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