“आपकी आत्मा जिस तेजी से प्रगति कर रही है, उसे देखते हुए इस जीवन में लक्ष्य प्राप्त कर लेना पूर्णतया निश्चित है। आपके संबंध में हमें उतना ही ध्यान है जितना किसी पिता को अपने बच्चों का रह सकता है” तथा “चिड़िया की छाती की गर्मी से अण्डा पकता रहता है और समय पर फूट कर बच्चा निकलता है। आप हमारी छाती के नीचे अण्डे की तरह पक रहे हैं। समय पर पक कर फूट पड़ेंगे।” तथा “गाय अपने बच्चे को दूध पिला कर जिस प्रकार पुष्ट करती है वैसे ही तुम्हारी आत्मा को विकसित करने और ऊपर उठाने के लिए हम निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं”। यह तीन उद्धरण परम पूज्य गुरुदेव के पत्रों से हैं जो उनके द्वारा समय समय पर विभिन्न परिजनों पर मातृवत् स्नेह की वर्षा कर एक दैवी संरक्षण प्रदान करते हुए लिखे गए। शब्दों के पीछे भाव यही थे कि जुड़ने के बाद अब हर संकट से बचाकर आगे बढ़ाना आत्मिक प्रगति की ओर ले जाना अब गुरुसत्ता को हाथों में है। इसके लिए उन्हें मन में तनिक भी असमंजस नहीं आने देना चाहिए।
सभी को साधना का सुयोग्य मार्गदर्शन एक सिद्ध पुरुष द्वारा सतत मिलता रहा ताकि अनुदानों के लिए पात्रता अर्जित हो सके। एक परिजन जो छिन्दवाड़ा, म.प्र. के हैं, जब भी पूज्यवर के पास आते, तो गायत्री साधना करने की प्रेरणा मिलती। वे अपने मन की बात कई बार चाह कर भी नहीं कह पाते थे। उनकी पत्नी को एक विचित्र व्याधि थी कि दो पुत्रियों की अकाल मृत्यु के बाद उन्हें जब भी गर्भ ठहरता बालक की भ्रूण में मृत्यु हो जाती। तीन गर्भपात हो चुके थे। वे उस ओर से निराश हो चुके थे। अपनी कष्ट कठिनाई पूज्यवर को सुनाना चाहते थे। एक बार घर से चले तो यही सोचकर कि अब वे अपनी कहेंगे, बाद में उनकी सुनेंगे। चर्चा गुरु-शिष्य में आरंभ होने से पूर्व ही वन्दनीया माताजी ने भोजन के लिए बुला लिया। भोजन करते-करते उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। परम पूज्य गुरुदेव ने कहा “हमें तुम्हारे कष्ट का ज्ञान है। तुम समझते हो कि कहने के बाद, तुम्हारी वाणी से शब्द निकलने के बाद ही हमें जानकारी होगी। हर अनुदान की एक निश्चित अवधि होती है। साधना द्वारा तुम्हें पकाना उद्देश्य था, वह हो चुका। तुम्हें पुत्र प्राप्ति होगी व तुम्हारी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी।” ठीक एक वर्ष बाद उन्हें पुत्र हुआ। उसके माध्यम से पति-पत्नी के जीवन में प्रसन्नता आयी। कुछ शंकाएँ गुरुसत्ता को लेकर मन में थीं तो वे दूर हो गयीं। साधना से सिद्धि का सही स्वरूप जो वे स्वयं देख चुके थे।
संतों के इतिहास में अनेकानेक घटनाक्रम हम पढ़ते रहते हैं, जिनमें उनके माध्यम से अगणित पर कृपा बरसती बताई जाती है। परम पूज्य गुरुदेव ने कृपा भी बरसायी, जीवन लक्ष्य को उत्कृष्टता के साथ जोड़ दिया। संभवतः यह उनके लीलामय जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।
एक सज्जन जो टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश) के हैं, को परम पूज्य गुरुदेव 30-12-62 को लिखते हैं कि “बच्चे के स्वर्गवास का समाचार पढ़कर हमें भी आपकी ही तरह आघात लगा। आपका परिवार हमें अपने निजी परिवार जैसा ही प्रिय है। ईश्वर की इच्छा प्रबल है। उसके आगे मनुष्य का कुछ भी वश नहीं चलता। प्राणी जितने समय के लिए आते हैं, उतने ही समय ठहरते हैं । विवेक द्वारा शोक को शाँत करें। स्वर्गीय आत्मा फिर आप लोगों के घर अवतरित हो, ऐसा प्रयत्न कर रहे हैं।” इतना आश्वासन देने के बाद उन सज्जन को एक नियमित अनुष्ठान में जुटा दिया गया, एक साधना सत्र मथुरा गायत्री तपोभूमि में करवाया गया और ठीक डेढ़ वर्ष बाद एक संस्कारवान जीवसत्ता उनके घर आयी। समय-समय पर उसका व्यवहार देखकर लगता था कि यह वही बालक है जो कुछ वर्ष पूर्व दिवंगत हुआ था। परोक्ष जगत में हस्तक्षेप कर अपनी प्रचण्ड शक्ति के सुपात्र शिष्य को ऐसी गुरुसत्ता क्या कुछ नहीं दिला सकती?
परम पूज्य गुरुदेव के छत्तीसगढ़ निवासी एक चिकित्सक शिष्य की कामना थी कि दो पुत्रियों के बाद जो तीसरी पुत्री उन्हें प्राप्त हुई थी व कुछ वर्ष जीकर ही इस दुनिया से चली गयी, पुनः मिल जाय। संभव हो तो जीवात्मा भले ही वह हो, पुत्र रूप में मिल जाय। कहीं आक्रोश न आ जाय, इस भय से कभी गुरुदेव से कुछ कहा नहीं। शाँतिकुँज सत्र में आए तो दो बार गुरुदेव से मिल आए पर मन की बात कह न पाए। चौथे दिन पूज्य गुरुदेव ने ऊपर अपनी ओर से बुलवाया व कहा कि “जप करते समय बार-बार मन में यह मत लाया करो कि गुरुदेव देंगे कि नहीं! कहें कि नहीं? जप में अपने मन की लौकिक कामना की नहीं, आध्यात्मिक प्रगति की बात सोचा करो। जहाँ तक पुत्र का प्रश्न है, वह हम तुम्हें देंगे। मात्र 5-6 वर्ष तक उसे अपने कन्या-रूप में पूर्व जन्म की स्मृति रहेगी। फिर क्रमशः यह आत्मा उसे भूल जाएगी।” एक मनचाहा वरदान उन्हें मिल चुका था। यह भी स्पष्ट हो गया था कि त्रिकालदर्शी गुरुसत्ता उनके मन को स्पष्ट पढ़ रही थी। वे ही अनावश्यक संशय कर रहे थे। ठीक पौने दो वर्ष बाद उन्हें एक बेटा हुआ तो जन्म से पाँच छह वर्ष तक हर बात ऐसे करता जैसे वह लड़की हो। वेश विन्यास भी वही रखने का प्रयास करता। धीरे-धीरे यह स्मृति लुप्त हो गयी। आज वही बच्चा एक मेधावी किशोर के रूप में बड़ा हो चुका है।
एक दबंग ओजस्वी कार्यकर्त्री का परम पूज्य गुरुदेव के समीप रहने वाले एक घनिष्ठ कार्यकर्त्ता को अभी स्मरण है कि कैसे उसने अपनी मनचाही बात भक्त रूप में भगवान से पूरी करायी। पहली उसकी बच्ची थी वह चाहती थी कि एक बच्चा और होने के बाद वह पूर्णतः समाज को समर्पित हो निश्चिन्त हो कर कार्य करेगी। गर्भ ठहरने पर जाँच कराने पर पता चला कि यह भी कन्या है। पति ने सलाह दी कि गर्भपात करा लेना चाहिए। उसने पति की राय नहीं मानी व सीधे पूज्यवर के पास आकर लड़ने लगी कि “आपने जो कहा था, वह किया क्यों नहीं”? परम पूज्य कृपालु गुरुदेव ने उससे सामने बैठने को कहा व निर्निमेष उसकी ओर कुछ देर देखते रहे। फिर बोले कि “तुझे तो बेटा ही होगा। गर्भपात मत कराना। इसके बाद इस शरीर व मन को समाज के कार्य हेतु लगाना। इसी शर्त पर यह आश्वासन वरदान तुझे दे रहा हूँ” जाते ही उस उच्च शिक्षा प्राप्त शंकालु युवती ने जाँच करा ली कि वरदान मिला भी या नहीं। पता चला कि गर्भ में बालक ही है। अपनी ही रिपोर्ट को वे गलत कैसे कहते, अतः चिकित्सकों ने कह दिया कि पिछली रिपोर्ट में कहीं क्लर्क की गलती हो गयी थी, नहीं तो गर्भ में लड़का ही है। आज वह महिला एक पुत्री तथा पुत्र की माँ है तथा नारी जाग्रति के कार्यों में समर्पित भाव से लगी हुई है।
गया (बिहार) की एक बहन लिखती हैं कि 1979 में वे अपने पिता के साथ हरिद्वार से यह आशीर्वाद लेकर गयीं कि उनका शीघ्र ही विवाह होगा एवं सुख-शाँति भरा उनका दाम्पत्य जीवन होगा। पूज्यवर की वाणी पर उन्हें दृढ़ विश्वास था। 1981 में उनका उनका उनके मन से मेल खाते एक युवक से विवाह हो गया। प्रारंभिक जीवनक्रम ठीक चला किन्तु तीन-चार वर्ष बाद ही सास व ननद के तानों के कारण जीवन में अशान्ति आ गयी। संतान न होने से मन दुखी था व धीरे-धीरे कलह का दाम्पत्य जीवन में प्रवेश हो गया। किन्तु मन को निराश न कर वे सबके ताने सुनते हुए भी पूज्यवर के आश्वासन के अनुरूप जप-अनुष्ठान का क्रम यथावत् चलाती रहीं। पत्र शाँतिकुँज लिखा। एक सत्र यहाँ आकर करके शक्ति अनुदान लेकर जाने को कहा गया। 1987 में उनने यहाँ अनुष्ठान किया व 1988 की जनवरी में उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। उनका विश्वास दृढ़ हो गया व अब उनकी ससुराल पक्ष के सभी पूरे तन-मन धन से मिशन के कार्यों में पूरा सहयोग देते हैं।
हमेशा पूज्य गुरुदेव ने श्रेय माता गायत्री के शुभाशीर्वाद को ही दिया। 1989 में परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के ठीक एक वर्ष पूर्व एक सज्जन साधना सत्रों में आए थे। उनसे व्यक्तिगत मेल-मुलाकात के दौरान पूज्यवर ने पूछा कि “अभी तक तुमने संस्था की ही बात की। अपने लिए व्यक्तिगत कुछ नहीं माँगा। माँ की कृपा से तुम्हें सब मिलेगा।” निःसंतान वे सज्जन कहना नहीं चाहते थे कि 48 वर्ष की उम्र हो गयी व मिशन कार्य करते हुए प्रायः बीस वर्ष। अब उन्हें अच्छा लगेगा यह कहते हुए कि बच्चा चाहिए? किन्तु मन को पढ़ने वाले महायोगी ने औघड़दानी की तरह आशीर्वाद दिया” तुम जो सोच रहे हो वही होगा। हमारे द्वार से कोई खाली हाथ वापस नहीं गया।” परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के अगले दिन ही उनकी पत्नी ने एक स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया। जहाँ इष्ट के स्थूल शरीर त्यागने का संताप उन्हें था, वहाँ पुत्र रूप में देव संतति भेजकर उन्हें निहाल कर दिया गया।
समय-समय पर वे परिजनों को पत्र देते”कन्या बहुत ही शुभ घड़ियों में जन्मी है। उसे पुत्र समान ही प्यार करें।” कोई व्यक्ति जब पूज्यवर के पास आकर अपनी ओर से पुत्र होने न होने की बात करता तो उसे रोष का ही सामना करना पड़ता था। उन्हें बड़ा गुस्सा आता था लोगों की इस मानसिकता पर व वे बेटा-बेटी में भेद न करने पर सतत जोर दिया करते थे। किसी के अधिक आग्रह करने पर कहते कि “बेटा हो गया व वह तेरी सम्पत्ति हड़प कर तुझे घर से बाहर निकाल दे उससे अच्छा है कि तू बेटी से ही संतोष कर । वह देवी स्वरूपा है, तेरा नाम ऊँचा करेगी। कोई और आग्रह करता तो कहते कि” हमारे पास कुछ नहीं है। हम तो माँ से माँगते हैं। हमारे अपने बेटे की तीनों बेटियाँ हैं व वह उन्हें बेटे की तरह पालता है। हमने उसके लिए ही बेटा माँग लिया होता, यदि हमारे पास शक्ति होती। इसके बाद भी यदि किसी ने और आग्रह किया तो उनका क्रोध जिनने देखा है, वह जानता है कि स्वयं महाकाल रौद्र रूप धारण कर ले, ऐसी उनकी स्थिति होती थी। एक बार उनने एक जिद्दी दम्पत्ति को तो श्राप ही दे डाला कि बच्चों की इन्हें इतनी ही ललक है तो ध्यान रखें पहले छह लड़कियाँ ही होंगी फिर एक नाकारा पुत्र होगा। सारा जीवन पूरा श्रम-उपार्जन कर जो पूँजी वे एकत्र करेंगे उससे बेटियों का विवाह तो किसी तरह हो जाएगा पर उनकी शेष दुर्गति उनका बेटा करेगा, जिसके लिए वे इतना आग्रह कर रहे हैं। इस घटनाक्रम को जानने वाले कहते हैं कि यही हुआ। अब वे पश्चाताप भरे आँसू बहाते हैं कि ऐसी सत्ता के पास आकर माँगा भी तो क्या माँगा?
वस्तुतः परम पूज्य गुरुदेव रूपी दैवी-अवतारी सत्ता ने जीवन भर पात्रता व मानसिकता के अनुरूप बाँटने का क्रम रखा। लालीपॉप, टॉफी, खिलौनों के द्वारा बच्चों को जैसे बहलाया जाता है, ऐसे ही मनोकामना पूरी करते रहे किन्तु सतत यह प्रेरणा देते रहे कि मानव जीवन का लक्ष्य क्या है व उन्हें क्या करने भेजा गया है, इसे ध्यान में रखें। जिनने प्राथमिक कक्षा पास कर उनके दूसरे परामर्श को ध्यान में रखा वे प्रगति कर सके, जीवन को ऊँचा उठा सके। जो प्रथम तक सीमित रहे व थोड़ा पाने के बाद और पाने की ललक मन में बनाए रहे, उनका जीवन सामान्य ही रहा, जब कि ऐसी सत्ता का सामीप्य पाकर तो उसे आमूलचूल बदल जाना चाहिए था।
एक परिजन को 16-9-61 को लिखे गए पत्र में वे प्रेरणा देते हुए कहते हैं-”आपका छोटा बालक उन्हीं महान आत्माओं में से एक है जो युग परिवर्तन करने के लिए पृथ्वी पर आ रही हैं। यह बालक गौतम बुद्ध की तरह सारे संसार में धर्म की ज्योति जगाएगा। इसे बहुत प्रयत्नपूर्वक बुलाया गया है। ज्योतिषियों के जन्म पत्र इसके ऊपर लागू नहीं होते। इसके दीर्घ जीवन की देखभाल हम स्वयं कर रहे हैं।”इस उच्चस्तर का संरक्षण था व शक्ति का प्रवाह था, जो वह मथुरा व हरिद्वार में बैठे सतत् करते रहे। इसके माध्यम से अनगिनत को उनने अपनी सन्तान को सुसंस्कारी बनाने हेतु प्रेरित किया। पूर्व जन्म के सुसंस्कारों का हवाला देकर उन्हें स्वयं मनु-शतरूपा की तरह तप करते रहने व संतान की लौकिक नहीं, आध्यात्मिक प्रगति हेतु प्रयास करते रहने की सतत प्रेरणा दी। इक्कीसवीं सदी के लिए नवनिर्माण के स्तम्भ उन्हें इसी माध्यम से मिलने जो थे।