काफी देर से वह अपने कमरे में इधर से उधर उद्विग्न से घूम रहे थे। उनका झबरा ‘वेली’ भी आज हैरान है। उसके मालिक कठिन से कठिन समय में स्वस्थ और स्थिर रहने वाले हैं, आज क्या हो गया उन्हें? वह कूँ-कूँ करता पास गया सामने भूमि पर लेटा, गोद में पहुँचने के लिए उछला बेचारा मूक प्राणी और क्या कर सकता है। आज उसे पुचकारा नहीं गया, प्यार भरी थपकी नहीं मिली। मालिक हैं कि बस गर्दन झुकाए इधर से उधर चक्कर काटे जा रहे हैं। कभी -कभी मस्तक पर गर्दन के पास दाहिना हाथ रगड़ लेते हैं। उनके उजले-घुँघराले बाल तनिक हिल जाते हैं और बस!
इधर लगभग दस साल उन्हें इंग्लैण्ड से कलकत्ता आकर रहते हो गए। सफल चिकित्सक के रूप में सारा कलकत्ता उन्हें जानता है। लेकिन वह स्वयं को चिकित्सक से कहीं अधिक चिकित्साशास्त्री मानते हैं। उन्होंने एलोपैथी का तो उच्च अध्ययन किया ही है यूनानी चिकित्सा पद्धति, होम्योपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा-पद्धति, मानसिक चिकित्सा पद्धति तथा आयुर्वेद का भरपूर अनुशीलन किया है। अमेरिका और यूरोप की कई जगहों में वह रहे हैं। अफ्रीका के जंगलों में भटके हैं, चीन तथा तिब्बत के दुर्गम स्थानों पर सालों-साल का समय व्यतीत किया है। भारत आकर रहने का उनका मुख्य उद्देश्य आयुर्वेद का अध्ययन तथा मानसिक चिकित्सा से सम्बन्ध रखने वाले योग ज्ञान को पूरा करना था। धुन के पक्के, चाहे जितना श्रम करने और कष्ट सहने को उद्यत हंसमुख और विनम्र इन अड़सठ साल के वृद्ध के उत्साह के सामने युवकों को भी लज्जित होना पड़ता है।
यों आज बात कुछ खास नहीं थी। सुबह-सुबह एक नवयुवक डॉक्टर मित्र उनसे मिलने आये थे। उन्होंने बताया ‘कल कुछ भारतीय लोगों के साथ एक अँग्रेज सज्जन दोपहर में मोटर से घूमने गए थे। राह में सब को प्यास लगी। आस-पास पीने के पानी का प्रबन्ध देखकर इन लोगों ने मोटर रोकी और किनारे की पान की दुकान से सोडा की बोतलें लेकर गला सींच लिया। अन्य कोई चारा न देखकर अँग्रेज सज्जन को भी ऐसा करना पड़ा। इन पान वालों की गन्दगी के विषय में क्या कहा जाय। फिर सोडा भी कोई प्रामाणिक कम्पनियों का तो रखते नहीं। बेचारे को रास्ते में ही हैजा हो गया। भरसक उपायों के बावजूद वे चल बसे। अच्छे सबल स्वस्थ युवक थे। घटना तो सामान्य सी थी। प्रायः ऐसा होता ही रहता है। इसमें इतना सोचने जैसी कोई बात नहीं। पर न जाने क्यों उनकी प्रसुप्त चेतना को इस नन्हें समाचार ने उद्वेलित कर दिया है।
‘एक ही दुकान से एक ही तरह का सोडा सबने पिया अकेला अँग्रेज क्यों मरा? यूरोपियन लोग तो स्वास्थ्य के नियमों का बहुत ज्यादा पालन करते हैं।” उनका डॉक्टर मन अनेक बातें सोचे जा रहा था- “ये भारतीय मजदूर चाहे जहाँ खालें, चाहे जहाँ लेट जाएँ, अफ्रीका के जंगली लोगों की बात और कलकत्ते की गलियाँ साफ करने वाले ये भंगी कितनी गन्दगी साफ करते हैं, जिस तिस का झूठा खा लेते हैं फिर भी स्वस्थ। है क्या आखिर यह स्वास्थ्य? उन्हें मालूम है कि जो गन्दगी में रहते उनके शरीर में उसे सहने की शक्ति आ जाती हैं। लेकिन इस सबसे उनको सन्तोष नहीं। उन्हें कोई तर्क सन्तोष नहीं दे पा रहा। इधर से उधर घूमते-घूमते बार-बार उनके मुख से बहुत धीरे से स्वयं से पूछता सा सवाल उभरता है, स्वास्थ्य क्या है?
शरीर में किसी रोग के कीटाणु न हों कोई विजातीय द्रव्य न हो, रक्त परिवहन प्रक्रिया ठीक हो, श्वास प्रणाली, स्नायु व ग्रन्थिमंडल आदि शरीर के अवयव ठीक काम कर रहे हैं, यही स्वास्थ्य है। यूरोपीय विज्ञान को इसमें कोई आपत्ति नहीं। लेकिन उनने वह बड़ी सी सुनहली जिल्द वाली किताब झुँझला कर बन्द कर दी।
सम दोषः समाग्निश्च समधा तुमलक्रियः
प्रसन्नात्येन्द्रिय मनः स्वस्थ इत्यभि धीयते॥
आयुर्वेद के ग्रन्थ के पृष्ठो को उलटते हुए इस श्लोक पर आकर रुक गए। कफ-वात-पित्त-तीनों दोष समान रहें, पाचनक्रिया ठीक हो, धातुओं में कोई विकार न हो, यह तो एलोपैथी की परिभाषा है, भले शब्दों में फेर बदल हो। उनकी चिन्तनधारा आगे अटकी, चित्त, इन्द्रियाँ और मन प्रसन्न रहें-निर्मल रहें? ग्रन्थ बन्द करके रख दिया और मेज पर बायें हाथ की कुहनी टेककर हथेली पर सिर रख कर आँखें बन्द कर लीं।
‘चित्त निर्मल, इन्द्रियाँ निर्मल, मन निर्मल?’ आयुर्वेद पढ़ते समय संस्कृत का पर्याप्त अध्ययन कर लेने कारण उन्हें मालूम था कि संस्कृत के “प्रसन्न” शब्द का अर्थ ‘खुश’नहीं निर्मल होता है। चिकित्सा शास्त्र ने भी अब मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश पा लिया है। यह बात किस चिकित्सक को नहीं ज्ञात है। किन्तु चित्त व मन की निर्मलता का जो मतलब है उस भारतीय अर्थ को जानते हुए वे यह कैसे मान लें कि आयुर्विज्ञान सिर्फ मनोविज्ञान की बात करता है और इन्द्रियों में क्लेश का न होना है। उनको साफ झलकता है कि आयुर्वेद यहाँ अध्यात्मशास्त्र बन गया है और वह चित्त को कामादि विकारों से रहित, इन्द्रियों को भोग लोलुपता से रहित और मन अचंचल स्थिति में चाहता है। “स्वास्थ्य के लिए अध्यात्म की यह जरूरत?” यूरोपीय विज्ञान ने तो अब तक इसे महसूस ही नहीं किया। वहाँ स्वास्थ्य का उद्देश्य भोग वासना का अभाव ही अपेक्षित माना गया है। डॉक्टर की समस्या की डोर सुलझने की बजाय उलझती जा रही थी।
तभी खानसामे ने डरते-डरते सिटपिटाते हुए कमरे में प्रवेश किया। उसे मालूम था कि अध्ययन के समय साहब कोई व्यवधान नहीं पसन्द करते। पर आने वाले को इन्कार भी तो नहीं किया जा सकता। “साहब! सरकार बाबू आप से...।” आधा वाक्य सुनते ही उनने आँखें खोलीं, ग्रन्थ को परे खिसकाया। “क्या कहा सरकार बाबू वही डॉक्टर महेन्द्र सरकार न।” “हाँ” मालिक के सौम्य स्वर को सुन उसकी हिम्मत बढ़ी। मालिक को भी लगा कि खानसामे के इन शब्दों ने उन्हें उधेड़-बुन की गहरी भँवर से उबार लिया। डॉ. महेन्द्रनाथ सरकार से उनका परिचय लगभग एक डेढ़ साल पहले हुआ था। तब वह होमियोपैथी का अनुशीलन करने में जुटे थे और डॉक्टर सरकार कलकत्ते के विख्यात होमियोपैथ ठहरे। कलकत्ता ही क्यों विदेश में भी उनके द्वारा लिखे गए लेख चाव से पढ़े जाते थे। बस यही उनकी मित्रता का मिलन बिन्दु बना।
सरकार बाबू को मालूम था कि डॉक्टर विलियम पैट्रिक भारतीय विद्याओं के गहरे जिज्ञासु हैं। तो जब भी कोई इस तरह का व्यक्ति उनके संपर्क में आता, डॉक्टर पैट्रिक को मिलवाए बगैर न चूकते। इतनी देर में खानसामा वापस मुड़कर दरवाजे के बाहर चला गया था। डॉक्टर भी दरवाजे की ओर मुँह किए उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इतनी ही देर में महेन्द्र बाबू का स्वर सुनाई दिया “हेलो! डॉक्टर पैट्रिक!” “हेलो। सरकार” कहते हुए दोनों गर्म जोशी से मिले। “लेकिन आज तुम्हारे चेहरे पर?” “पर पहले मेरी सुनो।” कहते हुए धीरे-धीरे उन्होंने कुछ कहा। तीन मिनट की इस बातचीत को द्वार के पीछे खड़ा नौकर भी नहीं सुन सका। फिर से उठे, पुस्तकों समेट कर यथा स्थान लगा दिया तथा बगल के कमरे में जाकर कपड़े बदले-आकर बोले “वेल मि. सरकार नाउ आय एम रेडी” और लगभग पौने दो घण्टे बाद कलकत्ते वाराह नगर क्षेत्र में गंगा किनारे बने एक मकान में दोनों ने प्रवेश किया। थोड़ी देर बाद वे जमीन पर चटाई बिछाए लेटे तनिक स्थूलकाय, गौरवर्ण दाढ़ी जटा धारी-वैष्णव तिलक लगाए एक साधु को प्रणाम कर रहे थे। इन साधु से सरकार महाशय का परिचय श्री रामकृष्ण देव की चिकित्सा करते समय हुआ था। परमहंस देव इनके गुणों के अगाध प्रशंसक थे। उनकी भी उन पर अपार भक्ति थी। परमहंस देव ने तो अब शरीर छोड़ दिया और ये ज्यादातर वृन्दावन में रहने लगे थे। अभी दो-तीन दिन पहले इनके यहाँ आने की खबर मिली। सो आज...।
“तीन दिनों से आँव पड़ रहा है थोड़ा ज्वर भी है।” इन दोनों की प्रश्नवाचक नजरों का समाधान करते हुए पास की दूसरी चटाई में बैठने का इशारा किया। उन्हें कष्ट में जानकार डॉक्टर पैट्रिक शरीर परीक्षण करने के लिए उठने लगे तो उन्होंने रोक दिया “क्या सोचते हो कि मैं अस्वस्थ हूँ?” संत ने पूछा “स्वास्थ्य तुम किसको कहते हो?”
“प्रातः से इसी समस्या में जूझ रहा हूँ, शाम होने को आयी। “डॉक्टर ने थोड़े में अपनी उलझन बता दी।
“तुम चिकित्साशास्त्र के विद्वान हो, भला ये बाते मैं क्या जानूँ।” “गोस्वामी जी हँस पड़े” मैं तो यह जानता हूँ कि शरीर और शरीर के किसी अंग तथा उसकी आवश्यकता का बोध बार-बार न हो, तो शरीर का स्मरण न हो तो मन को स्वस्थ कहना होगा?” डॉक्टर ने पूछा। उनके मुख की भंगिमा से लगता था कि कुछ प्रकाश मिला है।
“बात है तो ऐसी ही पर उसे सीधे ढंग से कहा जाय तो अच्छा।” गोस्वामी जी ने कहने के शब्दों में परिवर्तन करके एक परिभाषा गढ़ दी “मन भूतकाल की उधेड़बुन और भविष्य की चिन्ता न करके वर्तमान में शान्त और स्थिर रहे यह मन का स्वास्थ्य है।”
“लेकिन अनेक बार शरीर के भीतर ऐसे रोग बढ़ते रहते हैं, जिनका रोगी को कुछ भी पता नहीं होता।” डॉक्टर की शंका वाजिब थी।
“तुम शरीर की बात छोड़ दो।” संत के उत्तर ने दोनों चिकित्सकों को एकबारगी चौंका दिया। वे यदि शरीर की बात छोड़ दें तो फिर स्वास्थ्य जैसी क्या वस्तु रह जाएगी। उनने इनके भाव ध्यान नहीं दिया। वे कहते गए “मेरा शरीर इस समय अस्वस्थ है यह तुम देख रहे हो। शरीर में जो विकास है, उनसे पीड़ा भी है। लेकिन मैं मन को वहाँ से हटा सकता हूँ तब इस रोग और पीड़ा का कोई अर्थ नहीं।”
“मन को अन्यत्र लगा देना, यह भी एक पद्धति ही तो है।” डॉक्टर ने जानबूझ कर नहीं कहा कि यह सभी के लिए व्यावहारिक नहीं।
“जो स्वास्थ्य के सभी नियमों का पालन करते हैं, वे थोड़े से विपरीत कारणों में बीमार पड़ जाते हैं। जो स्वास्थ्य के विपरीत स्थिति में रहते हैं उनके शरीर को सब सहने का अभ्यास तो होता है, किन्तु यदि वे कभी बीमार पड़े तो उनकी चिकित्सा दुःसाध्य ही है। एक का मन रोग से भयाकुल रहता है। दूसरे का मन तो निश्चिन्त रहता है, लेकिन शरीर अनजाने में विकृतियाँ बटोरा करता है। दोनों स्थितियों का समन्वय किये बिना स्वास्थ्य कहाँ मिलेगा?”
“समन्वय?” ये दोनों अभी ठीक से नहीं समझ सके थे।
“वही जो आयुर्वेद कहता है। शरीर और मन दोनों का स्वास्थ्य।” उनकी वाणी में पर्याप्त गम्भीरता थी-”तुम स्वयं भी तो मानते हो कि मनोविकारों के रहते मनुष्य पूरा स्वस्थ नहीं हो सकता।”
“पर क्या यह सम्भव है?”
“क्यों नहीं यदि हम भूत और भविष्य की उलझन में अपने को व्यक्त करने का मूर्खता भरा पूर्वाग्रह छोड़ दें।” वे समझा रहे थे सामने उपस्थित कर्तव्य का पालन करने और उसी में पूर्ण मनोयोग से करने से किसी की कोई वैयक्तिक एवं सामाजिक हानि नहीं होती। बल्कि हर काम ज्यादा अच्छे ढंग से होता है। मन भी स्वस्थ रहता है, मन तो अस्वस्थ होता कामना से और कामना उपजती है भूतकाल की स्मृति और भविष्य के दिवास्वप्नों से। मन अस्वस्थ हुआ कि इन्द्रियाँ चंचल बनी। फिर तो शरीर को चिन्ता खाने लगती है, शरीर चिन्ता की चिता में जलने लगता है।”
“मन स्वस्थ रहे तो क्या शरीर स्वस्थ रहेगा?” लगता है आज पैट्रिक महोदय अपना पूरा समाधान कर लेना चाहते थे।
“ऐसा कब कहता हूँ।”विजय कृष्ण गोस्वामी स्नेहपूर्ण स्वर में समझा रहे थे। उनकी वाणी में इस उत्कंठ जिज्ञासु के प्रति पर्याप्त कोमलता की झलक थी। “तुम क्या पानी को विकृत होने से हमेशा के लिए बचा लोगे। शरीर तो पानी की तरह पार्थिव है, प्रारब्ध का बुलबुला। प्रारब्ध को इसे भोगना होगा, भोगना भी चाहिए। इसकी बहुत चिन्ता भी अस्वास्थ्य है। हाँ मन स्वस्थ रहे तो क्लेश नहीं होता। इससे अधिक मनुष्य और क्या चाहता है?”
“फिर हमारे चिकित्साशास्त्र के प्रयत्न?” पैट्रिक का स्वर बता रहा था कि समाधान मिल चुका है। इस प्रश्न के उत्तर की बहुत अधिक जरूरत नहीं।
“वह भी अन्य कर्तव्यों के समान एक कर्तव्य है। इनका लक्ष्य भी वही पूर्णता है- शरीर की यन्त्र की भाँति सार संभाल और व्यवहार करते हुए उससे निरपेक्षता। मनुष्य पूर्ण होने के लिए आया है और वही उसका स्वास्थ्य है।” दोनों ने योगी के समक्ष, उनके सामने मस्तक झुका दिया।
डॉक्टर विलियम पैट्रिक ने जो समझा उसे हम कब समझेंगे? इस प्रश्न का उत्तर देने की जिम्मेदारी हम पर है सिर्फ, पर जो आये दिन अपने ही रोगों को स्वयं आमंत्रित करते व विक्षुब्ध, आकुल-व्याकुल रुग्ण बने रहते हैं।