बुद्धि पर शर्मिन्दा (Kahani)

June 1991

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लाइब्रेरी के लिए तीन सौ अधिक नई पुस्तकें खरीदी गयी थीं। पूज्यवर के आदेश पर उनके समक्ष लाई गयीं। उनने सरसरी निगाह से देखकर कहा कि यहीं छोड़ दें। रात्रि में देख लेंगे सबेरे वापस ले जायँ। सोचा कि अँग्रेजी की किताबें वापस ले चलें क्योंकि पूज्यवर तो उन्हें पढ़ेंगे नहीं। ज्यों ही कार्यकर्त्ता महोदय उन्हें उठाने लगे, आदेश हुआ-सभी किताबें वही रहने दें। आश्चर्यचकित वे सभी पुस्तकें वहीं छोड़ कर चले गये।

अगले दिन अपने पर परमपूज्य गुरु देव ने उन्हें दो घण्टे अपने पास बिठाकर प्रत्येक पुस्तक में कहाँ कहाँ क्या जरूरी है, क्या पढ़ना चाहिए, क्या महत्वपूर्ण है, जो किसी दृष्टि से ध्यान देने योग्य है, यह समझाया। इनमें सौ से अधिक इंग्लिश में लिखी पुस्तकें थीं। बाद में वे बोले कि “ऋषि भाषा के बंधन से मुक्त होते हैं। जो भी श्रेष्ठ चिन्तन जहाँ कहीं भी किसी भी भाषा में किसी ने किया हो, वे उसे हृदयंगम करने की क्षमता रखते है।” अपनी मोटी बुद्धि पर शर्मिन्दा उस कार्यकर्त्ता को

उस दिन उनके विराट रूप की अनुभूति हुई।

परमपूज्य गुरुदेव लीला प्रसंग : 2


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