परोक्ष जगत में सक्रिय वह सर्व समर्थ सत्ता

June 1991

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अलौकिक, अद्भुत लीला प्रसंग जानने की सबकी इच्छा रहती है। कुछ दुनिया की रीति ही ऐसी है कि यह सब सुने बिना उस व्यक्ति के अवतारी पुरुष, युगान्तरकारी व्यक्तित्व के रूप में होने की मन को आश्वस्ति नहीं होती। शिष्यों से घटना प्रसंग सुनकर अन्य व्यक्तियों को यह लग सकता है कि अमुक महापुरुष में हमने कोई ऐसी बात तो देखी नहीं। वे तो एक सामान्य से ही व्यक्त थे। ऐसे, जैसे हमारे घर में रहने वाले दादाजी, नानाजी। सौम्य व्यक्तित्त्व, सतत मुसकान व जीवन के अंतिम वर्षों में थोड़ा सा रौद्र रूप- यही बहिरंग में दृष्टिगोचर होने वाला परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का स्वरूप था। ऐसे में जब हम उनके सरल व्यक्तित्त्व के साथ ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न गायत्री के सिद्ध साधक वाला स्वरूप जोड़ देते हैं तो कुछ घटना प्रसंग व प्रमाण भी आज के बुद्धिवादी युग को देखते हुए जरूरी हो जाते हैं, मोटी दृष्टि-विज्ञान के, प्रत्यक्षवाद के चश्मों से पार देखती दृष्टि यही सब कुछ देखती है। किन्तु श्रद्धा जिसकी प्रगाढ़ हो, उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। श्रद्धा स्वयं में एक सशक्त मान्यता प्राप्त विज्ञान है।

रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविन्द, महर्षि रमण, स्वामी विवेकानन्द जैसे कुछ विगत एक सदी में भारत में जन्मे महापुरुषों का जीवन हम देखते हैं तो पाते हैं कि ज्ञान व विज्ञान का अद्भुत सम्मिश्रण उनके जीवन प्रसंगों से जुड़ा रहा है। एक ओर वे ज्ञानेन्द्रियों की सीमा में आने वाले प्रत्यक्ष विज्ञान की कसौटी पर कसे जाने वाले प्रसंगों का विवेचन करते दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर गुह्य विज्ञान, रहस्यवाद व परोक्ष विज्ञान की परिधि में आने वाले घटनाक्रम भी उनके जीवन में घटित होते दिखाई देते हैं। साधना द्वारा अपने प्रसुप्त को जगाकर इन सभी ने वह उच्चस्तरीय स्थिति प्राप्त की थी, जिसे साधना की चरमावस्था कहा जाता है या साधना से सिद्धि का अंतिम सोपान माना जाता है। यही सब कुछ परम पूज्य गुरुदेव के अस्सी वर्षों के जीवन का नवनीत भी है। विज्ञान व अध्यात्म का समन्वय करने वाले इस ब्रह्मर्षि ने अपने जीवन माध्यम से मनोविज्ञान, अतिचेतन व उससे जुड़ी उच्चस्तरीय शक्तियों का जो परिचय अपने निकटस्थ परिजनों को दिया उससे बड़ी साक्षी परामनोविज्ञान व गुह्य विज्ञान जैसी विधाओं में मिल नहीं सकती।

जो परम पूज्य गुरुदेव को सामान्य मनुष्य मानते रहे, उनके दुर्भाग्य को क्या कहा जाय पर जो भी उनके अलौकिक अवतारी-अतिमानवी रूप को समझ व हृदयंगम कर पाया, उसका आध्यात्मिक कायाकल्प हो गया। यों पत्रों, घटनाक्रमों, प्रत्यक्ष चर्चा व अनुभूतियों के माध्यम से इसका परिचय उनने अनगिनत व्यक्तियों को दिया। जो भौतिक अनुदान मात्र पाने की ललक तक सीमित रहे, वह वहाँ से आगे नहीं बढ़ सके। जो थोड़ा भी पुरुषार्थ आत्मिक प्रगति की दिशा में कर सके उन्हें सतत प्रवाह सशक्त चेतना का मिला रहा। यों उनने सुपात्रों को अपना शाश्वत रूप दिखाने का प्रयास प्रारंभ से ही किया था।

11 सितम्बर 1963 को लिखे एक पत्र में परम पूज्य गुरुदेव एक परिजन को लिखते हैं-”रामकृष्ण परमहंस का चित्र पूजा के स्थान पर रखने में हर्ज नहीं। अब से तीसरा पूर्व शरीर हमारी ही आत्मा ने रामकृष्ण परमहंस का धारण किया था। वही आत्मा आपके वर्तमान गुरु रूप में विद्यमान है।” इतने स्पष्ट संकेत पूज्यवर ने कभी-कभी ही किए थे। एक और परिजन को 13-3-70 को लिखे पत्र में (अज्ञातवास पर जाने से सवा साल पूर्व) उनने लिखा-”भविष्यवाणी सच्चाई समय सिद्ध कर देगा। उसका सीधा संबंध हमीं से है। लोग समय पर पहचान नहीं पाये, पीछे पछताएंगे। हम कहीं भी चले जायँ, कहीं भी रहें, आपका जीवन लक्ष्य पूरा कराने का पूरा ध्यान रखेंगे। आपको हम अपनी नाव में बिठाकर पार करेंगे।” क्या भविष्यवाणी थी व क्या लोग पहचान नहीं पाए, यह सब भली भाँति समझ सकते हैं।

भविष्य के गर्भ में झाँककर सब कुछ जान लेना पहले से ही भवितव्यता की जानकारी देना, सीमित दृष्टि वाले हम सामान्य मानवों को सचेत करते रहना महापुरुषों की रीति-नीति होती है। परम पूज्य गुरुदेव के जीवन से जुड़े इतने घटनाक्रम हैं जिनमें उनने पहले से ही परोक्ष हलचलों की जानकारी संबंधित व्यक्तियों को दे दी थी व उन्हें साधना पुरुषार्थ में जुटाकर संभावित विपत्ति को टाल दिया या हल्का बना दिया था।

एक परिजन अपनी अनुभूति में व्यक्त करते हैं कि 15 फरवरी सन् 1958 को उन्हें पूज्यवर का एक पत्र प्राप्त हुआ कि “तीन माह भारी विपत्ति के हैं इस अवधि में उन्हें विशेष सावधानी रखनी चाहिए। सूचना वे उन्हें दे रहे हैं पर मौत उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकेगी।” पत्र प्राप्ति के बाद वे विशेष सतर्क रहने लगे। कुछ दिनों बाद कुछ न होने पर वे असावधान हो गए। एक दिन दोपहर को वे साइकिल से तेजी से बैंक की ओर जा रहे थे कि अचानक मोड़ पर खाली ट्रक साइकिल पर चढ़ गया। साइकिल दूर जाकर गिरी व वे आधे इंजिन के नीचे आधे बाहर की ओर ऐसे ट्रक के नीचे गिरे। कई व्यक्ति दौड़े आए व उन्हें ट्रक के नीचे से बाहर निकाला। देखा तो वे पूर्णतः स्वस्थ थे, कहीं खरोंच भी नहीं आई थी। साइकिल ठीक होने दी व वापस घर की ओर चल पड़े। घर जाकर देखा पोस्टमैन चिट्ठी डाल गया था। पूज्यवर का पत्र जिस दिन मिलेगा, वह दिन तुम्हारे संभावित संकट का अंतिम दिन होगा।” उनने आश्चर्य से तारीख देखी। ठीक तीन माह पूरे हो गये थे। उस दिन 15 मई थी, स्वयं पूज्य गुरुदेव उनके साथ इस अवधि में बने रहे, यह सोच-सोच कर ही उनकी आँखों से अश्रुप्रवाह होने लगा व अनुभूति हुई कि कितनी बड़ी सत्ता का संरक्षण उनके साथ था।

एक सज्जन ने अपनी संभावित मृत्यु व दुश्मनों द्वारा किये जा रहे ताँत्रिक अनुष्ठानों की जानकारी पूज्यवर को पत्र द्वारा दी। पत्रोत्तर आया कि “आपका मारकेश हमारे यहाँ रहते सफल नहीं होगा। हम अभी पौने नौ वर्ष इधर हैं, तब तक आप पूर्ण निश्चिंत रहें।” यह पत्र 28 सितम्बर 1962 को लिखा गया था। वे सज्जन परम पूज्य गुरुदेव की मथुरा से विदाई तक स्वस्थ जीवन जीकर सारे दायित्वों से मुक्त होकर निश्चिन्त तिथि में जुलाई, 71 में महाप्रयाण कर गए। सारी प्रतिकूलताओं से अपने भक्त को बचाकर भविष्य पर इतना सशक्त अधिकार और कौन−सी सत्ता जता सकती है?

1982 का एक घटना प्रसंग है। गुजरात पंचमहल जिले की एक महिला की युवा बेटी रहस्यमय परिस्थितियों में घर से लापता हो गई। सब ओर से निराश वह हरिद्वार आये। यहाँ वह कच्छी आश्रम में ठहरे। वहाँ के स्वामी जी के कहने पर वह पूज्य श्री के दर्शनार्थ व अपनी वेदना कहने शाँतिकुँज आये। कहने का मौका मिला तो आँखों से मात्र अश्रु ही निकले। पूज्यवर ने सारा घटनाक्रम समझते हुए उससे कहा-”परेशान न हों। बेटी घर आ जाएगी। कुछ समय लगेगा। बेटी का फोटो भिजवा देना। माँ गायत्री से प्रार्थना करेंगे।” फोटो ब्रह्मवर्चस् के एक कार्यकर्ता के माध्यम से पूज्यवर के पास पहुँचा दिया गया। इसके बाद दो-तीन पत्र दुखियारी माँ के आ गए कि अभी तक बेटी नहीं आई। छः माह से ऊपर होने को आ रहे हैं। कार्यकर्ता महोदय पुनः पूज्यवर से आकर उसकी समस्या बताने लगे तो बताया गया कि “बेटी शारदा अभी गर्भवती है। अतः यात्रा करने में दिक्कत है। जहाँ भी है, वह सुरक्षित है। प्रसव के बाद वह माँ के पास पहुँच जाएगी।” ऐसा ही हुआ। कुछ ही दिनों बाद नवजात शिशु सहित वह माँ व उसकी माँ जिसने अपनी अर्जी पूज्यवर के दरबार में लगाई थी शाँतिकुँज आए व स्वयं को कृतकृत्य मानते हुए चरणों में नमन किया।

ऐसे एक नहीं अगणित घटना प्रसंग हैं जिनमें पूज्य गुरुदेव ने व्याकुल-दुखी-क्षुभितों को संकट या विपत्ति से मुक्ति दिलाई। भविष्य में क्या कुछ होने वाला है, इसका विस्तार तो नहीं, फलश्रुति बताते हुए साधना पुरुषार्थ में उन्हें जुटा दिया तथा सारा श्रेय माँ गायत्री को दिया। राजनाँदगाँव (म.प्र.) के एक सज्जन लिखते हैं कि उनका ज्येष्ठ पुत्र उन्माद जनित मनोविकार से ग्रसित होकर घर से निकल गया। चार साल तक घर नहीं लौटा। अपनी परेशानी जान बूझकर पूज्यवर को नहीं लिखी क्योंकि कभी लौकिक दृष्टि से कुछ नहीं माँगा था। बच्चे की माँ एक माह के सत्र में शाँतिकुँज आई थी। व्यक्तिगत भेंट-मुलाकात के क्रम में वह रो पड़ी व बोल उठी “पिताजी! हमारे बच्चे का पता बताइये। वह जीवित है कि नहीं। है तो वापस बुला दें, चाहे वह कैसी भी मनःस्थिति में हो।” पूज्य गुरुदेव बोले-”बेटी! तुम हमारा काम करते रहो। हम तुम्हारा काम जरूर करेंगे।” बच्चे की माँ के घर लौटने के एक सप्ताह के अंदर चमत्कारिक ढंग से बच्चा लौट आया और वह भी पूर्णतः स्वस्थ। मिशन के कार्यों में पूर्ण समर्पित कर एक अनुदान देकर उस परिवार को उनने चिर ऋणी बना लिया।

सम्प्रति मथुरा गायत्री तपोभूमि में कार्यरत एक वरिष्ठ कार्यकर्ता की पत्नी उन्हें उलाहना देती थीं कि वे उनके छोटे भाई के बारे में पूज्यवर से क्यों नहीं पूछते? इन सज्जन के साले बचपन में ही घर छोड़ कर चले गए थे। कहीं पता नहीं चल पा रहा था कि जीवित हैं भी कि नहीं। पत्नी के बहुत आग्रह करने पर उनने साले के घर से जाने के प्रायः पंद्रह वर्ष बाद परम पूज्य गुरुदेव को पत्र लिखा। 6-7-1970 की ही तारीख में लिखा पत्र जो तेल अबीब (इजराइल) से चला था, उनके लापता साले साहब की हस्तलिपि में उन्हें दस दिन बाद प्राप्त हुआ जिसमें उनने अपने भारत आने की सूचना दी थी। जिस दिन पूज्यवर ने पत्रोत्तर दिया उस दिन वे लापता युवक से संपर्क स्थापित कर (दिक्काल से परे) उसे घर लौटने की प्रेरणा दे चुके थे।

दिल्ली के एक वरिष्ठ व विगत पैंतालीस वर्षों से परम पूज्य गुरुदेव से जुड़े परिजन को पूज्यवर ने 21-12-1954 को एक पत्र लिखा- “वशिष्ठ के रहते हुए भी रघुवंशियों को और कृष्ण तथा धौम्य के साथ रहते हुए भी पाण्डवों को कठिनाइयों से गुजरना पड़ा था। हम भी अपनी सामर्थ्य के अनुकूल ही आप लोगों की सहायता कर रहें हैं। मंजिल तो आपको ही पार करनी पड़ेगी।” इसके पश्चात् वे लिखते हैं- “तारीख 12 की घटना की सूचना मिली। अपना लक्ष्य किसी पर आक्रमण करना नहीं है पर किसी के हमलों को निष्फल करने में बहुत कठिनाई नहीं होती। आप लोगों के संरक्षण की व्यवस्था हमने कर दी है।” पत्र में आत्म पुरुषार्थ व परोक्ष सहायता दैवी संरक्षण का विलक्षण समन्वय है। इन्हीं सज्जन को 13-5-1955 को लिखे एक पत्र में उनने लिखा “विवाह का विस्तृत समाचार जाना। वह सब समाचार पूर्ण रूप से हमें मालूम है क्योंकि हमारा सूक्ष्म शरीर इस समय चौकीदार की तरह वहीं अड़ा रहा है और विघ्नों को टालने के लिए, शत्रुओं को नरम करने के लिए, आपत्तियों को हटाने के लिए जो कुछ बन पड़ रहा है सो बराबर करता रहा है। फिर भी आपके पत्र से सब बातें भली प्रकार विदित हो गयीं। सब कार्य कुशलपूर्वक हो गया। यह आपके पुण्य सद्भाव और बुद्धि चातुर्य का फल है। माता की कृपा तो सर्वोपरि है ही।”


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