दस वर्षों तक देव कन्या के रूप में वंदनीय माताजी के पास रही एक बच्ची के पिता अपनी अनुभूति में लिखते है कि जब वह आठवीं कक्षा में पढ़ रही थी, तब परम पूज्य गुरुदेव उनके यहाँ एक विराट यज्ञायोजन में पधारे थे। जैसे ही उस बालिका ने पूज्यवर के चरण स्पर्श किए, पूज्य गुरुदेव बोल उठे “इसकी शादी जल्द मत कर देना। उसका विवाह मैं करूंगा। यह मेरी बेटी है। इसे खूब पढ़ाना है भारतीय संस्कृति का शिक्षण देना है। यह माताजी के पास रहेगी। लौटकर यह प्रोफेसर बनेगी व नारी जागृति का खूब काम करेगी।”
कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि 11-12 वर्ष की कन्या में ऐसा वे क्या देख रहे थे। किन्तु त्रिकालदर्शी सत्ता ने जैसा देखा वैसा ही हुआ। दो वर्ष बाद ही वह बच्ची वंदनीया माताजी के चौबीस करोड़ के कुमारिकाओं द्वारा दिये जा रहे अनुष्ठान में हरिद्वार में तप कर रही कन्याओं में सम्मिलित हो गयी। नौ वर्ष वहाँ रहकर वह गयी, कॉलेज में प्रोफेसर बनी व गायत्री परिवार के एक सुशील युवा से उसका विवाह हुआ। वे सब कुछ देखते समझते व भविष्य के बारे में इशारा कर देते थे।
ऊपर की पंक्तियाँ कितने निश्छल अंतःकरण से लिखी गयी है। एक ओर वे स्पष्ट लिख रहे हैं कि आप पत्र देते रहें पर हम वहीं पर सूक्ष्म शरीर से विद्यमान हैं, अर्थात् ऊपरी जानकारी आये न आये, हमारा संरक्षण तो यथावत है। दूसरी ओर वे कहते हैं कि श्रेय उन्हें नहीं, शिष्य के पुण्य व माँ की कृपा को जाता है। कोई अहसान नहीं, कोई श्रेय लेने का संरक्षक भाव थोपने का भाव नहीं। यह एक कृपालु सिद्ध संत का स्वरूप है पूज्यवर का।
22 जुलाई 1962 को लिखा टीकमगढ़ के एक सज्जन के नाम पत्र भी कुछ इसी प्रकार है। “गुरु पूर्णिमा के दिन आप के जीवन के लिए एक अनिष्ट था। वही सर्प रूप में प्रस्तुत हुआ था। आप को चिन्ता न बढ़े, इसलिए बताया नहीं गया था। वह अनिष्ट टल गया। आपकी जीवन रक्षा हो गयी, यह बड़े संतोष की बात है। उस अनिष्ट को टालने में हमारी आत्मा स्वयं ही आपके पास थी। अब इस प्रकरण को समाप्त हुआ ही समझें।” “अनगिनत शिष्य, सब एक से एक निकट। किन्तु सबका ध्यान इतना कि विभिन्न रूपों में सहायता पहुँच कर उनकी रक्षा करना, यह विभिन्न लीला किसकी हो सकती है?
परोक्ष जगत में विचरण कर सूक्ष्म शरीर से विभिन्न रूपों में सहायता पहुँचाने, भवितव्यता को जानकर पहले ही संकट को निरस्त कर देने या उसकी सूचना किन्हीं रूपों में देकर पुरुषार्थ उभारने की प्रेरणा देने का कार्य महामानव सदा से करते आए हैं। परम पूज्य गुरुदेव अवतारी सत्ता की उसी कड़ी में से एक थे। उनके हाथों से लिखे एक दुर्लभ पत्र का हवाला देते हुए एक घटना का उल्लेख यहाँ करना चाहेंगे। 29-12-61 को उनने जबलपुर के एक वरिष्ठ परिजन को पत्र लिखा। -”श्री रणछोड़ जी की आत्मा ता. 22 की रात को हमारे पास आई थी। करीब एक घण्टा उनसे मिलन होता रहा। फिर वे ब्रह्म लोक को चले गए। तारीख 23 को हम उनका श्राद्ध तर्पण करने हरिद्वार चले गये थे। कल ही वापस लौटे हैं। आपके पत्र में भी वही समाचार पढ़ा। उनकी आत्मा को पूर्ण शान्ति है और सद्गति मिली है। स्वर्गीय आत्मा ने आपको तथा अपने परिवार को आशीर्वाद भिजवाने का संदेश कहा है। यह पत्र आप उनके बच्चों को सुना दें। उन के दुख में हम भी दुखी हैं। अब शोक को धैर्य और विवेक द्वारा शाँत करना ही उचित है।”
उपरोक्त पत्र बानगी है दिव्यात्मा से संबंध स्थापित करने की महापुरुषों के सामर्थ्य की। जिन सज्जन के दिवंगत होने पर सभी दुखी थे, वहाँ वे सभी यह जानकर कि वे अब पूरी तरह मुक्त हैं, उनका श्राद्ध-तर्पण स्वयं गुरुदेव द्वारा सूक्ष्म शरीर से यात्रा करके हुआ है, आश्वस्त हो गए व मन को अपार शाँति मिली।
लेखनी कहाँ तक बयान करे उन सब घटनाक्रमों का जो लाखों परिजनों के साथ भिन्न भिन्न रूपों में समय-समय पर घटते रहे। उनका शून्य में देखकर कह उठना कि “अमुक-अमुक नहीं आए। आ जाते तो उनसे मिलना हो जाता। अब तो उनकी शरीर यात्रा पूरी हो गई” व तभी उन सज्जन का यह पार्थिव देह डेढ़ हजार किलो मीटर दूर छोड़ देना क्या यह नहीं बताता कि वे सब कुछ देख सकने में समर्थ थे। गायत्री की सिद्धि की पूर्णता को प्राप्त वह ऋषि मुख से जो वाक्य निकालता था वह वरदान रूप में तीर की तरह लगता था। ऐसी सत्ता हम सब के जीवन में सौभाग्य बनकर आई, यह सोचने के साथ-साथ यदि उनके बताए निर्देशों पर चलें तो सूक्ष्म व कारण शरीर की उनकी सत्ता सतत हमारा मार्गदर्शन कर हमारा पथ प्रशस्त करती रहेगी।