चुरु के एक तेजस्वी कार्यकर्ता के छोटे भाई को जन्म से हाथ-पैरों व नितम्बों में लकवे जैसी स्थिति थी। हड्डियां उपास्थियों के रूप में छोटी-छोटी थीं जो मुड़ जाती थीं। हलचल भी नहीं। बड़े दुखी थे। विदाई के पूर्व परम पूज्य गुरुदेव ने अप्रैल 1971 में उनसे उनके साँसारिक कष्टों के विषय में पूछा तो उनने अपना कोई कष्ट न कहकर छोटे भाई की वेदना बताई। पूज्यवर ने कहा कि “मैं माता से प्रार्थना करूंगा कि वह चलने फिरने योग्य हो जाय।” एक रक्षा कवच दे दिया गया।
कवच पहनाने के 2 माह बाद पूरे शरीर पर सूजन आ गयी व धीरे-धीरे उसके उतरते ही हाथ पैरों पर माँस चढ़ने लगा। हाथ पैरों में भी गति आ गयी। बालक घूमने-फिरने लगा। हाथ पैर उसके पुष्ट हो गए व अब वह एक सामान्य किशोर के रूप में विकसित हो कॉलेज में पढ़ाई कर रहा है। क्या कुछ नहीं दे दिया पूज्य गुरुदेव ने अपने वरदान के साथ?
गायत्री मंत्र का दूसरा शिक्षण यह कि मनुष्य के पास शरीर और मन की जो शक्तियाँ हैं, उन्हें वासना के द्वारा नष्ट नहीं करना चाहिए। उन्हें संग्रहीत और निग्रहीत करना चाहिए। अपने आपको समेटना चाहिए, बिखेरना नहीं। आँख, नाक वाणी, कान, कामेन्द्रिय आदि अपव्यय के लिए नहीं सद्व्यय के लिए मिले हैं। अगर हम इसे देख समझ सकते हों तो हमारे जीवन का पचास फीसदी भाग जो हमारी इन्द्रियों के द्वारा नष्ट होता चला जा रहा है, वह बच सकता है।
तीसरा शिक्षण यह कि हम अपने लोभ-लालच को अपनी कामना-तृष्णा को निग्रहीत कर सकें तो हममें से हर आदमी कबीर बन सकता है। क्या कबीर को रोटी नहीं मिलती थीं? रैदास, मीरा, गाँधी को रोटी नहीं मिलीं? किसको रोटी नहीं मिली? और जिनको खूब मिली, उन्होंने कोशिश की कि रोटी के ऊपर रोटी रखकर खाएँ पर वे खा नहीं सके। अगर उन्होंने अपनी इच्छा और अक्ल मोड़ दी होती लोकमंगल के लिए, तो फिर वे सरदार पटेल हो जाते, महामना मालवीय हो जाते, देवदूत हो जाते, भगवान हो जाते। पर तीन ही राक्षस-पिशाच हैं जो हमको खा गए। दुर्गा के आख्यान में तीन ही राक्षसों का नाम आता है महिषासुर, मधुकैटभ, शुम्भ-निशुम्भ। देवताओं को पराजित करने वाले इन तीन असुरों की तरह अहंता-तृष्णा और वासना रूपी असुर हमारी देव शक्तियों को नित्य खाये जा रहे हैं।
त्रिपदा गायत्री की धारा जिसका कि आज जन्म दिन है, इसलिये इस विश्व में आई थी कि गायत्री मंत्र के शिक्षण द्वारा-अर्चा पूजन, अनुष्ठान द्वारा अपनी तीन धाराओं को प्रवाहित करे कि “मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कर्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़।”
आज गायत्री का दिन हमारे और आपके लिए संदेश लेकर आया है कि हमको चिन्तन-मनन करना चाहिए। हजार बार सोचना चाहिए कि क्या हमारा जीवन प्रभु की इच्छाओं पर चलने वाला जीवन है? हमें जो विभूतियाँ मिली थीं, सामर्थ्य मिली थीं, उन्हें क्या हम मानव जीवन और भगवान के उद्देश्यों के अनुरूप खर्च कर रहे हैं या हम पेट के गुलाम होकर ही जी रहे हैं। जो इन्द्रियाँ हमारे पास हैं, जिन्हें हम दुनिया में शान्ति और सुविधा उत्पन्न करने में खर्च कर सकते थे, क्या हम उन्हें पतन के लिए खर्च नहीं कर रहे? इन तीनों प्रश्नों पर आज हमें तीन हजार बार विचार करना चाहिए।