1958 के सहस्रकुण्डी गायत्री महायज्ञ की तैयारी चल रही थी। परमपूज्य गुरुदेव ने 1940 से जुड़े बाँदा (उ.प्र.) के एक परिजन को बुलाकर निर्देश दिया कि वे हिमालय से अपने वाले ऋषियों के आतिथ्य का कार्य भार हाथ में लें। उन्हें पाद-प्रक्षालन कर अलग से कंद-फूल-फल द्वारा उनका सत्कार करने का निर्देश मिला। यज्ञ शुभारंभ से कुछ पूर्व ही सूक्ष्म ऋषिसत्ताएँ इस पावन प्रयोजन पर शरीर धारण कर आयीं। यज्ञ स्थल की परिक्रमा के बाद एक अलग कक्ष में उन्हें स्वल्पाहार कराया गया। मात्र परमपूज्य गुरुदेव व वे परिजन इस पूरे घटनाक्रम के साक्षी हैं और किसी ने न यह सब देखा न किसी को स्मरण ही है कि उस पूरी अवधि में पूज्य गुरुदेव मुख्य यज्ञ कुण्ड छोड़ कर कहीं और भी गए थे?
एक पत्र में कार्यकर्ता को वे लिखते हैं कि वे अपनी धर्मपत्नी को उपासना के लिए प्रेरित करें, उन्हें मार्गदर्शन देते रहें। वे लिखते हैं “आपकी धर्मपत्नी इतिहास में अमर रहने वाली महापुरुषों की माताओं से एक होंगी। उसके अनुरूप ही उन्हें बनना है।” यह कितनी सशक्त प्रेरणा है, जिसके माध्यम से परम पूज्य गुरुदेव ने गृहस्थ संस्था में एक अभूतपूर्व क्रान्ति कर दी। उन्हें समय के अनुरूप संन्यासियों की नहीं, सही जीवन जीने वाले सद्गृहस्थों की आवश्यकता थी। उन्हीं के माध्यम से जन-जन तक पहुँच सकने वाली क्रान्ति संभव थी। आज पीछे मुड़ कर देखते हैं तो लगता है कि कितनी बड़ी प्रक्रिया उस महामानव के माध्यम से संपन्न हुई। श्रेष्ठता की ओर साथ यात्रा करने वाले, सही जीवन कला सीखकर वैसा ही जीवन में उतारने वाले सुसंस्कारी सद्गृहस्थ-दंपत्ति उनने युगनिर्माण परिवार के रूप में दिए, यह एक चमत्कार नहीं तो और क्या है? अपने परिवार के एक-एक बच्चे की उन्हें कितनी चिन्ता रहती थी, यह इस पत्र से स्पष्ट होता है, जो उनके द्वारा 3-10-58 को बरेली की एक बहिन को लिखा गया -”बच्चे के लिए जो अनिष्ट है उसे हम तुम से भी अधिक स्पष्ट रूप में देखते हैं। उसे टालने की हमें पूरी-पूरी चिन्ता है और तुम्हें बिना बताए ही जो कुछ संभव है सो हम सब कुछ कर रहे हैं। तुम्हारा बच्चा हमें अपने बच्चे से अधिक प्रिय है।” आज वह बालक मिशन का एक सशक्त कार्यकर्ता है व प्राणपण से नवनिर्माण के प्रयोजनों में लगा हुआ है। श्रेष्ठ आत्माएँ कहाँ व कब अवतरित हों, इस संबंध में वे समय समय पर पत्र द्वारा तथा लेखों द्वारा दिग्दर्शन कराते रहते थे।
अक्टूबर 1967 में “महाकाल एवं उसकी युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के अंतर्गत पूज्यवर ने “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका में लिखा कि “विशेष प्रयोजन के लिए विशिष्ट आत्माओं का अवतरण हो चुका है। परिवर्तन प्रक्रिया की पृष्ठभूमि तैयार करने की ईश्वरीय जिम्मेदारी कुछ विशेष आत्माओं पर सौंपी गयी है। उन्हीं को “अखण्ड-ज्योति परिवार “ के अंतर्गत संगठित कर दिया गया है। जो आत्माएँ बाहर हैं, वे भी अगले प्रवाह में साथ हो लेंगी।” इन आत्माओं का आह्वान वे 1971 के बाद अखण्ड-ज्योति के लेखों द्वारा सतत् करते रहे। 1980-81 में जब शाँतिकुँज में देव परिवार बसाने की उनने चर्चा की तब भी इसी पक्ष को प्रधानता दी। बाद में 1988 में 12 वर्षीय युग संधि पुरश्चरण आरंभ करते समय भी विशिष्ट आत्माओं के जन्म लेने की, या जन्म ले चुकी हैं तो उन्हें आत्म बोध होने की उनने बार-बार चर्चा की। शाँतिकुँज द्वारा इस वर्ष चलाए गए देवस्थापना कार्यक्रम के मूल में भी परम पूज्य गुरुदेव का ही निर्देश व प्रेरणा है कि इसी माध्यम से देव शक्तियाँ अवतरित हों युग परिवर्तन का मूल प्रयोजन अगले दिनों पूरा करेंगी।
जिन्हें पत्रों द्वारा, पत्रिका द्वारा अथवा व्यक्तिगत संपर्क के माध्यम से परमपूज्य गुरुदेव के दैवी अनुदान भिन्न-भिन्न रूपों में मिले, वे भूल न जाएँ कि किस सत्ता से उनका साक्षात्कार हुआ था, आश्वासन दिया गया है कि सूक्ष्म कारण शरीर से वे बराबर उन सभी को झकझोरते रहेंगे। पहले जो कार्य प्रत्यक्षतः किया था, उसी को परोक्ष रूप में पूरे विश्वभर में विस्तारित करने हेतु ही स्थूल काया के बंधन से परम पूज्य गुरुदेव मुक्त हुए हैं। यह स्मरण आते ही हमें अपनी नित्य साधना में उनकी अनुभूति सहज ही होने लगेगी।