परम पूज्य गुरुदेव की लेखनी, जो पत्रों व पत्रिकाओं द्वारा संजीवनी बनकर जन-जन तक पहुँची, से अनगिनत परिजनों को नूतन प्राण मिले हैं। जिनने उनकी वाणी सुनी है, वे जानते हैं कि वह सीधे अंतस् में प्रवेश कर व्यक्ति का कायाकल्प कर देती थी। उनके एक महत्वपूर्ण उद्बोधन के महत्वपूर्ण अंशों का अविकल रूप यहाँ उसी की जानकारी देने के लिए प्रकाशित किया जा रहा है। तीन जून, 1971 गायत्री जयंती को गायत्री तपोभूमि मथुरा में दिया गया उनकी कर्म भूमि का यह अन्तिम पर्व उद्बोधन था। इस वर्ष गायत्री जयंती (21 जून 1991) पर उनके महाप्रयाण (2 जून 1990) के ठीक एक वर्ष बाद उसी गुरुवाणी को सुविज्ञ भावनाशील पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिये “ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।”
यह विश्व जब बना तब मानव भी अन्य प्राणियों की भाँति उसी तरह का था जैसा कि सभी प्राणी अपना शरीयापन करने के लिए संघर्ष करते, भूख पूरी करने के लिए परिश्रम करते और पैदा करने में लगे रहते हैं। ब्रह्माजी विचार करने लगें “इतना परिश्रम जो मनुष्य के ऊपर किया गया, किसलिए किया गया? अगर मनुष्य को भी कीड़े-मकोड़े की तरह जीना था तो उसके लिए इतना सारा परिश्रम किस लिये?” ब्रह्माजी ने विचार किया कि यदि यह प्राणी भी अन्य प्राणियों की तरह पेट पालता रहा, बच्चे पैदा करता रहा और अपने अहंकार की पूर्ति के लिए आपस में संघर्ष करता रहा तब फिर इतना परिश्रम बेकार गया समझा जाना चाहिए। विचार करने के बाद ब्रह्माजी ने कहा-”मनुष्य जिन विशेषताओं के लिए बनाया गया है, उसे विशेषताओं के लिए कुछ अनुदान भी देना चाहिए” ओर वह अनुदान उसे “ऋतम्भरा प्रज्ञा” का दिया गया। विवेकशीलता, विचारशीलता, उच्चकोटि के आदर्शों में निष्ठ इन सब चीजों समन्वय का नाम है- “ऋतम्भरा प्रज्ञा।” ऋतम्भरा प्रज्ञा अर्थात् विवेकशीलता, विवेकशीलता अर्थात् उन उद्देश्यों को याद रखना जिनके लिए भगवान ने मानव प्राणी को बनाया। इस ऋतम्भरा प्रज्ञा की, इस विश्व के प्रारम्भ में इस संसार स्वर्ग से गंगा भगीरथ के द्वारा लाई गई।
ऋतम्भरा प्रज्ञा की धारा, आध्यात्मिक धारा स्वर्गलोक से आई, देवताओं से जमीन पर आई और मनुष्यों में प्रवाहित होने लगी। मनुष्यों में जब वह धारा प्रवाहित होने लगी, तब ऋतम्भरा प्रज्ञा का नाम पूजा-उपासना की, आध्यात्मिकता की भाषा में रखा गया -गायत्री विद्या, ब्रह्म विद्या। आज उसी महान शक्ति का जन्म दिन है। वह महान शक्ति मनुष्य की तमाम शक्तियों को उभारने वाली है।
ऋद्धियों और सिद्धियों के बारे में अनेक बातें बताई जाती हैं। यह कहा जाता है कि मंत्र अनेक सामर्थ्यों के पुँज हैं, शक्तियों के-सिद्धियों के पुँज हैं। क्या यह बात सही है? हाँ, यह बात यह बात सही है, यदि गायत्री महामंत्र के स्वरूप को समझा जाए और जीवन में धारण किया जाय, तब। गायत्री का स्वरूप ही न समझा जाय और उपासना उसकी जिस तरीके से की जाती है, उस तरीके से न की जाय तो उससे न तो भीतर से सिद्धियाँ उपजती हैं, न विभूतियाँ। स्वरूप क्या? स्वरूप यह कि मनुष्य का जो विवेक सो गया है, उसे जाग्रत किया जाय।
ऋतम्भरा प्रज्ञा यह सिखाती है कि “मनुष्य! अहंकार में डूबे मत! बड़े आदमी बनने की चाह और ललक से अपने जीवन को बरबाद करे मत।”ऋतम्भरा प्रज्ञा के तीन शिक्षण हैं, गायत्री मंत्र के तीन चरण हैं। ऋतम्भरा प्रज्ञा अर्थात् ब्रह्म विद्या-ऋद्धियों-सिद्धियों से भरी विद्या। इसका स्वरूप समझा जाना चाहिए जैसा कि मैं आपको समझा रहा हूँ और जैसा कि मैंने अपने जीवन में इस महाविद्या का स्वरूप समझने की कोशिश की।
मैंने ऋतम्भरा प्रज्ञा का पहला चरण यह समझने की कोशिश की कि मनुष्य को यश का भूखा नहीं होना चाहिए, बड़प्पन का भूखा नहीं होना चाहिए, अहंकार का पुतला नहीं होना चाहिए। दूसरों के ऊपर अपना रौब गालिब करने का और दूसरों की आँखों में बड़ा आदमी बनने का इच्छुक नहीं होना चाहिए। अगर आदमी इस तरह का बन गया तब उसका सारा सामर्थ्य और सारी की सारी जो विशेषताएँ हैं, भगवान ने जिनके लिए मनुष्य को बनाया है, वे उसके पास रह नहीं जावेंगी। मनुष्य निकम्मा और बेकार होकर रह जाएगा। मनुष्य का अहंकार जब तक बना रहा, उसकी पूर्ति में जब तक वह इच्छुक है, तब तक वह भगवान की इच्छा को पूरा नहीं कर सकता। न उसके पास समय बच सकता है, न शक्ति,न पैसा बच सकता है। अहंकार आदमी का बादल के बराबर, सुरसा के मुँह के बराबर है। इतना बड़ा है कि उसमें एक जीवन क्या, हजारों जीवन समाप्त हो जाएँ तो भी इसकी पूर्ति नहीं हो सकती। ऐसा आदमी भगवान के लिए काम कर सकता है? नहीं। लोकमंगल और आत्मकल्याण के लिए काम कर नहीं सकता। समय और शक्ति को बरबाद करने वाले अहंकार को मिटाना ऋतम्भरा प्रज्ञा का गायत्री मंत्र का पहला चरण है।
दूसरा चरण यह कि मनुष्य को अपनी दो शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इतना व्याकुल-बेचैन नहीं होना चाहिए। मनुष्य को जो शरीर मिला वह उसे पहनने का लिबास मात्र है, आदमी का निवास है घोड़ा है साइकिल है और इस साइकिल के लिए इतना बेचैन नहीं होना चाहिए कि सवार की इच्छा, आवश्यकता को ही भूल जाये। कलेवर की, इस शरीर की दो आवश्यकताएं हैं-एक वह कि आदमी को भूख लगा करती है और रोटी की जरूरत होती है और भगवान ने, जिस दिन वह पैदा हुआ था यह विश्वास दिलाया था कि “मनुष्य जब तक तू जिन्दा रहेगा, तब तक बराबर कोशिश करता रहूँगा और बराबर तेरी सहायता करता रहूँगा। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाएगा कि अगर तू अपना पुरुषार्थ करता रहा तो पेट भरने के के लिए कमी पड़े।” भगवान ने, जिस दिन “मनुष्य पैदा हुआ था, यह शिक्षण दिया था कि माँ के पास गरम-गरम दूध के डिब्बे तुम्हारे लिए रखे हैं और यह सुविधा हमने इसलिए दी है कि जन्म होने पर तुम्हें यह मालूम पड़े कि हमारे ऊपर कोई संरक्षक शक्ति है।” उसने यह शिक्षण दिया था, पैदा हुआ था मनुष्य जब, कि तेरे लिए धोबिन तैयार तेरे कपड़े धोने के लिए, तेरा खर्च उठाने के लिए तेरा बाप तैयार, ये मेरे नुमाइन्दे हैं तेरे लिए । मनुष्य पेट के लिए भटकना मत। पेट के लिए सिद्धान्तों को भूलना मत। पेट मैं तेरा भरता रहूँगा। जब कीड़ों-मकोड़ों का सबका भरता हूँ तो तुझे पेट भरने के लिए कर्तव्य जरूर करना चाहिए लेकिन अपनी अक्ल और भावना को उस पर बलिदान नहीं करनी चाहिए। लेकिन हाय रे मनुष्य। गायत्री मंत्र के इस शिक्षण को लात से रौंदता चला गया और यह उम्मीद लगाता रहा कि उसे भगवान का प्यार मिलेगा, ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ मिलेंगी। कैसे सम्भव था यह?
तीसरा चरण एक और था। इन्द्रियाँ मनुष्य की बनाई गयी थीं इसलिए कि मनुष्य का जीवन आनन्द से भरा हुआ रहे, उल्लास से भरा हुआ रहे। इस विवेकशील प्राणी को हँसने-हँसाने की, उल्लास की विद्या आनी चाहिए। इसके लिए उसे जिव्हा, कान, आँखें एवं कामेन्द्रिय मिली हुई थीं। सारी की सारी। इसलिए मनुष्य आनन्दित होकर जिये पर हाय रे अभागे मनुष्य इन इन्द्रियों के भीतर जो ब्रह्मवर्चस-ब्रह्मतेज था, उन्हें नष्ट करता हुआ चला गया। जीभ का उपयोग आया होता तो उसने हर आदमी से मीठा वचन और प्यारा वचन बोला होता। उल्लास और आनन्द से भरने वाला वचन बोला होता, लेकिन आदमी जिव्हा-इन्द्रियों का उपयोग न कर सका। यदि किया होता तो हममें, आप में से हर कोई 100 वर्ष जिया होता। हमने नशे पिये, जायके के लिए , मिर्च मसाले खाए जो हमारी खुराक में शामिल नहीं थे। एक इन्द्रिय का जिक्र मैंने किया, अन्य इन्द्रियों का मैं नहीं करना चाहता। करूंगा तो मनुष्य का निकृष्ट और पापी जीवन सामने आएगा और यह मालूम पड़ेगा कि जिसके लिए मनुष्य बनाया गया था, वह सारा का सारा उद्देश्य उसने चौपट करके रख दिया, ठीक उल्टी दिशाओं में चला।
ऋतम्भरा प्रज्ञा-गायत्री जिसका आज जन्म दिन है, तीन धाराओं के रूप में हमारे जीवन में प्रवाहित होती है। गंगा, यमुना और सरस्वती। इनका जहाँ, जब कभी सम्मिश्रण बन गया, उसी जगह का नाम तीर्थराज बन गया। तीर्थराज मनुष्य को बनाया गया था, तीन धाराओं के रूप में प्रवाहित होता हुआ। अहंकार से दूर लोभ-तृष्णा-कामनाओं से दूर, इन्द्रियों के दुरुपयोग से दूर, मनुष्य इन तीन पापों से बचा हुआ रहता, तब उसके पास जो भगवान का दिया ब्रह्मवर्चस् था, ब्रह्मतेज था, वह प्रस्फुटित होता और आदमी तीर्थराज बन गया होता।
ब्रह्माजी ने जब यह विश्व बनाया था, तब विवेकशीलता, विचारशीलता रूपी उपहार जिस दिन मनुष्य को दिया, वह आज का गायत्री जयन्ती का ही दिन था। गंगा आज ही अवतरित हुई थी और गायत्री मंत्र के रूप में ज्ञान की गंगा आज के ही दिन अवतरित हुई थी। गंगा का एक स्वरूप स्थूल और एक स्वरूप सूक्ष्म। गंगा का स्थूल स्वरूप आप देख सकते हैं बाँध, नहरों के रूप में। गंगा खेतों के लिए पानी देती है, बिजली पैदा करती है। गंगा का सूक्ष्म रूप यह कि जब आप नहाते हैं, यह प्रार्थना करते हैं कि स्वर्ग से आई देवी इस धरती पर प्रवाहित होती हो और हमारे मन, हमारे अहंकार, हमारी अंतरात्मा और हमारे अंतरंग जीवन इस सबको साबुन लगाती, मलिनताओं को धोती चली जाती है- पाप के कर्म फल को नहीं, पाप- के दण्ड को नहीं। पाप के दण्ड का तो एक ही बचाव है कि पाप का प्रायश्चित करना चाहिए। आदमी ने जितना गड्ढा किया है उतनी ही मिट्टी लाकर डालनी चाहिए। समाज को जितना नुकसान पहुँचाया है, उसकी पूर्ति होनी चाहिए।
गंगा जी के साथ जो पवित्रता भरी पड़ी है, शाँति और शीतलता भरी पड़ी है उसे यदि हम अपने जीवन में स्थापित कर सकते हों, तो यही भावना भीतर आएगी कि हमें गंगा के तरीके से निर्मल होना चाहिए, शीतल होना चाहिए। गंगा की ही तरह खेत और खलिहानों में, अपने चारों तरफ खुशी हरियाली पैदा करने वाला होना चाहिए। अगर यह भावना हमारे भीतर आएगी तो पाप-वृत्तियाँ नष्ट हो जाएँगी और तब हम स्वर्ग-शान्ति-मुक्ति के अधिकारी होंगे। गंगा के सूक्ष्म स्वरूप के साथ यदि हम गंगा में स्नान करें तो यह अनुभव करते चलें कि गंगा माँ का हम अपने जीवन में प्रवेश करा रहे हैं, गंगा माँ की शान्ति हमारे अन्तरंग में प्रवेश करा रहे हैं, गंगा माँ की शान्ति हमारे अन्तरंग में प्रवेश कर रही है, गंगा की लोक-मंगल वृत्ति हमारे रोम-रोम में समाविष्ट हो रही है। जब नहाकर निकलें तब यदि यह अनुभव करते हुए निकलें कि अपनी पाप-वृत्तियों को हम ने बहा दिया, भावी जीवन शुद्ध और पवित्र जिएँगे तो में कहता हूँ कि वह सारे का सारा माहात्म्य जो गंगा में स्नान का बताया गया है, वह जरूर सही होगा, जरूर लाभ देगा।
गायत्री मंत्र, ज्ञान गंगा, जिसका आज जन्म दिन है का स्थूल रूप वह है जो हमारी कल्पना के अनुसार एक महिला है कोई, कहीं आसमान में रहती है, हंस की सवारी करती है हमारी आपकी स्थूल कल्पना है कि वह देवी खुशामद से प्रसन्न हो जाती है। हम जब आरती करते हैं उसकी, तो देवी फूलकर कुप्पा हो जाती है और कहती है- वाह भाई वाह यह आरती करने वाला चेला खूब मिला और हम जब माला घुमाते हैं तो देवी बहुत खुश होती है कि हमारी जय बोलने वाला, पूजा प्रशंसा करने वाला दुनिया में कोई नहीं था। अब यह भगत पैदा हो गया है। कैसी हमारी जय बोलता है, आरती उतारता है। वह यही देखती है कि भगत दे रुपया, दे पैसा, दे औलाद, दे इम्तहान में पास, इन सब के अलावा और कुछ नहीं माँगता। यह स्थूल गायत्री है। इस स्थूल गायत्री के लाभों से मैं इन्कार करता हूँ। यह यदि रही होती तो हर मन्दिर के पूजा करने वाले पुजारी को वे लाभ मिले होते। आपमें से नब्बे फीसदी ऐसे हैं जो गायत्री मंत्र का जप करते हैं। आपकी यह माला स्थूल माला है-स्थूल पूजा है। इसके बारे में मैं इन्कार नहीं करता। मैं कहूँगा कि यह भी उपयोगी है। जितने समय आप पत्ते खेलते हैं, यहाँ वहाँ मटरगश्ती करते हैं, उतने समय आप बैठ जाइये और भगवान का नाम लीजिये। मैं क्यों इससे इन्कार करूंगा? लेकिन जो लाभ माहात्म्य बताया गया है, उसे यदि ग्रहण करना हो, वास्तव में अनुभव करना हो जैसा कि मैंने किया तो आपको उसके सूक्ष्म अन्तरंग में प्रवेश करना होगा जिसका नाम गायत्री है।
गायत्री मंत्र जिसे आज के दिन ब्रह्माजी ने बनाया था, बहुत ऊँची स्थिति का बनाया था। जिसमें श्रद्धा का समन्वय था, विराट दृष्टिकोण और आदर्शवादिता का समन्वय था। बाह्य कलेवर उसका था जरूर-स्थूल। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षर? हाँ चौबीस अक्षर। जप करने के लिए माला की आवश्यकता? हाँ, आवश्यकता। गायत्री मंत्र का पूजन करने के लिए रोली, चंदन, धूप-दीप की आवश्यकता? हाँ, आवश्यकता। यह कलेवर है गायत्री माता के । लेकिन उसका अन्तरंग? जो विभूतियों और सिद्धियों से भरा पड़ा है, जिसे हम छू भी न सके जिसके पास पहुँचने की कभी कोशिश भी नहीं की, वह अन्तरंग हम से अविज्ञात ही बना रहा।
गायत्री का अन्तरंग यह कहता है कि मनुष्य को लोक मंगल के लिए, उत्कृष्ट जीवन जीने के लिए, और प्रभु समर्पित जीवन जीने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। ये प्रेरणा है गायत्री मंत्र की। मनुष्य को अपने लिये ही नहीं जीना चाहिए। वह भगवान का सहायक है। भगवान ने उससे अपेक्षा रखी है कि वह उसकी दुनिया को सुन्दर बनाने की कोशिश करे। यह संकल्प धारण करे कि उसके पास जितना समय, बुद्धि, श्रम अपने व बच्चों को पालने के अतिरिक्त बचेगा उसे भगवान के लिए , लोकमंगल के लिए खर्च करेगा। भगवान बुद्ध, शंकराचार्य, गाँधी, लोकमान्य तिलक, जब लोकमंगल के लिए जुट गए तो उनके घर वालों ने उन्हें बेवकूफ कहा। लोकमंगल के लिए जब कोई आदमी बड़ा काम किया करता है, तब उसकी पहचान यह है कि इस दुनिया के लोग उसको आमूमन बेवकूफ बताया करते हैं इसलिए यह बात साफ है कि ये पागल मनुष्य जिस बात की प्रशंसा कर रहे हों तो समझना चाहिए कि दाल में कहीं काला है।
यह दुनिया इतनी बेवकूफ और बेहूदी है कि जिनकी प्रशंसा करती है वे उस लायक नहीं होते और जिन्होंने प्रशंसा की है उनका मुँह और तमीज तो प्रशंसा करने लायक है ही नहीं। इसलिए प्रशंसा के लायक वे व्यक्ति हैं आज, जिनकी कभी प्रशंसा नहीं होती। कभी आपका मन हो तो यहाँ से दो किलो मीटर की दूरी पर पिसनहारी का कुआँ है, वहाँ आइये। पिसनहारी कौन? पिसनहारी बारह वर्ष की उम्र में विधवा हो गयी थी। चक्की पीसती-पेट पालती। दो आने रोज कमाती सात पैसे में गुजारा कर लेती। एक पैसा बचा लेती। जब मरने को हुई बुढ़िया तो उसके पास पाँच सौ रुपये थे। गाँव वालों को बुलाया और कहा मेरी सारी जिन्दगी की धर्म की पवित्र कमाई है यह। यहाँ पानी का बड़ा अभाव है। इन रुपयों से एक कुआँ बना दिया जाय। जो भी इस रास्ते से गुजरें, उन्हें पानी मिले और वे मेरी जिन्दगी भर की कमाई का फायदा उठायें। पिसनहारी के इस कुएँ का पानी मथुरा जिले की सब जगहों के पानी में बढ़िया और मीठा पानी है। जबकि शेष स्थानों का पानी खारा है। लोग आते हैं, छाया में बैठते हैं, मीठा पानी पीते है। पिसनहारी का कहीं फोटो है? नहीं। पिसनहारी का जुलूस, किताबें? नहीं। पिसनहारी की कोई किताबें नहीं हैं, चंगेज खाँ की हैं, नादिरशाह के किस्से हैं, चीन की दीवार के हैं, डायनामाइट की खोज करने वाले अल्फ्रेड नोबुल की तारीफ की किताबें है। हमारे बच्चे उन्हें पढ़ कर याद करते हैं। पिसनहारी का नाम इतिहास में नहीं है। इसलिये पहला शिक्षण गायत्री मंत्र का यह है कि यदि मनुष्य ऋद्धियों-सिद्धियों की ओर चलना चाहता हो तो उसे अपने पाप और पतन के एक द्वार को बन्द करना होगा और वह है अपने अहंकार की पूर्ति की, बड़प्पन की इच्छा। लोगों के सामने अपना चेहरा दिखाने व तालियां बजवाने की इच्छा। यह इच्छा यदि बनी रही तो आदमी सिद्धाँत और आदर्श के लिए लोक मंगल के लिए काम नहीं करेगा। फिर तो पूजा भी यश के लिए करेगा। गायत्री मंत्र यह सिखाता है कि हमें बड़प्पन का भूखा नहीं होना चाहिए। अगर आदमी ने इस पर नियंत्रण कर लिया तो उसकी अस्सी फीसदी शक्तियों की बचत हो सकती है, उसकी जो अक्ल तबाह होती रहती है, उसका बचाव किया जा सकता है।