व्याप्त हो मन-प्राण में, किसने कहा?
फूल ही ओझल हुआ है, गंध हमको दे गये हो॥
की तपश्चर्या-तपाकर, स्वर्ण की भी भस्म कर ली।
तुम बहे बन गंगा, हमने भूमि की हर चीर भर ली॥
प्रेम का झूला पड़ा, सबने मनाया खूब सावन।
शुष्कता हर कर तुम्हीं ने, मन बनाये सरल-पावन॥
“आऊँगा अगले बरस फिर,”बात यह कह के गये हो॥
बस-बसेरा किया, यह पीढ़ी उसी पर सो गयी है॥
जिस हवा में साँस ली तुमने, उसी में रह रहे हैं।
है न कोयल, सिर्फ स्वर को याद कर यह कह रहे हैं॥
आत्मगृह में बस गये, तब टिके हैं प्राण प्यारे॥
और गंगा जल भरा है, नयन के इन कोटरों में।
कूक कोयल की बसी है, प्राण में मन में, उरों में॥
अण्ड भी पकने लगा है तुम जिसे खुद से गये हो॥
-माया वर्मा