डॉ. विश्वेश्वरैया ‘भारत रत्न’ की उपाधि लेने दिल्ली पहुँचे। राजकीय अतिथि होने के कारण उनके ठहरने की व्यवस्था राष्ट्रपति भवन में की गई थी।
एक दिन प्रातः वे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पास पहुँचे और
बोले अब मुझे आज्ञा दीजिए। “ऐसी क्या जल्दी है? अभी आपको आये अधिक समय भी नहीं हुआ है मुझे कुछ आवश्यक विषयों पर आपसे चर्चा भी करनी हैं। “
“यदि ऐसी बात है तो मैं कुछ दिनों और रुका रहूँगा पर ठहरूंगा अन्यत्र।” तो क्या यहाँ आपको किसी प्रकार का कष्ट है?
“नहीं! नहीं बात यह है कि राष्ट्रपति भवन में कोई अतिथि केवल तीन दिन ही ठहर सकता है और मुझे तीन दिन पूरे हो गये हैं। मैं यहाँ के नियमों को नहीं तोड़ना चाहता। अन्यत्र कहीं भी ठहर जाऊंगा, जब आप आवश्यक समझें, फोन पर सूचना देकर मुझे बुला लें।”
राजेन्द्र बाबू ने यह सुना तो नियम-पालन की सुदृढ़ भावना से वह मन ही मन बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उन्होंने फिर भी कुछ समय और रुके रहने का आग्रह किया पर डॉ. विश्वेश्वरैया नियम तोड़ने को तैयार न हुए।
दूसरे लोग प्रसन्न रहते हैं या अप्रसन्न। इसका निष्कर्ष निकालते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा कहीं अपनी भूल या लापरवाही के कारण तो नहीं हो रहा है। आलस्य-प्रमाद ने यदि अपनी गरिमा पर दाग लगाया है तो उसे अपनी गलती मान लेते हुए अविलम्ब धो डालने का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु यदि सच्चाई-ईमानदारी ही किसी की आँख में अयोग्यता बन रही हो तो उसे बनी रहने देना ही श्रेयस्कर समझना चाहिए।