वाल्टर स्कॉट ने एक स्थान पर लिखा है कि इस विश्व-ब्रह्माण्ड का सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन करने पर ऐसा लगता है कि इसे संचालित करने वाली कोई न कोई नियामक सत्ता होनी ही चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में सब कुछ इतना सुव्यवस्थित और अनुशासित ढंग से चलता रहे, ऐसा असंभव सा लगता है, कि यह सब कुछ अनायास हो रहा है और आगे होता रहेगा।
यदि उनके कथन पर विश्वास किया जाय तो हमें यह मानने को विवश होना पड़ेगा कि सृष्टि-संचालन के पीछे कोई परोक्ष सत्ता अवश्य होनी चाहिए। सूक्ष्म अध्ययन से इसकी वास्तविकता समझी भी जा सकती है और अनुभव भी की जा सकती है। जिनके भ्रूणों में विलक्षण समानता और एकरूपता पायी जाती है, चाहे वह मानवी भ्रूण हो, बिल्ली का, गाय, भैंस, बकरी किसी का भी हो, विकास क्रम की प्रारंभिक अवस्था में उनमें विभेद करना और यह बता पाना कि यह किस जीवधारी का भ्रूण है, कठिन ही नहीं, असंभव भी है। फिर विकास काल के बाद की अवस्था में उनमें कैसे अपनी जाति के अनुरूप अंग-अवयव और आकार-प्रकार स्वतः विकसित होने लगते हैं? यह विचारणीय बातें हैं।
तर्क वादी इन सबका उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। जीव विज्ञानी संभवतः इसका यह कह कर जवाब दें कि ऐसा जीवकोष के जीन में निहित कूट-संदेश के कारण शक्य हो पाता है। कुछ क्षण के लिए इसे मान भी लें, तो अगले ही पल एक अन्य सवाल उठ खड़ा होगा कि हर प्राणी में इतने भिन्न-भिन्न प्रकार का कूट संदेश प्रतिष्ठित करने वाला कौन है? इसका आदि कारण क्या है? विज्ञान यहीं मौन हो जाता है। अध्यात्म विज्ञान इसका यह कहकर उत्तर देता है कि सब उस नियन्ता का खेल है, जिसने आरम्भ में एक से अनेक बनने की इच्छा की एवं सृष्टि बनायी। दूसरे प्रकार से इसे हम यों भी समझ सकते हैं कि आज के कम्प्यूटर युग में माइक्रोचिप्स विभिन्न प्रकार की पूर्व भण्डारित सूचनाओं के आधार पर काम करती है, उसी हिसाब से वे अनवरत काम करती रहती हैं, पर आखिर उसमें संदेश भरा किसने? इसका एक सामान्य सा उत्तर होगा, उस निर्मात्री कम्पनी ने जिसने उसका निर्माण किया, अर्थात् निर्माता ही उसमें संदेश निर्धारण का भी काम करता है। यही बात सृष्टि के समस्त प्राणियों में लागू होती है। स्रष्टा इनका निर्माण करके ही अपने कार्य की इतिश्री नहीं मान लेता, वरन् इस बात का भी समुचित ध्यान रखता है, कि संरचना के बाद उसकी कृति ठीक-ठीक काम करती रहे।
वनस्पति जगत में भी ऐसी ही नियमितता और नियमबद्धता दिखाई पड़ती है। इंग्लैण्ड के प्रख्यात वनस्पति शास्त्री और दार्शनिक जेम्स फ्रेजर ने कहा है कि ईश्वरीय सत्ता और उसकी अद्भुत विधि-व्यवस्था को सिद्ध करने का ज्वलन्त प्रमाण स्वयं पादप-जगत भी अपने में धारण किये हुए है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “प्लाण्ट किंगडम-दि विविड एविडेन्स आफ प्रेजेन्स ऑफ गॉड’ में वे लिखते हैं कि विभिन्न पेड़-पौधों द्वारा अपनी जाति के रूप-रंग, आकार-प्रकार वाले फूल-फलों को उत्पन्न करने संबंधी पादप शास्त्रियों का जीन-सिद्धान्त मान भी लिया जाय, तो वनस्पतियों की उस नियमितता का समाधान कैसे हो, जिसमें वे फलते-फूलते हैं। समय और मौसम की सूचना उन्हें कौन देता है? इनकी भलीभाँति पहचान वे कैसे कर लेते हैं? फ्रेजर महोदय लिखते हैं कि जब तक वनस्पतियों में चेतना की उपस्थिति की बात विज्ञान द्वारा प्रमाणित नहीं की जा सकी थी, जब तक तो यह गुत्थी अनसुलझी थी, पर भारतीय वनस्पति विज्ञानी जे.सी. बोस द्वारा जब यह सिद्ध कर दिखाया गया कि विष को देख कर पौधे, प्राणियों की तरह भयभीत होते और उसका इंजेक्शन देने पर मर जाते हैं तथा रागात्मक गतिविधियों के प्रति आनन्द प्रदर्शित करते हैं, अर्थात् मनुष्य की उसके प्रति अनुकूल क्रिया के संदर्भ में वे तत्सम प्रतिक्रिया प्रदर्शित करते हैं, तो यह स्पष्ट हो गया कि समय संबंधी सूचना उनके साथ गुँथी उस चेतना द्वारा संभव हो पाती है, जिस महत् चेतना का अंशधर मनुष्य है।
भूगर्भशास्त्री हीरा बनने की प्रक्रिया समझाते हुए कहते हैं कि कोयला जब एक निश्चित तापमान एवं दबाव पर आ जाता है, वह हीरा बन जाता है, पर आखिर उस तापमान पर हीरा ही क्यों बनता है? कोई अन्य पदार्थ क्यों नहीं बनता है, तो पुनः प्रश्न पैदा होगा कि यह सुयोग बिठाने वाला कौन है? परिवर्तन के बाद फिर वह अपने गुण-धर्म को कैसे समझता और निरन्तर अपनाये रहता है? तापमान और दबाव के हटते ही वह पुनः कोयला क्यों नहीं बन जाता? उसकी परमाणविक-संरचना को कौन−सी शक्ति बदल देती है? इस प्रकार के अनेकानेक सवाल उठ खड़े होंगे, जिनका जवाब दे पाना भौतिक विज्ञान के बस की बात नहीं होगी। इनका उपयुक्त उत्तर अध्यात्म विज्ञान ही दे सकता है, जो कण-कण में चेतना की उपस्थिति देखता और अनुभव करता है। खगोल विज्ञान भी खगोलीय पिण्डों के संदर्भ में ऐसी ही मर्यादित विधि-व्यवस्था सिद्ध करता है, जो यह अनुमान लगाने के लिए काफी है, कि निर्जीव पिण्डों का संचालन-सूत्र निश्चय ही किसी चेतनात्मक सत्ता के हाथों में है।
पदार्थ की सामान्यतः तीन अवस्थाएं मानी गई हैं-ठोस, तरल व गैस। इसकी चौथी अवस्था ‘प्लाज्मा’ कहलाती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि जब तापमान ‘प्लाज्मा’ अवस्था से भी उच्च स्थिति में आ जाता है, तो पदार्थ शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। इस बिन्दु पर पदार्थ विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान की मान्यता एक-दूसरे से पूर्णतः मेल खाती है। अध्यात्म विज्ञान कण-कण में स्रष्टा की चेतनात्मक सत्ता की विद्यमानता का “ईशावास्यमिदं सर्वं” कह कर उद्घोष करता है, जबकि पदार्थ विज्ञान एक निश्चित तापमान के उपरान्त पदार्थ के चेतनात्मक शक्ति में परिवर्तन की बात कहता है। यहाँ ध्यातव्य यह है कि जहाँ जिस वस्तु की विद्यमानता है ही नहीं वहाँ उसकी उत्पत्ति समस्त भौतिक सिद्धान्तों के सर्वथा विपरीत है। जब कोयला, हीरा में परिवर्तित होता है तो दोनों के भौतिक स्वरूप में भले ही जमीन आसमान जितना अन्तर हो, पर रसायनवेत्ता जानते हैं कि उनका रासायनिक गुण-धर्म सर्वथा अभिन्न होता है। इसी प्रकार बर्फ और पानी बाह्य दृष्टि से पृथक्-पृथक् दीख सकते हैं, पर उनके रासायनिक गुण एक-से होते हैं, किन्तु पदार्थ के चेतना में परिवर्तन के संदर्भ में दोनों के न सिर्फ भौतिक स्वरूप, वरन् प्रकृति में भी भिन्नता दृष्टिगोचर होती है और एक सर्वथा नवीन सत्ता का उद्भव देखने में आता है। अतएव यह स्वीकार लेना ही उचित होगा कि पदार्थ, चेतना की स्थूल अभिव्यक्ति है एवं उसका कुछ अंश सूक्ष्म रूप में पदार्थ की आकृति प्रकृति को नियमित-नियंत्रित बनाये रखने के लिए उसमें विद्यमान होता है।
इस प्रकार विज्ञान ने उस आध्यात्मिक मान्यता को एक प्रकार से प्रमाणित ही किया है कि हर जड़ चेतन में वह चेतन सत्ता विद्यमान है एवं स्वयं वह भी उसी की स्थूल अभिव्यक्ति है, जिसने यह सृष्टि बनाई है। कहा गया है कि महाप्रलय के बाद इस सृष्टि के जड़ चेतन सभी पदार्थ अपने मूल रूप आकाश की शक्ति का स्त्रोत शब्द ब्रह्म (बिगबैंग) कहा गया है जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हुई मानी जाती है। इस तरह इस बिन्दु पर अध्यात्म और विज्ञान दोनों की मान्यताएं एक ही फ्रीक्वेन्सी पर अपना प्रतिपादन करती दिखाई देती है। यही शाश्वत सत्य है। सभी जड़ चेतन में एक ही शक्ति क्रीड़ा कल्लोल कर रही है। वही उनकी निर्मात्री है और संचालक भी।