जब व्यक्ति इतना घमंडी हो जाय कि रो न सके। जब इतना गंभीर हो जाय कि हँस न सके और इतना स्वार्थी हो जाय कि अपने सिवाय किसी और की चिन्ता न कर सके तो समझना चाहिए कि उसने दारिद्र ही बटोर रखा है।
लोग क्या कहेंगे? यह सोचना व्यर्थ है। लोगों की तो आलोचना और निन्दा करने की आदत होती है। उन्हें अपनी आदत को चरितार्थ किये बिना चैन नहीं पड़ता। प्रतिगामियों की कायरता और मूर्खता पर हँसने वालों की कमी नहीं। इसी प्रकार प्रगतिशील एकाकी सन्मार्ग पर चल पड़ने पर भी उनके व्यंग-हास से बच नहीं पाते। ऐसी निरर्थक समीक्षा निंदा और प्रशंसा की परवाह किये बिना केवल अपनी अन्तरात्मा का परामर्श निर्णय लेना ही पर्याप्त समझा जाना चाहिए कि अपने द्वारा औचित्य अपनाया गया या नहीं। हंस की नीर-क्षीर विवेक बुद्धि पर भले ही कोई आश्चर्य प्रकट करे और उसे घाटे वाली अव्यावहारिकता बताये, पर राजहंस इसकी परवाह कहाँ करता है? अतः वह प्रशंसा और प्रतिष्ठ भी प्राप्त करके रहता है। यही बात प्रगतिशीलता अपनाने के संबंध में भी समझी जानी चाहिए।