स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास में दिये गए एक व्याख्यान में घोषणा की थी कि “मनुष्य का भविष्य उसके सही अर्थों में वैज्ञानिक और सच्चे आध्यात्मिक होने पर अवलम्बित है।” उनके अनुसार विराट् ब्रह्माण्ड में ‘माइक्रोकास्म’ एवं ‘मैक्रोकास्म’ नामक दो आन्तरिक और बाह्य विश्व हैं। अपने अनुभवों द्वारा हम दोनों में से सत्य को ग्रहण करते हैं। आन्तरिक अनुभूति द्वारा प्राप्त सत्य मेटाफिजिक्स या अध्यात्म कहलाता है, तो बाह्य अनुभवों से तर्क बुद्धि द्वारा प्राप्त ज्ञान फिजिकल साइन्स या भौतिक विज्ञान। दोनों क्षेत्रों के अनुभवों का समन्वय ही हमें पूर्ण सत्य के निकट पहुँचा सकता है। अब वह दिन दूर नहीं, जब विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे से हाथ मिलायेंगे। काव्य और दर्शन विज्ञान के समीकरणों के दोस्त बनेंगे। दोनों का समन्वित स्वरूप ही भविष्य का सार्वभौम धर्म होगा। इस दिशा में यदि गंभीरतापूर्वक प्रयास चल पड़े, तो निश्चय ही यह समूची मानव जाति के लिए सभी कालों के लिए उपयुक्त जीवन दर्शन होगा।”
अभी तक की वैज्ञानिक खोजें बहिर्मुखी हैं। इस क्षेत्र में संलग्न प्रतिभाएं खोजें बहिर्मुखी हैं। इस क्षेत्र में संलग्न प्रतिभाओं का विश्वास है कि जीवन में सुख-शान्ति एवं प्रसन्नता बाह्य जगत से प्राप्त की जा सकती हैं। धर्म-दर्शन या अध्यात्म अंतर्जगत की ओर ले जाता है और प्रसन्नता, प्रफुल्लता का द्वार वहीं से खोलने को कहता है। वस्तुतः वैज्ञानिक सिद्धान्त और उनकी उपलब्धियाँ और कुछ नहीं, मानवी मस्तक का खेल है। उसमें अद्भुत कल्पनाओं, विचारणाओं, चित्रों का प्रकृतिकरण मात्र है। मस्तक तो तथ्यों को जोड़ता, इनमें काट-छाँट करता है, कुछ को स्वीकारता है और उन्हें बार-बार कसौटियों पर कसता रहता है। जिससे उसमें सत्त नवीनता बनी रहती है। इसी तरह अध्यात्म भी मात्र कहने सुनने का कोरा सिद्धान्त नहीं है, वरन् स्वयं अनुभव करने, जीवन में उतारने और व्यवहार प्रकट करने का नारा है। यह महाग्रन्थ अपनी ही काया कलेवर के भीतर अन्तःकरण में लिपिबद्ध है। किसी भी वैज्ञानिक आविष्कार की भाँति उसका अपने ही मन मस्तिष्क की प्रयोगशाला में प्रयोग परीक्षण करना पड़ता है और पूर्ववर्ती अध्यात्मवेत्ताओं के-सन्त-महापुरुषों के अनुभव रूपी आँकड़ों से मिलाया जाता है। इससे अनावश्यक तत्वों को निकाल बाहर करने में सहायता मिलती, पुरानी-सड़ी गली परम्पराओं से पीछा छूटता है, साथ ही नवीनतम तथ्यों का समावेश होता रहता है।
मूर्धन्य वैज्ञानिक एफ. काप्रा ने अपनी पुस्तक ‘ताओ ऑफ फिजिक्स’ में कहा है कि विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही सत्य की खोज में लगे हैं। आध्यात्मिकता अपने अन्तराल की गहराई में प्रवेश करके यह तथ्य उद्घाटित करते हैं, जो कि भीतर है वहीं बाहर अभिव्यक्त हो रहा है, जड़-चेतन एक दूसरे से गुँथे हुये हैं। यही बात अब विज्ञानवेत्ता भी कह रहे हैं। प्राकृतिक पदार्थों की गहराई तक प्रवेश करके सूक्ष्म-निरीक्षण-परीक्षण करने के उपरान्त जो निष्कर्ष उनने निकाले हैं उसके अनुसार वस्तुओं और घटनाओं के मध्य गहन एकता है। पदार्थ और चेतना समष्टिगत सत्ता के अनिवार्य अंग हैं। एक के बिना दूसरा अपने को व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो सकता। दोनों की खोजें परस्पर पूरक एवं सृष्टि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। किन्तु अब तक विडम्बना यही रही है कि आत्मिकी का क्षेत्र चेतना के परिष्कार परिमार्जन तक सीमाबद्ध होकर रह गया है, धर्म पूजा-पाठ के बाह्याडम्बरों से उलझ गया है, तो विज्ञान ने अपने को प्राकृतिक रहस्यों, जड़ पदार्थों की खोज तक सीमित मान लिया। एक ने दूसरे की उपयोगिता एवं महत्ता को नहीं समझा और न स्वीकारा, जबकि दोनों का उद्देश्य सृष्टि रहस्य को समझना-जीवन उद्देश्य की प्राप्ति करना और उन उपलब्धियों से मानव मात्र हित साधन करना है। काप्रा के अनुसार यह दूरी अब क्रमशः मिटती जा रही है और दोनों शक्तियाँ मिलन बिन्दु की ओर अग्रसर हो रही हैं।
प्रसिद्ध रसायनवेत्ता इन्नो बोल्थू का कहना है कि मानव सभ्यता की समस्त समस्याओं का समाधान अकेले विज्ञान और टेक्नोलॉजी के सहारे सम्भव नहीं है। जीवन के कई पक्ष ऐसे हैं जिन्हें वैज्ञानिक तरीकों से नहीं सुलझाया जा सकता। आदर्शवादिता, चरित्रनिष्ठ, सामाजिकता, भाव संवेदना जैसे उच्च स्तरीय मानवीय मूल्यों की व्याख्या विवेचना न तो गणित द्वारा हो सकती है और न विज्ञान द्वारा। इसका समाधान मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र या दर्शन के द्वारा ही सम्भव है। विज्ञान-ज्ञान की ही एक शक्तिधारा है किन्तु अकेले यह मानव हृदय को नियन्त्रित नहीं कर सकता।
विश्व का निर्माण स्रष्टा ने किसी महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया है, यदि यह तथ्य सही है, तो हमें यह जानना होगा कि वह कौन सा उद्देश्य है, जिसके लिए इस सुरम्य धरती का, उस धरती का, उस पर रहने वाले प्राणियों-वनस्पतियों का सृजन हुआ है। निश्चय ही विज्ञान इस सम्बन्ध में मौन है। उसकी पहुँच केवल इतने तक सीमित है कि प्रकृति में कौन-कौन से घटक हैं, उनमें सन्निहित शक्ति का स्वरूप क्या है और उनका अपनी सुख-सुविधा के लिए कैसे और कितनी मात्रा में दोहन संभव है। मनुष्य में अंतर्निहित भाव संवेदनाओं, आत्मिक विभूतियों को न तो पदार्थ कणों की सूक्ष्म हलचलों के आधार पर और न तो पदार्थ कणों की सूक्ष्म हलचलों के आधार पर और न ही इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वैव्स हलचलों के आधार पर जाना जा सकता है। स्नेह, प्यार, आत्मीयता, उदारता, सहिष्णुता, साहस, उमंग, क्रोध, आवेश आदि मनोभावों का समाधान वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा कहाँ हो पाता है? पदार्थों की भाँति मनुष्यों की प्रकृति एक जैसी नहीं होती। बाह्य रूप से मापक गुणों के आधार पर उन्हें समझना संभव नहीं। अतः जीवन की प्रायः अधिकाँश आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान पर अवलम्बित रहने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन सभी समस्याओं का समाधान वह प्रस्तुत कर सकता है, जो मानव जीवन की पूर्णता के लिए अभीष्ट है।
अध्यात्म जीवन दर्शन संबंधी समस्त समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकता है। इसके प्रयोक्ता अपने गुण-धर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का एवं चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश करते और अन्तराल की गहराई में प्रवेश कर उस शाश्वत सत्य के दर्शन करते हैं जिसे पाकर और कुछ प्राप्त करने की इच्छा-आकाँक्षा का सर्वथा समापन हो जाता है। अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार मनुष्य वस्तुतः “स्प्रिचुअल बीइंग“ अर्थात् अध्यात्मिक जीव है। जीवित पदार्थ के अतिरिक्त भी वह कुछ और है। आत्मिक परिपूर्णता अर्थात् क्षुद्रता में महानता में परिवर्तन-प्रत्यावर्तन।
इस संदर्भ में प्रख्यात भौतिक विज्ञानी विलियम जी. पोलार्ड का कहना है कि विज्ञान और अध्यात्म दोनों महाशक्तियों का समन्वय उक्त उद्देश्य की पूर्ति सहजतापूर्वक करा सकता है। प्रगति का मार्ग इसलिए अवरुद्ध हो गया है कि विज्ञान को मात्र वस्तुनिष्ठ ज्ञान माना है। इसी तरह अध्यात्म को व्यक्तिगत-आत्मपरक मान लिया जाता है जिसकी नींव श्रद्धा और विश्वास पर टिकी हुई है। यही कारण है कि तर्क, तथ्य एवं प्रमाणों के अभाव में इसके अनुयायी को यह प्रमाणित करना कठिन पड़ जाता है भौतिक विज्ञान के प्राथमिक सिद्धान्त की तरह इसमें वास्तविकता कितनी है। कुशल वैज्ञानिक बनने के लिए सम्बन्धित विषय के प्रति लगन, दीर्घकालिक अध्ययन, तत्परता, अनुशासन आदि को भी धैर्यपूर्वक उसी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है।
वस्तुतः विज्ञान और अध्यात्म मानवी प्रगति की दो महत्वपूर्ण एवं परस्पर पूरक शक्तियाँ हैं। एक हमारे परोक्ष जगत की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति को सरल बनाती है, तो दूसरी परोक्ष जगत की आत्मिक विभूतियों से हमें सम्पन्न करती है। दोनों का संतुलित विकास ही मानव के समग्र उत्थान का पथ प्रशस्त कर सकता है। वही आज की आवश्यकता भी है।