अपनों से अपनी बात - सतयुग की वापसी इस प्रकार संभव होगी।

September 1988

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बीसवीं सदी का अन्त और इक्कीसवीं सदी का आरंभ युग सन्धि का ऐसा अवसर है जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में भी इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। विज्ञान ने सुविस्तृत संसार को किसी गली-मुहल्ले की तरह निकटवर्ती बना दिया है। व्यक्ति और समाज की समस्याएँ आपस में गुँथ गई हैं। साथ मरने साथ जीने जैसा माहौल बन गया है इसलिए समस्याओं और समाधानों की खोज नये किन्तु व्यापक दृष्टि से करनी होगी। अपने मतलब से मतलब रखने का आदिम कालीन सोच अब चल न सकेगा।

इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने-सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी चेतना को ही करना पड़ेगा। उस चेतना को, जिसका प्रतिनिधित्व जाग्रत और वरिष्ठ प्रतिभाएँ करती रही हैं। ऐसी प्रतिभाएँ जो प्रामाणिकता एवं सुप्रखरता से सुसम्पन्न हों। उन्हीं को युग समन्वय का निर्णायक भी कहा जा सकता है।

विस्फोटक गति से बढ़ती हुई जनसंख्या, खाद्य और खनिज पदार्थों में निरन्तर होती जा रही कमी, बढ़ता हुआ वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, आणविक विकिरण, वनों का अत्यधिक कटाव, धरती की उपजाऊ परतों का क्षरण और रासायनिक भरमार से उसकी उर्वरता का समापन, बढ़ते शहर-घटते गाँव, औद्योगीकरण के कारण बढ़ती बेरोजगारी, नशेबाजी, व्यभिचार जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ लोभ, मोह, विलास और प्रदर्शन से भरी पूरी संकीर्ण स्वार्थपरता, कुप्रचलनों के प्रति दुराग्रह जैसी अनेक समस्याएँ इन दिनों तूफानी गति से उभर रही हैं। उनकी बढ़ती तूफानी दिशा-धारा मानवी गरिमा को अपने प्रवाह में बहा ले जा सकती हैं और महाप्रलय के दृश्य उपस्थित कर सकती हैं। धरती का बढ़ता तापमान जल प्रलय, हिम प्रलय, प्रचंड तपन, भुखमरी, सूखा, महामारी जैसे स्तर के संकट उत्पन्न कर सकते हैं जिससे मानवी सत्ता और सभ्यता का अता-पता भी न चले।

एक ओर जहाँ यह सर्वभक्षी विभीषिकाएँ इस सुन्दर विश्व उद्यान को तहस-नहस करने पर तुली हुई हैं। वहीं आशा की ऊषाकाल जैसी एक क्षीण किरण नवोदय का युग-परिवर्तन का संकेत भी दे रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों में विनाश का दमन और विकास का अभ्युदय करने हेतु महाकाल की नियामक चेतना अवतरित होती रही है और संकटों को टालती रही है। “यदा यदा हि धर्मस्य” वाली उक्ति में इस युग-युग में घटित होने वाली सम्भावना का आश्वासन भी है। सृष्टि अपनी इस अनुपम कलाकृति धरित्री, मानवी सत्ता और उसकी महत्ता का सर्वथा विनाश न होने देने का चमत्कारी सरंजाम भी जुटाती रही है। इस बार वैसा न हो, ऐसी निराश किसी को भी नहीं अपनानी चाहिए। उज्ज्वल भविष्य का नाम ही इक्कीसवीं सदी से आरंभ होने वाला सृजन पर्व है।

महाकाल का अवतार जाग्रत आत्माओं की आदर्शवादी अन्तः चेतना में ही प्रकट और प्रखर होता है। व्यापक समाधान उसी तूफानी उभार के आधार पर संभव है। महान परिवर्तनों का श्रेय अग्रगामी लोगों को मिले यह स्वाभाविक है पर वस्तुतः अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। सृजन की संयुक्त शक्ति की युग परिवर्तन जैसे महान कार्य सम्पन्न करती है। अवतार की दार्शनिकता इसी केन्द्र में खोजी जा सकती है। देवताओं की संयुक्त शक्ति से दुर्गावतार हुआ था। ऋषियों के एक संचय से सीता का उद्भव और असुरता का दमन संभव हुआ था। राम के रीछ, वानर, कृष्ण के ग्वाल बाल, बुद्ध के भिक्षु, गाँधी के सत्याग्रही इस प्रकार की भूमिकाएँ सम्पन्न करते हुए असंभव को संभव बनाते रहे हैं। इस बार भी वही होने जा रहा है।

विनाश के दमन और विकास के सृजन के इस आपत्तिकाल में महाकाल ने प्राणवान प्रतिभाओं को जाग्रत आत्माओं को सहयोगी और सहभागी बनाने के लिए आमंत्रण भेजा है। प्रमादी और कुसंस्कारी इसे अनदेखी, अनसुनी करके उपेक्षा भी बरत सकते हैं पर जिनके भीतर आदर्शों की उत्कृष्टता, दूरदर्शी विवेकशीलता विद्यमान है वे समय चूककर सदा पछताते रहने की भूल नहीं कर सकते। महत्वपूर्ण अवसरों की अवमानना करने वाले ही अभागे कहलाते हैं। साहसिक तो सहज सम्भावना में भागीदार बनने के लिए पाण्डवों जैसी साहसिक सूझबूझ का परिचय देते हैं।

यह प्रसव वेदना की घड़ी है। एक ओर असह्य वेदना, दूसरी ओर सुसंतति का लाभ प्राप्त करने का सुयोग। रात्रि के अवसान पर तमिस्रा धीरे-धीरे धीमी हो जाती है। दूसरी ओर ब्रह्म मुहूर्त की अवचेतन ऊर्जा और आभा बन कर अरुणोदय की तैयारी में जुटती हैं। इस संधि पर कृपण कायर ही असमंजस अनुभव करते हैं। जिसकी उमंगें भरी नहीं हैं वे प्रातः काल में जग पड़ते हैं। रात्रि वाली रीति-नीति बदलते और प्रभात कालीन नये क्रिया कलापों, नये उत्तरदायित्वों का वहन करते हैं।

इन दिनों ऐसे मणिमुक्तकों की तलाश हो रही है जिनका सुगठित हार युग चेतना की महाशक्ति के गले में पहनावा जा सके। ऐसे सुसंस्कारियों की तलाश युग निमंत्रण पहुँचा कर की जा रही है जो जीवित होंगे करवट बदलने में उठ खड़े होंगे और संकट काल शौर्य प्रदर्शित करने वाले सेनापतियों की तरह अपने को विजय श्री वरण करने के अधिकारी के रूप में प्रस्तुत करेंगे। कृपण और कायर ही कर्तव्यों की पुकार सुनकर काँपते, घबराते और किसी कोतर में अपना मुँह छिपाने की विडम्बना रचते हैं। एक दिन मरते तो वे भी हैं पर खेद पश्चाताप की कलंक कालिमा सिर पर लादे हुए।

महाविनाश की विभीषिकाएँ अपनी मौत मरेंगी। अरुणोदय अगले ही क्षणों जाज्वल्यमान दिवाकर की तरह उगेगा। यह संभावना सुनिश्चित है। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका सम्पादन करने के लिए श्रेय कौन पाता है? किसके कदम समय रहते श्रेय पथ पर आगे बढ़ते हैं।

जाग्रत आत्माएँ इस अवसर पर अपना दायित्व सँभालें इसलिए उन्हें खदानों में छिपे मुक्तकों की तरह प्रयत्न पूर्वक खोजा जा रहा है। जगाया और बुलाया जा रहा है। इस ढूँढ़ खोज के लिए दीप यज्ञों की पुनीति ज्वाला जलाई गई है। अंधकार में खोई हुई वस्तुओं को प्रकाश जलाकर ही खोजा उठाया जाता है। जन-जन को झकझोरने वाली श्रृंखला के सुविस्तृत और सुनिश्चित अभियान की तरह ही दीपयज्ञ अभियान को चलाया जा रहा है। धार्मिकता के भावनात्मक वातावरण में ऐसी ढूँढ़ खोज सहज ही बन भी पड़ती है। देव आरती में बच्चे तो पाई पैसा चढ़ाकर भी मन बहला लेते हैं पर प्रतिभाओं को तो छोटी नाली की तरह गंगा नर्मदा जैसी दिव्य धारा में अपने को समर्पित ही करना पड़ता है। हनुमान, अंगद, अर्जुन, भागीरथ, हरिश्चंद्र, शिवा, भामाशाह, विनोबा, दयानन्द, विवेकानन्द जैसे महामना ऐसा ही साहस दिखाकर कृतकृत्य हुए थे। कृपण तो सड़ी कीचड़ में जन्मने वाले कृमि कीटकों की तरह उपजते और उसी नरक में मरकर अन्तर्ध्यान हो जाते हैं।

दीप यज्ञों के प्रकाश में ज्योतिर्मय आत्माएँ उभरती, झिलमिलाती दीख पड़ेंगी और अपनी उपयुक्त जगह ग्रहण करेंगी ऐसी आशा रखी गई है। महाकाल का यह शंखनाद निष्फल नहीं जा सकता। उसे सुनकर मूर्च्छितों, प्रसुप्तों में भी चेतना का संचार होगा। जो सर्वथा मर चुके हैं उनकी बात दूसरी है।

सर्वप्रथम आगे आने वाले युग सृजेताओं को व्रतधारी प्रज्ञा पुत्र कहा जायगा वे उपासना, साधना, आराधना के आधार पर आत्म परिष्कार करेंगे। धार को पैनी करेंगे और इतनी अन्तः क्षमता अर्जित करेंगे जिसके आधार पर उनसे कुछ महत्वपूर्ण कार्य करते बन पड़ें।

उपासना अर्थात् दिव्य सत्ता के लिए बैठना, उसके साथ गुँथ जाना, आग ईंधन की तरह, सूर्यार्घ के समय अर्पित किये गये जल की तरह। कर्मकाण्ड के रूप में गायत्री जैसे मंत्र का अर्थ सहित ध्यान एवं जप और उदीयमान सूर्य का ध्यान किया जा सकता है। यह नियमित होना चाहिए। उपासना से आत्मबल बढ़ता है प्राण ऊर्जा का रोम-रोम में संचार होता है। इस कृत्य को दैनिक जीवन में किसी न किसी प्रकार गुँथा ही रखना चाहिए।

साधना का पूरा नाम है जीवन साधना। जीवन को सुव्यवस्थित बनाना। जीवन सम्पदा को आत्म परिष्कार और लोक मंगल के पुण्य परमार्थ के साथ जोड़ कर, उसे सब प्रकार कृतकृत्य बनाना। इसके लिए आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास जैसी चेष्टाएँ करनी पड़ती हैं। इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम अपनाना होता है। सादा जीवन उच्च विचार का मंत्र हृदयंगम किया जाय। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह पाकर संतुष्ट रहा जाय। अपने परिवार के सदस्यों को स्वावलम्बी और सुसंस्कारी बनाना पर्याप्त माना जाय उनके लिए उत्तराधिकार में बड़ी सम्पदा छोड़ मरने की ललक न संजोयी जाय। यही है प्रामाणिकता, प्रखरता और प्रतिभा अर्जित करने का राजमार्ग।

आराधना का अर्थ है विराट ब्रह्म की- विशाल विश्व की - विश्व मानव की सेवा साधना में समुचित उत्साह और तत्परता रखना। इसी परमार्थ परायणता को ईश्वर की आराधना कहते हैं। यही वह पूजा है जिससे आत्म संतोष, लोक सम्मान एवं देवी अनुग्रह के दोनों लाभ प्राप्त होते हैं। स्वार्थ और परमार्थ की समन्वित सिद्धि होती है। लोक परलोक दोनों बनते हैं।

कहना न होगा कि इन दिनों सबसे बड़ा परमार्थ लोक मानस का परिष्कार ही है। इस क्षेत्र में घुसी विकृतियों के कारण ही, दरिद्रता, रुग्णता, आपदा जैसी पिछड़ेपन की जन्मदात्री हीनताएँ मनुष्य के सिर पर चढ़ती हैं। आज की समस्त समस्याएँ आर्थिक संकट के कारण ही उत्पन्न हुई हैं। उन सब का एक ही समाधान है जन-मानस का परिष्कार सत्प्रवृत्ति, संवर्धन। इन्हीं पुण्य प्रयोजनों को प्रमुखता देनी चाहिए।

शान्तिकुँज का प्रज्ञा अभियान इस युग धर्म की सुनिश्चित योजना के अंतर्गत संगठित रूप से चल रहा है। उसी के अंग बन कर समर्पण को सार्थक बनाया जा सकता है। तिनके धागे अलग-अलग रहकर कुछ काम नहीं आते हैं। उनके एकजुट होने पर ही रस्से और कपड़े बनते हैं बंधी सींकें बँधकर बुहारी बनती हैं। बूँदों के समन्वय से जलधार बनती व बहती है। युग धर्म के निर्वाह में यह परमार्थ आराधना धन्य होती है कि नव सृजन के विशालकाय सम्पादन में अपनी ही भागीदारी और अलग-अलग एक चावल की खिचड़ी- ढाई ईंट की मस्जिद न बना कर हीरक हार की तरह संयुक्त शक्ति का परिचय दिया जाय। युग सन्धि के इस आपत्ति काल में तो इसी रीति नीति के अपनाये जाने की और भी अधिक आवश्यकता है।

इस सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने की प्रारंभिक प्रक्रिया यह है कि दैनिक जीवन में समयदान और अंशदान को नियमित रूप से इस प्रयोजन के लिए नियोजित रखा जाय। न्यूनतम दो घन्टे का समयदान और बीस पैसे का अंशदान तो उदारचेताओं को निकालते ही रहना चाहिए। इस समय व अंशदान को किस प्रयोजन के लिए कहाँ लगाया जाय, इसके लिए सुलभ और सरल उपाय यही है कि अपने संपर्क वाले प्रभाव क्षेत्र में युग चेतना का आलोक वितरण करने के लिए इसे नियोजित किया जाय। आजीविका उपार्जन और परिवार पालन के साथ साथ और इतना तो बन पड़ ही रहता है। उनकी बात अलग है जो वानप्रस्थ, परिव्राजकों की तरह प्राचीन काल की साधु ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह करें और घरेलू दायित्वों को दूसरे मजबूत कंधों पर छोड़कर स्वयं जन जीवन में आदर्शवादी प्राण चेतना भरने के लिए बरसते बादलों की तरह, बहते पानी की तरह निकल पड़ें। ऐसा भाव जिनका है वे शान्तिकुँज से संपर्क साधें और अपनी मान्यता तथा परिस्थिति के अनुरूप अपने कार्यरत होने का मार्ग खोजें।

समय दान और अंश दान की नियमितता के संकल्प लेने वाले ही अब “व्रतधारी” प्रज्ञापुत्र कहलायेंगे। व्रतधारी इसलिए कि वे अपने संकल्प को बार-बार तोड़ेंगे-छोड़ेंगे नहीं। पानी के बबूलों जैसे क्षणिक उत्साह दिखाकर उपहासास्पद न बनेंगे। “प्रज्ञापुत्र” इसलिए कि उनका एक ही लक्ष्य है- सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन ही अपना प्रधान लक्ष्य और कर्तव्य बनाना। आज की समस्त समस्याओं का हल भी यह एक ही है। यह विनाश का निराकरण और उज्ज्वल भविष्य के विकास प्रक्रिया का संवर्धन इसी आधार पर संभव हो सकता है। आपत्ति कालीन युगधर्म भी यही है। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग को प्रधान अस्त्र−शस्त्र मान कर इन्हीं के आधार पर युग सृजन को संभव कर पाना संभव हो सकता है।

सतयुग की वापसी इसी प्रकार संभव होगी। जिन दिनों मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण प्रत्यक्ष दीख पड़ता था उन दिनों चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की उत्कृष्टता ही इस प्रकार की सुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रही थी। उनमें सभी चैन से रहें और रहने दे सकें। हँसती-हँसती, खिलती-खिलाती, उठती-उठाती जिन्दगी इस आधार पर बितायी जा सकती है। स्वयं पार उतरना और असंख्यों को अपनी नाव पर बिठाकर पार कराना इसी आधार पर सम्भव हो सकता है। कभी इस देव भूमि में सतयुग था तब समस्त संसार उसका लाभ उठाता था। अब फिर उस पुण्य प्रक्रिया का पुनर्जीवन संभव होने जा रहा है। इसी सुनिश्चित संभावना का नाम है - सतयुग की वापसी।


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