क्रिया कौशल में हमसे आगे हैं जीव जन्तु

September 1988

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मनुष्यों में ही नहीं मनुष्येत्तर प्राणियों में भी ऐसी विशेषताएँ पायी जाती हैं जो इन्द्रिय शक्ति की परिधि से बाहर की बात है। रक्त, चर्म एवं अस्थि के संयोग से बना पंचभौतिक शरीर उन्हीं नियमों का पालन करेगा जो उसके लिए निर्धारित हैं। इसी प्रकार मस्तिष्क भी उतना ही सोचेगा जो उसने सीखा है। परन्तु सामान्य लौकिक ज्ञान की परिधि का उल्लंघन करके कई बार ऐसा कुछ देखने को मिलता है जिससे विदित होता है कि काया के भीतर एक ऐसी विशिष्टता सम्पन्न चेतन सत्ता विद्यमान है जो अतीन्द्रिय जगत की जानकारी भी प्राप्त कर लेती है। प्राणियों की अन्तःचेतना के विकास का अस्तित्व अनेक बार प्रत्यक्ष भी दिखाई पड़ता है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। मनुष्य अपने को ही महत्वपूर्ण मानता रहे और दूसरे प्राणियों को तुच्छ समझे यह उसे शोभा नहीं देता।

सृष्टि ने हर प्राणि को उसकी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप ऐसे साधन दिये हैं जिसमें किसी के साथ पक्षपात या अन्याय हुआ न कहा जा सके। मनुष्य में बुद्धिमत्ता तो है पर उसका विकास तभी होता है जब दूसरों की सहायता मिले। पढ़ाये-प्रशिक्षित किये बिना कोई मानवी संतान क्रिया कुशल नहीं बन सकती। यदि कोई उचित सहयोग-संपर्क न मिले तो जन्मजात बुद्धिमत्ता रहने पर भी मनुष्य अविकसित स्थिति में पड़ा रह सकता है अथवा कुसंग में कुमार्गगामी हो सकता है। इस दृष्टि से पशु-पक्षी जैसे प्राणी कहीं आगे हैं। प्रकृति ने उन्हें ऐसी अद्भुत सूझबूझ दी है कि बिना किसी शिक्षा दीक्षा के इतना सुन्दर सुव्यवस्थित जीवन यापन करते हैं कि उनकी सुरुचि, अनुशासनशीलता और बुद्धिमत्ता पर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है।

मनुष्य जिस वस्तु को अनावश्यक और अनुपयोगी समझकर छोड़ देता है, पक्षी उसी को जीवनोपयोगी समझकर इस्तेमाल करते देखे गये हैं। जूता, कपड़ा फटने और पुराना हो जाने पर विलासी लोगों द्वारा कूड़ा करकट समझकर फेंक दिया जाता है पर पक्षी उसी से कपड़ा और मकान जैसी जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को जुटाकर सपरिवार बड़े हर्षोल्लास के साथ रहते-जीवन बिताते हैं। इनके घर–घरौंदों की संरचना बड़ी ही विलक्षण होती है। धनेश पक्षी तो इतना कुशल इंजीनियर होता है कि अपना घोंसला कंकरीट से भी सख्त बनाता है। अबाबीलें तो कीचड़ की सहायता से ऊँची से ऊँची दीवारों पर अपने घर बसाते हैं। उनकी कलाकारिता को देखकर यही कहा जा सकता है कि भौतिक विज्ञानी काफी पीछे हैं।

यदि भौतिक विज्ञान प्राणियों को जड़ प्रकृति का ही एक तुच्छ उत्पादन मानता रहेगा तो उसे उस अतीन्द्रिय चेतन सत्ता का कभी कोई आधार एवं कारण नहीं मिलेगा जो इस सृष्टि का नियामक है एवं उसके प्रत्येक कण में विद्यमान है। जब प्राणी एक चलता-फिरता पेड़-पादप ही ठहरा तो उसकी शारीरिक एवं मानसिक हलचलें भी शरीर ज्ञान से बाहर कैसे जा सकती हैं। पर ऐसा नहीं होता। काय कलेवर के भीतर विद्यमान आत्मचेतना दिक्-काल से परे की भी असीम जानकारियाँ रखती हैं जिसके प्रमाण यदाकदा सबके सम्मुख आते भी रहते हैं। ऐसी दशा में भौतिक विज्ञान को जड़ जगत की हलचलों तक ही अपने को सीमाबद्ध नहीं रखना होगा वरन् आत्मा की अलौकिक सत्ता को भी स्वीकार करना होगा। जीव चेतना का उसकी क्रिया कुशलता का समाधान तभी मिल सकता है।

पक्षियों को ही लें तो उनकी कलाकारिता, पारस्परिक स्नेह-सहयोग, अतीन्द्रिय क्षमता आदि की व्याख्या विवेचना विज्ञान कहाँ कर पाता हैं? पक्षियों की क्रिया-कुशलता देखते ही बनती है। अपने घोंसले के रंग का चयन भी वे प्रकृति के नियमानुसार ही करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उनका जीवन प्रकृति के साथ कितना अविच्छिन्न रूप से गुँथा है। सुरक्षा का दृष्टिकोण रखते हुए अंडों के रूप रंग के अनुरूप वातावरण चुनते और तदनुरूप घोंसला बनाते हैं। टिटहरी खुली या पथरीली जमीन पर अंडे देती है जिससे उनका रंग मृत्तिका अथवा कंकड़ों के समान ही दिखाई देता है। उस वातावरण में घुलमिल कर अंडे आक्रामक दुश्मनों की आँखों से बच जाते हैं। कुररी रेत में अपनी प्रजनन क्रिया सम्पन्न करती है और उसके अंडे रेत के समरूप ही दिखने लगते हैं। जलीय पक्षी तैरते हुए पेड़-पौधों पर अपने घोंसले बना लेते हैं और अंडे देते हैं। वनस्पतियों के संपर्क से उनके अंडे बच्चे भी हरा रंग ग्रहण कर लेते हैं और माँसाहारी समुद्री जीवों से अपनी रक्षा करने में समर्थ होते हैं। इससे प्रतीत होता है कि इन प्राणियों को प्राकृतिक परिवर्तनों का पूर्ण ज्ञान होता है बया पक्षी अपने घोंसले के निर्माण में तो उच्चस्तरीय शिल्पकला का परिचय देती है जिसे मौसम की प्रतिकूलता भी नष्ट नहीं कर सकती। वस्तुतः यह सभी निर्धारण चेतना के द्वारा ही संभव हो सकते हैं।

पक्षी विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन में बताया है कि अधिकाँश पक्षी अपनी मर्यादाओं का पत्नीव्रत एवं पतिव्रत धर्म का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं। दुर्भाग्यवश यदि वियोग की स्थिति आ भी पड़े तो वे आजीवन विधुर या विधवा के रूप में रहकर गृहस्थ धर्म का निर्वाह समान रूप से करते देखे गये हैं। मातृत्व एवं पितृत्व की जिम्मेदारी निभाने में उन्हें गौरव की अनुभूति होती है। इसी तरह ह्वेल मछलियों की पारिवारिक भावना देखते ही बनती है। परिवार के किसी सदस्य के घायल होने, चोट लग जाने पर वे मिल जुल कर उसकी सेवा-सुश्रूषा करती हैं। ध्रुव प्रदेशों में पाये जाने वाला पेन्गुइन पक्षी में अण्डे सेने और बच्चों की देखभाल करने का सारा काम नर पक्षी करता है दो माह तक बिना कुछ खाये पिये वह उनकी तब तक रक्षा करता रहता है जब तक बच्चे चलने-फिरने योग्य नहीं हो जाते।

कुछ प्राणी तो अपने को मानव समुदाय का ही सदस्य समझते हैं और उसी के आसपास अपना डेरा डाल देते हैं। मैना और गौरैया इसी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। खंजन, बया, अबाबील और चातक पारस्परिक सहयोग-सहकार के आधार पर अपने-अपने गृह निमार्ण की योजनाओं को पूरा करते हैं। हिंस्र जातियों से अपनी संतति को बचाने के लिए डोम काग और पीलक पेड़ के ऊपर बसने में ही अपनी कुशलता समझते हैं। प्राकृतिक अनुदानों का भरपूर लाभ उठाते हुए कठफोड़वा पक्षी पेड़ों के गड्ढों में अपना परिवार बसाता और आसानी से गुजर-बसर कर लेता है। अपने साथी एवं संतान की सुख सुविधा का ये पूरी तरह ध्यान रखते हैं। गड्ढों में लकड़ी के बुरादे से कालीन जैसा काम लेकर अपना और अपने परिवार की कठोरताजन्य कठिनाइयों से रक्षा करते हैं।

कुछ प्राणी तो इतने बुद्धिमान होते हैं जिन्हें देखकर मानवी बुद्धि भी हतप्रभ रह जाती है। आस्ट्रेलिया में “बोवर बर्ड” नामक एक धब्बेदार चिड़िया पाई जाती है। इसकी विशेषता यह है कि वह विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं और यहाँ तक कि मशीनों की आवाजों की भी बड़ी दक्षतापूर्वक नकल उतार लेती है। पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार यह चिड़िया कम से कम तीस विभिन्न प्रकार की पक्षी प्रजातियों की बोलियों की नकल कर सकती है। “फ्लैमिन्गस” नामक चिड़िया को जब अण्डे देना होता है तो कीचड़ में वह एक ऊँची और कपनुमा सुन्दर संरचना बनाती है और फिर उसमें अण्डे देती है। “गैलापागोस” चिड़िया को जब भूख लगती है तो वह काँटेदार कैकटस की छोटी टहनी को अपनी चोंच से दबाकर पेड़ के कोटरों व दरारों में डालती हैं। जैसे ही कोई कीट बाहर निकलता वह टहनी को अपने पैरों से बाहर को धकेल देती है। उसको खाकर पुनः उसी काम में जुट जाती है। टैक्सास यूनिवर्सिटी के सुप्रसिद्ध जीवशास्त्री विलियम काडले के अनुसार अमरीकी गोध घनघोर वर्षा में भी अडिग रहकर अपने परिवार की रक्षा करता एवं तप-तितीक्षा का परिचय देता है। इसे वहाँ का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया है।

मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. डी.सी. जर्निस अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “फोल्ड मेडिसिन” में लिखते हैं कि प्राणियों में प्रकृति-नियमों की उपयोगिता की जानकारी आश्चर्यजनक रूप से पायी जाती है। कुछ तो जड़ी-बूटियों की अचूक उपयोगिता और बीमारियों को दूर करने की शक्ति के बारे में भी पूरी जानकारी रखते हैं। भालू “फर्न” के मूल को पसन्द करता है तो नेवला जहरीले साँप के काटे जाने पर एक जड़ी विशेष को चबाता है और सर्प विष के प्रभाव से सर्वथा मुक्त हो जाता है। जंगली गीध अपने बच्चों को एक मसाले के पौधे की पत्तियाँ खाने को बाध्य करता है। अधिकाँश प्राणी शुद्ध वायु सेवन करते और प्राकृतिक चिकित्सा से ही अपने स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रखते हैं।

प्राणियों का बौद्धिक विकास भले ही मनुष्य की तुलना में कम हुआ हो फिर भी उनमें प्रकृति प्रदत्त उदात्त भाव संवेदनाएँ, प्रेम, सहानुभूति, सहयोग-सहकार, कृतज्ञता, कर्तव्य परायणता आदि के तत्व कूट-कूट कर भरे होते हैं। अपने को सभ्य और सुशिक्षित कहने वाला मानव इन निरीह कहे जाने वाले प्राणियों से बहुत कुछ सीख सकता है।


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