प्रतिकूलताएँ हमें विचलित न करने पायें

September 1988

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निस्सन्देह इस संसार में कष्ट और दुःख बहुत हैं। ऐसे दुःख और कष्ट आकस्मिक रूप से आकर मनुष्य को विक्षुब्ध बनाते हैं ऐसी आपत्तियाँ जो मनुष्य की नियंत्रण शक्ति से बाहर होती हैं जैसे अकाल, युद्ध, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मृत्यु, बिछोह, दुर्घटना आदि। निश्चय ही इनमें से किसी के भी मानव जीवन में आने से उसके सामान्य क्रम में व्यवधान उपस्थित हो जाता है और मनुष्य अपना मानसिक संतुलन खो बैठने की स्थिति में स्वयं को पाता है। वह नहीं समझ पाता कि ऐसी आकस्मिक आपत्तियों का कैसे सामना करें, क्या करें अथवा कहाँ जाएँ। इन कष्टों या दुःखों को क्यों वह खोजने पर सामान्यतया नहीं खोज पाता। परंतु सभी प्रतिकूल परिस्थितियाँ, वे चाहें हमारे शारीरिक कष्ट का कारण हों अथवा मानसिक, चाहे वे हम पर प्रत्यक्ष रूप से आक्रामक हों, बहुधा आती ही रहती हैं और हमें अनचाहे भी उनका सामना करना पड़ता है।

दुःखों को जीवन से सर्वथा हटाया तो नहीं जा सकता परन्तु अपनी समझदारी एवं सद्गुणों का आश्रय लेकर कम अवश्य किया जा सकता है। दुःखों को जीवन में अपरिहार्य जानकर अपनी मनोभूमि को पहले से ही उनसे लड़ने तथा संतुलन बिगड़ने न देने का अभ्यस्त बनाकर तात्कालिक कठिनाई को बहुत कुछ कम किया जा सकता है। दुःखों से जूझने के लिए पहले से तैयार मनोभूमि ही मनुष्य पर पड़ने वाले उनके प्रभाव को कम करके जीवन के आनन्द को बनाये रख सकते हैं। दुर्बल मनोभूमि जीवन को आनन्द से वंचित रखती है जिसके परिमाण स्वरूप मनुष्य को कोई न कोई वेदना-व्यक्तिगत अथवा सामाजिक अवश्य सताती रहेगी। वास्तव में कष्टों का प्रभाव उतना तीव्र होता नहीं है जितना दुर्बल मनोभूमि के लोग अनुभव करते हैं। कष्ट धरती पर हैं और बहुत हैं। परन्तु व्यक्ति यदि चाहे तो धैर्यवान बनकर बिना दुःख मनाये उन्हें सहन कर सकता है। इतिहास साक्षी है उन अनेकों लोगों के धैर्य और साहस का जिन्होंने कितनी-कितनी विकट वेदनाएँ हँसते-हँसते सही हैं। लोगों ने हँसते-हँसते मृत्यु को गले लगाया है, अपने बच्चों को दृढ़ मनोभूमि वाला बनाकर उन्हें स्वयं अपनी आँखों के आगे दीवार में चुने जाते देखा है। फिर कोई कारण नहीं कि छोटे-मोटे कष्ट से हम प्रभावित हों और अपना मानसिक संतुलन बिगाड़कर मन की दुर्बलता को प्रकट करें। इसलिये विज्ञजनों ने सबल मनोभूमि बनाने पर जोर दिया जिससे वह विपरीत परिस्थितियों से विशेषरूप से प्रभावित न हों।

इसी कष्ट सहिष्णुता की प्रक्रिया को तितीक्षा कहते हैं। कष्टों को अपना सहचर बना लें तो वे हमारे लिए व्यथा का कारण कभी नहीं होंगे। सुख के दिन तो प्रसन्नता देते ही हैं, परन्तु दुःख के दिनों में भी वही प्रसन्नता कायम रहे, वही संतुलित स्थिति जीवन के उद्देश्य और आनन्द की ओर ले जाने वाली होती है। आज सुखी, कल दुःखी परिस्थिति हमें कठपुतली की तरल हँसने या रोने को विवश करे-ऐसी स्थिति मनुष्य की गरिमा के योग्य नहीं है। भगवान ने हमें परिस्थितियों का दास नहीं, स्वामी बनाकर भेजा है। वे हम पर विजय पाने के लिए नहीं वरन् हम उन पर विजय पाने के लिये बने हैं। तो फिर क्यों न दुःखों की स्थिति में भी अपने जीवन क्रम में सुख की प्रसन्नता को बनाए रखें? आज सुखी, कल दुःखी, यह भी कोई जिन्दगी है?

यह याद रखा जाना चाहिए कि प्रतिकूलताएँ जीवन में कभी आती ही नहीं, ऐसा कभी नहीं होता है। ये तो जीवन को एक अनिवार्य अंग हैं। जो अपरिहार्य है, उससे डरने की कोई जरूरत नहीं। उसका प्रतिरोध करने की क्षमता का विकास करना चाहिए। यदि ऐसी पूर्व तैयारी की जा सके तो निश्चय ही कठिन परिस्थितियों के बीच भी धैर्य और संतुलन के साथ समस्वरता का निर्वाह करते हुए जीवन जिया जा सकता है, जीवन को और भी हल्का फुलका सरस, जीन योग्य बनाया जा सकता है।


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