शक्ति केन्द्रों का जागरण ऊर्जा का उर्ध्वगमन

September 1988

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मानवी काया का संगठन छोटी-छोटी कोशिकाओं के माध्यम से होता है। समान संरचना और कार्यपद्धति वाले कोशिका समूह मिलकर ऊतकों का निर्माण करते हैं और ऊतकों से विभिन्न शारीरिक अंग अवयवों का विकास होता है। चेतना के सर्वव्यापी होने के कारण प्रत्येक कोशिका एक जीवन चैतन्य केन्द्र होती है और अपने-अपने स्तर की प्राण ऊर्जा की किरणें बखेरती रहती हैं जिससे शरीर के सामान्य क्रिया-कलाप सम्पन्न होते रहते हैं। मनुष्य शरीर के अन्दर कुछ विशिष्ट शक्ति केन्द्रों का भी निर्माण होता है जहाँ चैतन्य ऊर्जा की बहुलता होती है। शरीर की समस्त कोशिकाओं को जाग्रत एवं विकसित कर सकना हर किसी के लिए संभव नहीं है। अतः प्राण शक्ति की अधिकता वाले विशिष्ट केन्द्रों को ही सक्रिय बनाने-जाग्रत करने का प्रयत्न विभिन्न साधनाओं; यौगिक क्रियाओं के माध्यम से सिद्धि पथ के साधकों द्वारा किया जाता है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सामान्य परिस्थितियों में चैतन्य ऊर्जा के केन्द्र कषाय-कल्मषों के तमसावरण में छिपे प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। इनमें सन्निहित गुप्त शक्तियाँ प्राण ऊर्जा के अपरिष्कृत होने के कारण अपना सही स्वरूप प्रकट नहीं कर पातीं। उनसे निकलने वाली ऊर्जा रश्मियों से मात्र काय कलेवर की विभिन्न गतिविधियाँ ही सम्पन्न होती रहती हैं और उनके धुँधलके प्रकाश में मनुष्य को पेट-प्रजनन के अतिरिक्त आगे की बात नहीं सूझती। आत्मोत्थान और लोक कल्याण की बात लोगों के समझ में नहीं आती। लोभ, मोह और संकीर्ण स्वार्थपरता के क्षुद्र दायरे में ही सिमटकर अपने जीवन की इति श्री कर लेते हैं।

प्राचीन ऋषियों, योगियों ने शरीरस्थ शक्ति स्रोतों को जाग्रत करने के लिए विज्ञान सम्मत साधना विज्ञान का आविष्कार किया था। जिसके अनुसार विभिन्न यौगिक क्रियाओं के नियमित एवं सतत् अभ्यास एवं गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश करने पर चैतन्य केन्द्रों का जागरण और प्रसुप्त शक्तियों का स्फुरण होता है। तंत्रशास्त और योगशास्त्रों में चैतन्य ऊर्जा केन्द्रों को “कमल” या “चक्र” के नाम से संबोधित किया गया है। शरीर शास्त्रियों एवं चिकित्सा-विशेषज्ञों ने इन केन्द्रों की संगति विशिष्ट ग्रंथों से बिठाई है जिन्हें “अंतःस्रावी ग्रंथियाँ” इण्डोक्राइन ग्लैण्ड कहते हैं। वैज्ञानिकों तथा एक्यूपंचर विशेषज्ञों ने इन्हें विशेष प्रकार के “बायोइलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड़” जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र माना है। तो कुछ ने इसे “नर्व फोर्स, वाइटल फोर्स, एक्टीनियम, बायोइलेक्ट्रिसिटी” आदि नामों से सम्बोधित किया है।

भारतीय योग शास्त्रों में मनुष्य शरीर के पृष्ठभाग में कशेरुकाओं के मध्य इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नामक तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन किया गया है। सुषुम्ना के अन्दर षट् चक्रों की उपस्थिति बताई गई है जिनकी स्थिति ऊपर से नीचे की ओर क्रमशः सहस्रार, आज्ञा चक्र, विशुद्धि चक्र, अनाहत चक्र, मणिपूर चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र हैं। इसके अतिरिक्त शरीर के अन्दर अनेकों शक्ति श्रोत मर्म स्थान, उपत्यिकाएँ, मातृकाएँ आदि होती हैं जिनमें शक्ति का विपुल भाण्डागार छिपा होता है।

शरीर शास्त्रियों के अनुसार काया में तंत्रिका तंत्र और ग्रन्थि तंत्र दो प्रमुख प्रणालियाँ होती हैं जिनके माध्यम से समस्त शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों का संचालन और नियंत्रण होता रहता है। तंत्रिका तंत्र का प्रमुख केन्द्र मस्तिष्क है। तंत्रिका तंत्र विशेषज्ञों के अनुसार मानव मस्तिष्क हैं तंत्रिका तंत्र विशेषज्ञों के अनुसार मानव मस्तिष्क दो भागों में विभक्त होता है- दांया भाग और बाँया भाग। दोनों भाग चेतना से सम्बद्ध होते हैं। मस्तिष्क का बाँया भाग भाषा, गणित, तर्क आदि में व्यस्त रहता है। दाँये भाग को ज्ञान, विज्ञान एवं प्रज्ञा का केन्द्र माना जाता है। मस्तिष्क के मध्य में पिट्यूटरी नामक अंतःस्रावी ग्रन्थी होती है जिसे मस्तिष्क का चैतन्य केन्द्र कहते हैं। योगशास्त्रों में इसे ही सहस्रार- सहस्र दल कमल कहा गया है। यह स्थान अतीन्द्रिय क्षमताओं एवं दिव्यज्ञान का केन्द्र है जिसके विकसित होने पर सहस्र दल कमल से असंख्य ऊर्जा किरणें प्रस्फुटित होकर मस्तिष्क के सम्पूर्ण गुप्त केन्द्रों को बाँधती हुई सिर के चारों ओर प्रकाशमान घेरे का निर्माण करती है। इसे प्रभाव मंडल कहते हैं। सहस्रार के विकास के साथ अन्तः और बाह्य वृत्तियाँ शान्त और सुस्थिर हो जाती हैं। मन के कषाय-कल्मष समाप्त होने लगते हैं और अंतः प्रज्ञा जाग्रत हो जाती है। ऐसे साधक के व्यक्तित्व में ओजस, तेजस और वर्चस की झाँकी सुस्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। सहस्रार का विकास कैसल्य प्राप्ति का जीवन मुक्ति का परिचायक माना जाता है।

सहस्रार दल के नीचे ललाट मध्य में दोनों भौंओं के नीचे “आज्ञाचक्र” स्थित होता है। इसे दिव्य दृष्टि अथवा तृतीय नेत्र भी कहते हैं। शरीर शास्त्रियों में आज्ञा चक्र की संगति “पीनियल ग्रन्थि” से बिठाई है जिसे मास्टर ग्लैण्ड के नाम से भी जाना जाता है। इस ग्रन्थि से निस्सृत रसायन शरीर के सम्पूर्ण ग्रन्थि तंत्र के परिष्कार से अनेकों शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का निराकरण होता है। मन में उठने वाले विभिन्न आवेग एवं आवेशों का शमन करने वाला यह केन्द्र जाग्रत होने पर साधक को ऊर्ध्वरेता एवं दिव्य दर्शन की क्षमता प्रदान करता है। तृतीय नेत्रोन्मीलन से गुप्त एवं प्रसुप्त अतीन्द्रिय शक्तियों के जागरण का विज्ञान साधक को हस्तगत हो जाता है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति का स्थान अन्तर्मुखी स्वभाव ले लेता है और ऐसा व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर सकता है।

काया के ग्रीवा वाले भाग में पाई जाने वाली अंतः स्रावी ग्रन्थि को “थाइराइड ग्लैण्ड” कहते हैं। शरीर शास्त्रियों अनुसार संरचना एवं कार्यिकी के दृष्टिकोण से शरीर में इस ग्रन्थि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। चयापचय की क्रिया-प्रक्रिया को कार्यान्वित एवं नियंत्रित करने में थाइराइड ग्रन्थि महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करती है। थाइराइड को सक्रिय बना लेने पर चयापचय सम्बन्धी सभी दोषों का शमन हो जाता है। मन की चंचलता को दूर करने में इस ग्रन्थि का बहुमूल्य योगदान होता है। योग विद्या विशारदों ने कंठ भाग में स्थित इस ग्रन्थि के आसपास स्नायु प्रवाह को विशुद्धि चक्र सम्बोधित किया है और इसे भावना शुद्धि का केन्द्र माना है। मानसिक असंतुलन को दूर करने के लिए विशुद्धि चक्र का शोधन आवश्यक माना गया है। कंठ कूप स्थित विशुद्धि चक्र पर ध्यान करने से भूख-प्यास जैसे सुख-दुःख कारक द्वंद्वों पर विजय पाई जा सकती है। आवेश जन्य गति विधियों पर नियंत्रण एवं नीचे के चैतन्य केन्द्रों के जागरण में आने वाली कठिनाइयों का सहज समाधान भी इस चक्र की साधना से सध जाता है।

अनाहत चक्र को हृदय स्थान स्थित चैतन्य शक्ति का भावना प्रधान केन्द्र माना गया है। शरीर शास्त्रियों ने इसे “थाइमसग्रन्थि” के आसपास स्थित माना है। मनुष्य की मस्तिष्कीय चेतना ज्ञान, बुद्धि एवं तर्क प्रधान होती है। हृदय स्थित चेतना का सम्बन्ध संवेदना प्रधान होने के कारण मनुष्य दुःख-सुख के छोटे-बड़े थपेड़ों से उद्वेलित एवं आनन्दित होता रहता है। अनाहत चक्र के जाग्रत होने पर द्वंद्व की स्थिति समाप्त हो जाती है और व्यक्ति के जीवन में अनिर्वचनीय आनन्द का साम्राज्य छा जाता है। अनाहत चक्र की साधना जीवन मृत्यु के वास्तविक रहस्य को सुलझाती है और उससे छुटकारा पाने का मार्ग उद्घाटित होता है।

हृदय के नीचे स्थान में मणिपूर चक्र स्थित होता है। प्राण ऊर्जा का केन्द्र होने के कारण वैज्ञानिकों ने इसे सोलर प्लेक्सस एवं पाचन संस्थान से जुड़े होने के कारण एपीगैस्ट्रियल प्लेक्सस नाम दिया है और इसका संबंध पैन्क्रियाज नामक ग्रन्थि तंत्र से भी जोड़ा है। शरीर शास्त्रियों ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि नाभि स्थान स्थित चैतन्य केन्द्र का सम्बन्ध स्नायु तंत्र से होता है। इसमें स्नायु तंतुओं का जाल सा बिछा होता है तथा मस्तिष्क की भाँति इसमें भी एक लिबलिवा भूरा पदार्थ- “ग्रे मैटर” भरा होता है इस केन्द्र को “एबडामिनल बे्रन” की संज्ञा दी गई है और बताया गया है कि चेतना शक्ति का वह प्रमुख केन्द्र है जिसकी साधना करने से शरीर में प्राण ऊर्जा का - तेजस् शक्ति का अभिवर्धन और पाचन संस्थान का शुद्धिकरण होता है।

नाभि चक्र के नीचे पेडू के पास स्वाधिष्ठान चक्र स्थित होता है। इसे “जीवनी शक्ति केन्द्र” भी कहते हैं। वैज्ञानिकों ने इसे एड्रीनल ग्रन्थि माना है और कहा है कि यह भाग वीर्य रक्षा एवं जीवनी शक्ति के पोषण-रक्षण का मुख्य केन्द्र है। स्वाधिष्ठान चक्र की साधना करने से काम वासना पर नियंत्रण सधता है और साधक ब्रह्मचारी एवं ऊर्ध्वरेता बनता है।

सुषुम्ना के सबसे निचले भाग में मूलाधार चक्र स्थित होता है। इसकी स्थिति गुदा द्वार एवं जननांगों के मध्य बताई गई है। योगशास्त्रों में इसे चेतन शक्ति का प्राण ऊर्जा केन्द्र कहा गया है। इसी आधार केन्द्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कुण्डली मारे प्रसुप्त मुद्रा में दबी पड़ी रहती है और यौगिक साधनाओं के माध्यम से जाग्रत होने पर षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार की यात्रा करती है तथा अनेकानेक अतीन्द्रिय दिव्य क्षमताओं का गुह्य भाण्डागार साधक के सामने खोल देती है। मस्तिष्क को प्राण विद्युत की शक्तिधारा की आपूर्ति इसी केन्द्र के द्वारा होती रहती है। वैज्ञानिकों ने इस केन्द्र का सम्बन्ध प्रजनन ग्रंथों से जोड़ा है। यह शक्ति केन्द्र है जिसमें काम वासना की अधिकता होती है और इसे साधित, नियंत्रित एवं परिष्कृत करके उच्चस्तरीय शक्तियों का स्वामी बना जा सकता हैं मूलाधार चक्र, की साधना करने वाला साधक वीर्यवान एवं ओजस्वी तेजस्वी बनता है। वह अद्वितीय एवं अनुपम मेधा शक्ति का धनी प्रतिभावान व्यक्तित्व वाला होता है।

योगविद्या विशारदों के अनुसार सृष्टि संरचना में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की तरह मनुष्य के शरीर में भी चैतन्य ऊर्जा के दो प्रमुख स्त्रोत हैं। पहला मस्तिष्क मध्य में सहस्रार और दूसरा जननांगों और गुदाद्वार के मध्य स्थान सुषुम्ना के निम्नवर्ती आधार में स्थित मूलाधार चक्र है। दोनों ध्रुवों के मध्य आदान-प्रदान होते रहने-तालमेल बने रहने पर ही मानवी काया के सभी क्रिया कलाप संतुलित एवं सुव्यवस्थित रूप से सम्पन्न होते रहते हैं। यदि इनमें से एक ने एक ने भी अपना अनुदान सहयोग देना बन्द कर दिया अथवा उसमें कटौती कर दी तो दूसरे के समस्त क्रिया कलाप लड़खड़ा जाते हैं और व्यक्तित्व में असन्तुलन पैदा हो जाता है। मनुष्य दीन-हीन, दयनीय स्थिति में पहुँच जाता है।

इस संदर्भ में शरीर विज्ञानियों का कहना है कि प्राण ऊर्जा का प्रवाह निम्न गामी होने पर वह अतृप्त वासनाओं एवं कुँठाओं को जन्म देता है। शरीर के एक छोर पर मस्तिष्क मध्य में द्विदलीय चक्र रूप में पिट्यूटरी ग्रन्थि स्थित होती है तो दूसरे सिरे पर जननाँगों से सम्बन्धित एड्रीनल ग्रन्थि। फिजियोलॉजी की दृष्टि से इन दोनों ग्रन्थियों की उपयोगिता बहुत महत्वपूर्ण होती है। इनका मनुष्य के आचरण, व्यवहार और स्वभाव से सीधा सम्बन्ध होता है। एड्रीनल ग्रन्थि काम वासना के आवेग को उत्तेजित करती है तो पिट्यूटरी ग्रन्थि उस आवेश को शान्त कर देती है अथवा उसकी दिशाधारा को उत्कृष्टता की रचनात्मक प्रवृत्तियों की ओर मोड़ देती है। इसी कारण ग्रंथि तंत्र का शुद्धिकरण जैव ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन का सर्वश्रेष्ठ उपाय माना गया है।

स्थूल शरीर के अंदर गहराई में छिपे ये मर्मस्थल वस्तुतः विराट शक्ति के भाण्डागार हैं। परमाणु का विखंडन करके जिस प्रकार बड़े परिमाण में ऊर्जा उपलब्ध की जाती है, लेसर व मेसर ऊर्जा के माध्यम से जिस प्रकार अगणित असंभव समझे जाने वाले कार्यों को सम्पन्न कर लिया जाता है, ठीक उसी प्रकार चेतना के ईंधन शब्द शक्ति का सुनियोजन कर ध्यान धारणा द्वारा सुपात्र साधक सुयोग्य मार्गदर्शन में इन शक्ति केन्द्रों को प्रस्फुटित करते व उपलब्धियों की आध्यात्मिक फलश्रुतियों से लाभान्वित होते हैं। यह एक असाधारण स्तर का योग पुरुषार्थ है। बहुधा इसे हल्की फुलकी, चर्चा के स्तर पर ऐसा मान लिया जाता है, मानों स्विच ऑन करने की तरह यह भी एक याँत्रिक प्रक्रिया है। यह क्रम जहाँ तक संभव हो दूर किया जाना चाहिए। साथ ही एक और तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि योगग्रन्थों में वर्णित षट्चक्रों की जो संगतियाँ शरीरगत ग्रंथियों और गुच्छकों से बिठाई जाती हैं, वस्तुतः वह शरीर विज्ञानियों के अन्दर स्थूल रूप में आत्मा नाम की संरचना खोजते रहे हैं और समस्त संभावनाओं को काय कलेवर की परिधि में ही लपेटते रहे हैं। अन्यथा ये सभी शक्ति केन्द्र अति सूक्ष्म होते हैं तथा योगाभ्यास, विचारणा-भावना की पवित्रता एवं गुण कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता के आधार पर विकसित हुई अन्तःप्रज्ञा द्वारा अनुभूत होते हैं।


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