मित्र भी बन गये (Kahani)

September 1988

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दो व्यापारियों की आमने-सामने दुकान थी। दोनों में आपस में भारी ईर्ष्या रहती थी। फलतः वे दोनों ही आन्तरिक आग में जलते और दुबले होते जाते थे। यहाँ तक कि दोनों ही बिमारियों से ग्रस्त हो गये।

एक ऊँचे चिकित्सक को बुलाया गया उसने वास्तविक कारण समझा और दवाई करने की अपेक्षा एक उपाय बताया कि आप दोनों एक दूसरे की दुकान पर बैठें। समझे कि मालिक दूसरा है और हम उसके नौकर है। इस प्रकार ईर्ष्या मिट जायेगी और उसके स्थान पर आत्मीयता जड़ जमा लेगी। इतना करने भर से ही आप दोनों का बीमारियों से पीछा छूट जायेगा। वैसा ही हुआ भी। इस परिवर्तन से दोनों ही स्वस्थ हो गये और उनकी आमदनी भी बढ़ गई। मित्र भी बन गये।


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